Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच : 7 की ओर उन्मुख हुआ, वैसे-वैसे आगमकारों ने 'जिनकल्प' पर भी पाबन्दी लगा दी क्योंकि स्वत: आने वाले तथा बुलाए जाने वाले कष्टों के बीच की सूक्ष्म भेदरेखा धूमिलतर होने लगी थी। स्थविरकल्प में भी कुछ व्यवस्थाएं निर्धारित कर दी गईं ताकि अनावश्यक दुःसाहस की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति रुके। स्थविरकल्पी मुनियों को अनार्य देश में भ्रमण का निषेध हो गया ताकि बेवजह तकलीफों से बचाव हो सके। साध्वियों के लिए और काफी सावधानियां दी गईं। उन्हें सुरक्षित स्थानों पर दो-दो महीने रहने का संकेत किया गया। वस्तुत: जैन धर्म जितनी कठोर चर्या के लिए विख्यात है, उससे ज्यादा विवेक के लिए है। विवेक का अर्थ है कि कोई चर्या किसी काल, व्यक्ति, वर्ग के लिए उपयोगी हो तो उसका संपादन किया जाए और कालान्तर, मानवान्तर या वर्गान्तर के लिए वह उपयोगी न हो तो उसका परिहार किया जाए। मनोविज्ञान ने इस विवेक को स्वीकार किया है। प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्य रखना वीरता है। गर्मी, सर्दी, प्रहार, आक्रमण का सामना करना सहिष्णुता है पर स्वयं कष्टों की तलाश करना, अपने शरीर पर चोट पहुंचाना, उसमें आनन्द लेना मानसिक रुग्णता है। मनोविज्ञान के अनुसार आत्महत्या की ओर अग्रसर व्यक्ति जैसे भीषण रोग का शिकार है उसी प्रकार आत्मपीड़ा की ओर बढ़ने वाला भी कुछ-कुछ रोगी है। परकीयवध और परकीयपीड़ा की तरह स्ववध और स्वपीड़ा भी वर्जनीय है, उनके अनुसार। जैन विचारधारा उनसे शत-प्रतिशत तो सहमत नहीं है क्योंकि जैन धर्म में जैन मुनियों के कुछ नियम उनके द्वारा स्वीकारणीय नहीं हो सकते। पर उनकी कुछ प्रतिपत्तियों के साथ जैन धर्म भी अपनी स्वीकृति रखता है। शरीर का आत्यन्तिक पोषण या आत्यन्तिक शोषण जिन शासन के विवेक धर्म में अनुमत नहीं रहा। ‘सरीर माहु नावित्ति' शरीर एक नौका है। नौका का उपयोग तो करना है पर उसको सीमातीत लाड़ करते हुए पानी से बचाना नहीं है, न ही उसे तोड़कर ही दम लेना है। शरीर का उपयोग साधक अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार करते हैं, साधु अपने ढंग से तथा श्रावक अपने ढंग से। केश लोच को भी जैन शासन की इस विवेक प्रज्ञा के आलोक में आचार्यों ने समझा और अपनाया है। भगवान महावीर के चारों सम्प्रदायों में साधु-साध्वी केश लोच की परम्परा को अभी तक सुरक्षित रूप से अपनाते आए हैं, चाहे सुविधावाद और आधुनिकता के कितने ही प्रतीक प्रविष्ट हो गए हों, कुछ प्राचीन परम्पराएं लुप्त हो गई हों पर लोच अभी तक शेष है। साथ ही, हजारों सालों से श्रावक-श्राविकाओं में लोच का प्रचलन नहीं हुआ। क्योंकि लोच के लिए जोजो पूर्व नियम पालनीय होते हैं, जो कि शास्त्रों में अभी तक उपलब्ध हैं, वे जब तक