Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच : 5 खाबड़ हों तो एक अंग सौन्दर्यवर्धक नहीं कहला सकता। अंगों का समानुपात में विकास हो, तभी सुन्दरता बनेगी। जैन श्रावक शैली ने अपना सौन्दर्य खोना शुरू किया तो खोता ही चला गया। फिर तो सचित्तं जल, सचित्त वनस्पति के पीने-खाने का प्रत्याख्यान श्रावकों ने करना प्रारम्भ कर दिया तथा साधुओं ने करवाना। अपने भावों को स्पष्ट करते हुए दोहरा देना जरूरी है कि ये त्याग बुरे नहीं हैं, इनका निर्वाह करने वाले महान होंगे, पर इनका समग्र जीवन से कितना सामंजस्य है तथा इनकी अध्यात्म मार्ग पर कितनी मूल्यवत्ता है तथा क्या साधु जीवन की नियमावली श्रावकों के लिए अनुमत है? एक व्यक्ति दिन में पीने में ४-५ किलो पानी तो अचित्त पी लेता है पर स्नान में, वस्त्र धोने-धुलवाने में, मकान, वाहनों की सफाई में, खेत की सिंचाई में, टॉयलेट नाली के धोने में जो सचित्त जल प्रयुक्त होता है, उस हिंसा से कैसे बचा जा सकता है? यही बात फल के सम्बन्ध में है। सचित्त जल या सचित्त वनस्पति को अचित्त बनाने में क्या हिंसा रुक गई? क्या अन्य जीवों की हिंसा और नहीं बढ़ गई? समझना यह है कि ये नियम श्रावक के व्रतों की सीमा में हैं ही नहीं, यदि कोई करेगा तो प्रकारान्तर से उनका भंग भी होगा। जिस उद्देश्य से ये नियम गृहीत हुए हैं वह उद्देश्य तो कभी पूरा होगा ही नहीं। श्रावक के सभी व्रत-नियम स्थूल स्तर के हैं जबकि यह सभी नियम प्रत्याख्यान सूक्ष्मता की सीमा में हैं। चलो, इन सब नियमों से कर्म निर्जरा होती है यह मानकर इनको प्रोत्साहित कर दें लेकिन कर्मबन्ध और निर्जरा की प्रक्रिया इतनी गहरी और सक्ष्म है कि इधर स्वल्प प्रत्याख्यानों से अल्प कर्म का बंध रुका उधर स्वल्प से कषायोदय से उससे अधिक बन्ध हो गया। समय-समय पर क्रोध, अहं, छल और इच्छाओं, अपेक्षाओं का झंझावात मानव जीवन में उठता रहता है जो त्याग-प्रत्याख्यान जन्य लाभ को क्षणभर में ध्वस्त कर देता है। इतना अधिक जोर लगाकर भी आत्मा का स्वरूप नहीं निखरा तो इन त्याग प्रत्याख्यानों पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए क्या? पूर्वोक्त साधूचित मर्यादाओं का श्रावक जीवन में प्रवेश लम्बे अर्से से होता रहा है, अत: उन पर अधिक टिप्पणी करना शायद उचित न भी हो पर एक प्रवृत्ति जो चन्द वर्षों से जैन समाज में प्रारम्भ की जा रही है उस पर तो प्रबुद्ध एवं जाग्रत वर्ग को ध्यान देना ही चाहिए। कुछ साधुओं की प्ररेणा बनने लगी है कि श्रावकों को लोच करवाना चाहिए और प्ररेणा का तरीका, श्रद्धालुओं की भावुकता का परिणाम है कि श्रावक भी पर्याप्त संख्या में लोच करवाने लगे हैं। चातुर्मास की उपलब्धियों में श्रावकों के लोचों की संख्या भी एक महत्त्वपूर्ण इकाई बन गई है। जैसे- अठाई,

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