Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ 4 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2 अप्रैल-जून, 2016 ; कई गुणा हिंसा आवागमन में संभावित है। अतः रात्रि भोजन छोड़ना उसके लिए एक तपस्या है, व्रतों का अंग नहीं। तपस्या के सम्बन्ध में इतनी स्पष्टता आगमों में उपलब्ध होने के बावजूद जैन इतिहास में ऐसा समय आया कि रात्रि - भोजन त्याग प्रत्येक जैन के लिए अनिवार्य हो गया। इस छोटे से नियम ने अन्य सभी श्रावकोचित व्रतों से ऊपर अपना स्थान बना लिया। किसी व्यक्ति का समग्र जीवन अहिंसा - सत्य, ईमानदारी, सदाचार आदि से भरपूर होने पर भी यदि वह रात्रिभोजन करता है तो उसे जैन मानना अपराध हो गया तथा सभी उच्च गुणों से वर्जित, झूठ - बेईमानी से ओत-प्रोत व्यक्ति भी रात्रि भोजन का त्यागी है तो वह विशुद्ध जैन श्रावक के रूप में सम्मानित होने लगा। धर्म का सस्तापन इसी को कहा जाएगा जब अल्प मूल्य की चीजें सिर पर चढ़ जाएं और बहुमूल्य पाताल में चली जाएं। समुद्र के सम्बन्ध में एक अन्योक्ति है कि वह तिनकों और झागों को सबसे ऊपर रखता है तथा मोतियों को नीचे फेंक देता है। ऐसा ह्रास जैन धर्म में -प्रारम्भ हुआ और क्रमशः बढ़ता ही गया। जैन साधु-साध्वियों ने इस परम्परा को वेग देते हुए न जाने क्यों, कहीं-कहीं से उठाकर सिद्धान्त प्रस्तुत कर दिए कि " रात्रि में भोजन करना मांस खाना है तथा पानी पीना रक्त पीना है।" ये उद्घोषणाएं आज भी थमी नहीं हैं। आगमोक्त न होते हुए भी श्रावक के लिए रात्रिभोजन त्याग एक पहचान बन गई। लिखने का अभिप्राय यह नहीं है कि गृहस्थ रात्रिभोजन करे या रात्रिभोजन छोड़ने में कोई दोष है। अभिप्राय यह है कि इस सम्बन्ध में (Extereme) अति भाषा से बचा जाए तथा इस नियम का जितना महत्त्व है, बस, उतना ही दिया जाए, अधिक नहीं। साधु वर्ग की प्ररेणा तथा श्रावकों के उत्साह ने धीरे-धीरे तप को और अधिक अहमियत दे दी। गृहस्थ वर्ग तेले तप से बढ़कर अठाई, मासखमण तक की तपस्याएं करने लगे। चम्पाबाई ने ६ महीने तक की तपस्या की । उसकी तपस्या के जुलूस के दौरान बादशाह अकबर के प्रभावित होने का आख्यान भी जैन कथानकों में मिलता है। पुनः प्रश्न उभरता है कि ६ माह की तपस्या संयम के बिना कितनी कर्मनिर्जरा-कारक बनती है ? तथा कितनी आगम सम्मत है ? लम्बी-लम्बी तपस्याएँ करने और करवाने का यह सिलसिला आज तक निर्बाध चला आ रहा है। श्वेताम्बर परम्परा में अधिक दिगम्बर परम्परा में कम । वर्षीतप, बेले-तेले की सालों-सालों तपस्याएँ भी श्रावक जीवन का अंग बन गईं। समग्र जीवन शैली से इन सभी तपस्याओं का तालमेल छूट गया। एक अनुपात और सौन्दर्य भंग होने लगा। ‘समचतुरस्र संस्थान की बजाय गृहस्थों का जीवन वामन, कुब्जक, हुण्ड बनने लगा। शरीर का एक अंग खूबसूरत हो और शेष सभी ऊबड़

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