Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच : 3 आस्रव रहित कैसे हुआ जाता है इसका स्पष्टीकरण प्राणिवध, असत्यभाषण, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह से रहित होकर जो जीव रात्रिभोजन का त्याग कर देता है वह आस्रवों को रोकता है तथा ५ समिति तथा ३ गुप्ति का पालने करने वाला, कषायों को वशीभूत करने वाला, इन्द्रियों को जीतने वाला, तीन प्रकार के गौरवों से मुक्त तथा तीन शल्यों को त्यागने वाला साधक आस्रव रहित हो पाता है। इस सहज संयम की दृढ़ नींव को स्थापित करने के बाद तपस्या से प्राचीन कर्मों का सफाया होता है। जो संयमी पाप कर्मों के आगमन को रोकता है वह ही तप द्वारा कर्मनिर्जरा करता है। यह जिन शासन का सर्वोच्च उद्घोष है। इस विशद् सिद्धान्त की उपेक्षा का परिणाम यह निकलता है कि अयोग्य आत्माएं भी तप के क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाती हैं। वे स्वयं मुग्ध होकर कल्पना करती रहती हैं कि हमारे कर्म नष्ट होते जा रहे हैं तथा उनके तप को देखकर अन्य व्यक्ति भी भाव-विभोर होकर उनकी स्तुति एवं प्रशंसा करके उन्हें तप के लिए उत्साहित करते रहते हैं। चार तीर्थों में श्रावक और श्राविका तप किस सीमा तक करें-यह एक उलझा हुआ प्रश्न है। पर आगमों का संतुलित चिन्तन किया जाए तो उसका भी समाधान मिल सकता है। I. सर्वप्रथम; आगम में तपस्या करने का आदेश न साधु-साध्वी के लिए है न श्रावक-श्राविका के लिए। हां, तपस्या करने वाले साधु-साध्वियों का चित्रण पर्याप्त मात्रा में है, तथा श्रावक-श्राविकाओं की जीवनचर्या के वर्णन में तपस्या के कुछ संकेत मिलते हैं।
II. संयम के अनुपात में ही तप का अनुष्ठान आगमकारों को अभीष्ट रहा है। उदाहरणार्थ- साधु-साध्वी उत्कृष्ट तपस्या ६ महीने की करते हैं तो श्रावक तेला तप। अर्थात् साधु की तुलना में गृहस्थ का तप ६० वां अंश है। तेला तप भी उस गृहस्थ के लिए जो १२ व्रती हो तथा तेला भी उस स्थिति में जब वह असंयम की प्रवृत्तियों से मुक्त हो अर्थात् प्रौषध की अवस्था में हो। III. जितने अंश में साधु का संयम होता है, उतने अंश में वह तपस्या करता है तथा जितने अंश में गृहस्थ का संयम (संयमासंयम) होता है उसके अनुपात में उसका तप, उससे अधिक नहीं। IV. रात्रिभोजन त्याग के सम्बन्ध में श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की धारणा है कि यह श्रावक के व्रतों का अंग न होकर उसके लिए तपस्या है। अर्थात् श्रावक के स्तर पर रात्रिभोजन त्याग भी पर्याप्त तपस्या है क्योंकि रात्रि में विचरण, यात्रा, आवागमन उसके लिए वर्जित नहीं है। अंधकार में भोजन करने से जितनी हिंसा संभव है उससे