Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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6 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 मासखमण, दर्शनार्थियों की भीड़, सम्वत्सरी के पौषध, दयाएं आदि परिगणनीय उपलब्धियां होती थीं वैसे ही अब लोच सर्वोच्च उपलब्धि बनता जा रहा है। चारमाह के दौरान अहं भाव की प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, मनमुटाव, कलह, द्वेष, द्वन्द्व कितनी मात्रा में न्यून हुए इन सबकी ओर न मुनिवर्ग का ध्यान है, न ही श्रावकों का। मानों सारा जैनत्व और आध्यात्मिक विकास बाह्य तप द्वारा ही संपन्न होता हो। यह भी एक विडम्बना है कि जैन धर्म में जितनी भाव प्रधानता थी, उसका संपूर्ण स्थान द्रव्य आराधनाओं ने ले लिया है। लोच की शुरुआत भी उस एकांगी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही हुई है। अब तो प्रतीत हो रहा है कि जैन श्रावकों में केवल एक आखिरी कठोर साधना का प्रवेश और बाकी है, वह प्रविष्ट हुआ और श्रावक वर्ग "उत्कृष्ट निर्जरा" का भागीदार बना। नग्नत्व का अंतिम वैरियर कब टूटेगा या तोड़ने का अभियान कब चलाया जाएगा? उत्तर चाहिए - निर्जरा के रहस्यवादियों से। कायक्लेश तप के अन्तर्गत 'लोच' आता है जो केवल जैन मुनियों की उत्कृष्ट परीक्षा के रूप में भगवन्तों ने आवश्यक रूप से विहित किया था। भारत में कष्ट सहिष्णुता और कष्ट निमंत्रण के बीच का अन्तर बहुत कम धर्मप्रवर्तकों ने समझा था। दोनों को एक मानकर अनेक धर्म सम्प्रदायों में कष्ट निमन्त्रण की परम्पराएं प्रारम्भ हो गईं। कहीं कांटों पर चलना साधना का अंग हो गया, कहीं कान फाड़ना संन्यास की शर्त बन गई, कहीं बर्फ के नीचे पसीना लाना आवश्यक हो गया, कहीं-कहीं भस्मालेपन से आगे विष्टालेपन और विष्टाभक्षण भी योगियों की परीक्षा में शुमार कर दिया गया। इन सब अतिवादी कठोरताओं के बीच बड़ा शालीन सा मार्ग प्रभु महावीर ने दिया कि जैन मुनि अपने बालों का लोच कर ले या करवा ले। यह उसकी दैहिक तपस्या अंतिम परीक्षा होगी। इससे अधिक शरीर कष्ट जैन मुनि के लिए वर्जित कर दिया। कोई कष्ट स्वयं आए, उसे सहना अच्छा है पर स्वयं कष्टों की ओर बढ़ना यह जैन धर्म में अधिक मान्य नहीं है। जिनकल्प के अन्तर्गत मुनि का जीवन काफी कठोरताओं का अभ्यासी हो जाता है पर उसमें भी कष्टों को स्वतः ओढ़ने का प्रावधान नहीं है। आने वाले कष्टों से बचकर चलने का तो निषेध है, पर कष्ट बुलाने का प्रयास नहीं है। जैसे कि रास्ते में कांटे हों तो बचकर चलना चाहिए पर जिस रास्ते में कांटे न हों उस पर पहले कांटे डालना, फिर चलना यह भी विधान नहीं है। सामने से हिंसक पशु आए तो डरकर इधर-उधर नहीं होना, यह ठीक पर जहां हिंसक पशु रहते हों वहां जानबूझ कर जाना, यह गलत है। यह सूक्ष्म विवेक जैन शासन में रहा था और जैसे-जैसे साधकों की प्रज्ञा की लौ मन्द पड़ती दिखी, विवेक स्तर भावुकता और जड़ता