Book Title: Sramana 2003 01 Author(s): Shivprasad Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 9
________________ जैन-साहित्य और संस्कृति में वाराणसी मण्डल : ५ या स्तूप आदि सम्राट अशोक के नाम से उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ को छोड़कर शेष सभी के निर्माता सम्राट् सम्प्रति हैं।२७ वर्तमान में सारनाथ में एक चतुर्मुखी सिंहस्तम्भ उपलब्ध है, जिसके शीर्ष पर चारों दिशाओं में चार सिंह अङ्कित हैं। सिंहों के निचले भाग में चारों ओर बैल, हाथी, दौड़ता हुआ घोड़ा और अर्धसिंह के चिह्न हैं। साथ ही घोड़े और बैल के मध्य में चौबीस आरों वाला चक्र भी अङ्कित है। इन प्रतीकों के सन्दर्भ में अनेक कला-मर्मज्ञों ने अपने-अपने विचार प्रकट किये हैं, जिनमें श्री बेल, डॉ० ब्लाख, डॉ० फोगेल, रायबहादुर दयाराम साहनी और डॉ० बी०मजूमदार प्रमुख हैं। जहाँ श्री बेल इन्हें अनोत्तत सरोवर के चारों किनारों पर रहने वाले पशुओं का प्रतीक मानते हैं, वहीं श्री साहनी इनमें बौद्धधर्म-ग्रन्थों के अनोत्तत सर की छाया देखते हैं। डॉ० ब्लाख के अनुसार ये चारों पशु इन्द्र, शिव, सूर्य और दुर्गा के प्रतीक हैं, जो महात्मा बुद्ध के शरणागत हुए थे। डॉ० फोगेल इन पशुओं को केवल आलङ्कारिक मानते हैं और डॉ० बी०मजूमदार चारों पशुओं को बुद्ध के जीवन की मुख्य घटनाओं के लाक्षणिक रूप प्रतिपादित करते हैं। उनका कहना है कि हाथी गर्भप्रवेश का, वृषभ उनकी जन्मराशि का, दौड़ता घोड़ा उनके महाभिनिष्क्रमण का और सिंह उनके शाक्य सिंह होने का प्रतीक है। चौबीस अर चौबीस बुद्ध प्रत्ययों के प्रतीक हैं। मूर्धस्थित चारों सिंह शायद शाक्य सिंह के महान विक्रम की चारों दिशाओं में बड़ाई उद्घोषित करते हुए बौद्ध भिक्षुओं के प्रतीक हैं।२८ उपर्युक्त विद्वानों के सभी मत उनकी अपनी-अपनी कल्पना पर आधारित हैं। जैनधर्म में चौबीस तीर्थङ्करों/महापुरुषों की विशेष मान्यता है। उन्हीं की अर्चा-पूजा जैनधर्म की पूजा-पद्धति का प्रमुख आधार है, जो काफी प्राचीन है। उन तीर्थङ्करों में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव, जिनका उल्लेख वैदिक परम्परा के महान् धर्मग्रन्थ श्रीमद्भागवत- महापुराण के पञ्चम स्कन्ध में किया गया है और अपने भगवद् अवतारों में अष्टम अवतार के रूप में भी स्वीकार किया है, का चिह्न वृषभ है। द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथ का चिह्न हाथी है। तृतीय तीर्थङ्कर सम्भवनाथ का चिह्न घोड़ा है और अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर का चिह्न सिंह है। साथ ही उसमें पाये जाने वाला चौबीस अरों वाला चक्र चौबीस तीर्थङ्करों का प्रतीक हो सकता है। जब सम्पूर्ण विवेचन का आधार केवल कल्पनाजन्य हो तब जैन प्रतीकों की सम्भावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जिस प्रकार अन्य विविध कल्पनाओं/सम्भावनाओं का उक्त सिंहस्तम्भ से क्लिष्ट कल्पना करके सम्बन्ध स्थापित किया गया है, वैसे ही जैनधर्म के प्रतीकों का उक्त सिंहस्तम्भ से निकट का सम्बन्ध स्थापित होता है। अत: इन तथ्यों पर भी कलाविशारदों को गहराई से चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 138