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जैन-साहित्य और संस्कृति में वाराणसी मण्डल : ७
दादा गुरु के चरण स्थापित हैं।२२
इस प्रकार हम देखते हैं कि पौराणिक काल से लेकर वर्तमान काल तक सारनाथ और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में जैन संस्कृति के बीज विपुल मात्रा में उपलब्ध हैं और उनसे सारनाथ में जैन-संस्कृति के व्यापक प्रभाव की जानकारी मिलती है। सन्दर्भ १. द्रष्टव्य, श्रीमद्भागवतमहापुराण, पञ्चम स्कन्ध, चतुर्थाध्याय २. अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः।
-वही, प्रथम स्कन्ध, तृतीयाध्याय, श्लोक १३ का पूर्वार्ध ३. द्रष्टव्य, वही, पञ्चम स्कन्ध, पञ्चमाध्याय, श्लोक २८-३५. ४क. येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण।
आसीयेनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति।
- वही, पञ्चम स्कन्ध, चतुर्थाध्याय, श्लोक १. ४ख. तन्नाम्ना भारतं वर्षमितिहासीज्जनास्पदम्।
हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम्।।
- आदिपुराण (भगवज्जिनसेनाचार्य) पर्व १५, श्लोक १५९. उसहमजियं च संभवमहिणंदण-सुमइ-णामधेयं च। पउमप्पहं सुपासं चंदप्पह-पुप्फदंत-सीयलए।। सेयंस-वासुपुज्जे विमलाणंते य धम्म-संती य। कुंथु-अर-मल्लि-सुव्वय-णमि-णेमि-पास-वड्डमाणा य।।
-~~-मुनि समतासागर, कथा तीर्थङ्करों की, तीर्थङ्कर यशगान, पृ० IV. ६. . रिसहादीणं चिण्हं, गोवदि-गय-तुरय-वाणरा कोका।
पउमं णंदावत्तं, अद्धससि-मयर-सत्तियाई पि।। गंडं महिस-वराहा, साही-वज्जाणि हरिण-छगला य। तगरकुसुमा य कलसा कुम्मुप्पल-संख-अहि-सिंहा।।
-तिलोयपण्णत्ती, चउत्थो महाहियारो, गाथा ६११-६१२. ७. वाराणसिए पुहवी-सुपइटेहिं सुपासदेवो य।
जेट्ठस्स सुक्क-बारसि-दिणम्मि जादो विसाहाए।। - वही, गाथा ५३९.
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