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रामचन्द्रसूरि प्रबल पुरुषार्थी एवं प्रखर प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने शीघ्र ही सिद्धराज की विद्वत्सभा में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया। राजा उन्हें पर्याप्त सम्मान देता था और काव्यप्रबन्धादि के गुण-दोष-परीक्षण सदृश गुरुतर कार्यों के लिए भी अवसर देता था । प्रबन्धचिन्तामणि के अनुसार श्रीपाल - रचित सहस्रलिंगसरोवरप्रशस्ति के संशोधन के लिए राजा ने जब विद्वानों को आमन्त्रित किया, तब हेमचन्द्र ने अपने गच्छ की ओर से रामचन्द्र को यह समझाकर भेजा कि यदि सभी लोग प्रशस्ति की प्रशंसा करें तो उन्हें टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। प्रशस्ति में राजा की ममता और श्रीपाल के वैदग्ध्य को ध्यान में रखते हुए विद्वानों ने कहा कि सभी पद्य अच्छे हैं तथापि 'कोशेनापि युतं दलैरुपचितं.' विशिष्ट है। राजा ने जब रामचन्द्र से पूछा, तब उन्होंने उक्त पद्य में व्याकरण सम्बन्धी दो दोषों की ओर ध्यान आकृष्ट किया । 11 इस प्रकार लोकविश्रुत विद्वानों के मध्य रामचन्द्रसूरि को श्रीपाल - रचित काव्य की समीक्षा करने का जो अवसर प्राप्त हुआ, वह उनकी अगाध विद्वत्ता का द्योतक है।
सिद्धराज का उत्तराधिकारी कुमारपाल भी हेमचन्द्र का परमभक्त था। उसने सं. 1216 में जैनधर्म स्वीकार कर लिया। अतः स्पष्ट है कि इसके पूर्व ही हेमचन्द्र उसकी विद्वत्सभा में आ गये थे । अनुमान है कि रामचन्द्रसूरि ने भी अपने गुरु के साथ या तत्काल बाद ही कुमारपाल का प्रश्रय प्राप्त किया होगा। वे कुमारपाल की सभा के प्रख्यात विद्वान् थे । उनकी कीर्ति - कौमुदी सर्वत्र विस्तृत थी । समस्यापूर्ति के क्षेत्र में उनका नाम अग्रगण्य था । मेरुतुंग और चरित्रसुन्दर गणि ने वाराणसी से आने वाले कवि विश्वेश्वर द्वारा समस्यायें प्रस्तुत करने और रामचन्द्र द्वारा उनकी पूर्ति करने के रोचक प्रसंग का वर्णन किया है। 12
रामचन्द्र की विद्वत्ता एवं सच्चरित्रता के कारण कुमारपाल उन्हें पर्याप्त सम्मान देता था । विषम परिस्थितियों में वह उनसे सदुपदेश भी ग्रहण करता था । जयसिंहसूरि विरचित कुमारपाल चरित से ज्ञात होता है कि हेमचन्द्र के असामयिक निधन से दुःखी कुमारपाल को रामचन्द्र ही प्रतिदिन सम्बोधित करते थे। एक अन्य विवरण से ज्ञात होता है कि अजयपाल द्वारा दिये गये विष से जब कुमारपाल प्रभावित हुआ, तब पर्यन्ताराधना करने के लिए उसने मुनीश्वर रामचन्द्र को ही बुलाया था। 13 इन विवरणों से स्पष्ट है कि कुमारपाल के अन्तिम समय तक उससे रामचन्द्रसूरि का घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहा ।
(घ) नेत्रनाश ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि रामचन्द्र की एक आँख नष्ट हो गयी थी । इस विषय में कई प्रकार के विवरण उपलब्ध हैं। प्रभावकचरित के अनुसार हेमचन्द्र ने जब सिद्धराज ये रामचन्द्र का परिचय कराया, तब उसने रामचन्द्र को हेमप्रभु की सेवा करते हुए जैनेन्द्रशासन में "एक दृष्टि" बने रहने का परामर्श दिया था। इसके बाद उपाश्रय में रामचन्द्र की दाहिनी आँख नष्ट हो गयी। 14 मेरुतुड्ग ने उनके नेत्रनाश का दूसरा कारण बतलाया है। उनके अनुसार सहस्रलिंग-सरोवर - प्रशस्ति में व्याकरण सम्बन्धी दोष दिखलाने पर सिद्धराज की नजर लग जाने (क्रद्वदृष्टि पड़ने) से उपाश्रय में प्रवेश करते समय रामचन्द्र की एक आँख फूट गयी। 15 डॉ. बुहलर ने भी उनके नेत्रनाश को उनके द्वारा की गयी इसी कुविचारित निन्दा
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