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ही उन्होंने प्रेमग्रन्थि को सुलझाने में अपनी प्रतिभा का व्यय करना उचित समझा है। वे कभी-कभी रतिचतुर कृष्ण की कामकथा में इतने अधिक तल्लीन हो गये हैं कि उस सीमा पर उन्होंने धार्मिक भावना को भी विस्मृत कर दिया है । फलतः कृष्ण रतिकालीन साधारण नायक हो गये हैं और उनकी मानुषी और विद्याधरी पत्नियाँ साधारण नायिकाएँ। इस सन्दर्भ में पुत्र प्राप्ति के लिए कृष्ण के साथ समागम सुख को चाहने वाली सत्यभामा और जाम्बवती की अहमहमिका या प्रतिस्पर्धा का पूरा का पूरा प्रसंग कृष्ण के लीला- वैचित्र्य की दृष्टि से पर्याप्त रुचिकर है। हालाकि "वसुदेवहिण्डी" के कृष्ण लीला पुरुष नहीं हैं, अपितु, वह सत्यभामा, रुक्मिणी और जाम्बवती इन प्रमुख तीनों पत्नियों (शेष पद्मावती आदि पत्नियां गौण हैं, गिनती के लिए हैं, कृष्ण के जीवन में उनकी कोई भी विशिष्ट भूमिका नहीं है) के सपत्नीत्व को पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष तथा उपालम्भजनित क्रोध एवं एक-दूसरे को नीचा दिखाने की अप्रीतिकर भावनाओं को द्वन्द्वल स्थिति के सातय को झेलते हैं, साथ ही प्रद्युम्न ( रुक्मिणीप्रसूत), शाम्ब (जाम्बवती - प्रसूत) और भानु (सत्यभामा - प्रसूत) इन तीनों पुत्रों के बीच पारस्परिक क्रीड़ा - विनोद के क्रम में उत्पन्न अवांछित कटुता, उद्दण्डता और धृष्टता का घर्षण भी वह स्वयं उठाते हैं। सबसे बड़ी चिन्ता की बात तो उनके लिए यह है कि ये तीनों पुत्र अपनी माताओं के हृदय में प्रतिक्षण प्रज्ज्वलित सपत्नीत्व का प्रतिशोध भी परस्पर एक-दूसरे की माताओं से लेने में नहीं हिचकते । प्रद्युम्न और शाम्ब तो सत्यभामा और उसके पुत्र भानु के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं और सत्यभामा को ऊबकर कृष्ण से कहना पड़ता है। कि "शाम्ब आपके दुलार के कारण मेरे बेटे को जीने नहीं देगा, इसलिए उसे मना कीजिए ।
. मैं तो अपने बेटे का खिलौना हो गई हूँ। अब मेरा जीना व्यर्थ है । "यह कहकर वह अपनी जीभ खींचकर आत्महत्या के लिए उद्धत हो जाती है और तब श्री कृष्ण उसे बड़ी कठिनाई से रोकते हैं और उसे आश्वस्त करते हैं-- "कल मैं उस अविनीत को दण्ड दूँगा, तुम विश्वास करो।" 9
एक बार तो स्वयं श्रीकृष्ण ने ही सत्यभामा को बुरी तरह छकाया । प्रतिमा जैसी सुन्दरी रुक्मिणी को श्रीदेवी की प्रतिमा-पीठिका पर मूर्तिवत् निश्चल खड़ी कराकर उसे सत्यभामा से, धोखे में डालकर, प्रणाम करवाया। कृष्ण के ही छल-छद्म के कारण, एक बार शाम्ब ने अपनी माता जाम्बवती को छाछ बेचने वाली सामान्य ग्वालिन समझकर रिरंसावश उसका हाथ पकड़ लिया। फलतः जाम्बवती और शाम्ब बुरी तरह छके। एक बार प्रद्युम्न ने तो अपने दादा वसुदेव का रूप बदलकर अपनी दादियों को छक्या यहाँ तक कि वह कृष्ण एवं रुक्मिणी को भी छकाने से बाज नहीं आया है। सत्यभामा द्वारा प्रेषित नाइयों और यादववृद्धों की तो उसने दुर्दशा ही कर दी। इस प्रकार संघदासगणी ने कृष्ण को उनके अपने परिवार के बीच ही एक अजीब गोरखधन्धे में उलझा हुआ प्रदर्शित किया है। कहना न होगा कि संघदासगणी द्वारा चित्रित कृष्णचरित्र लोक जीवन की मनोरेजकता और रुचिवैचित्रय की दृष्टि से अन्यत्र दुर्लभ है। यह कृष्ण चरित्र की दैवी सबलता और मानुषी दुर्बलता के अद्भुत सामंजस्य का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करता है ।
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