Book Title: Sramana 1994 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 58
________________ बारह भावना : एक अनुशीलन मन की क्रिया अत्यन्त सूक्ष्म होती है। इसका ज्ञान दिन-रात साथ रहने वाले परिजनों / पुरजनों को भी नहीं हो पाता है। मन की यही भावना जब परिपक्व होती है तब वह सूक्ष्म से स्थूल रूप धारण कर लेती है और वचन एवं काय के माध्यम से प्रकट होने लगती है। अतः बीज रूप में व्यक्ति के मन पर पड़े हुए अच्छे-बुरे संस्कार ही भावी जीवन के निर्माता होते हैं । - डॉ. कमलेश कुमार जैन मोक्षार्थी के लिए संस्कार / चारित्र की शुद्धि नितान्त आवश्यक है और यह चारित्र - शुद्धि व्यक्ति में तभी आती है जब उसकी मनोभावना शुद्ध हो, पर से भिन्न निजात्मा में अनुरक्त हो । जैनाचार्यों ने उक्त भावना के लिए अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग किया है और परवर्ती जैनाचार्यो/ विद्वानों ने अनुप्रेक्षा के अतिरिक्त भावना शब्द का भी प्रयोग किया है। आचार्य कुन्दकुन्द और स्वामी कार्तिकेय ने तो अनुप्रेक्षाओं का विश्लेषण करने हेतु प्राकृत भाषा में स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना की है। प्राकृत के अतिरिक्त संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य में भी अनुप्रेक्षाओं / भावनाओं का स्वतन्त्र रूप से विवेचन किया गया है। हिन्दू धर्म में जो मान्यता भगवद्गीता को प्राप्त है, वही मान्यता जैनधर्म में बारह भावनाओं अथवा द्वादशानुप्रेक्षाओं को प्राप्त है और यही कारण है कि प्रायः सभी प्राचीन एवं अर्वाचीन जैनाचार्यों/ विद्वानों ने बारह भावनाओं पर अपनी लेखनी चलाई है । लोकजीवन में गद्य की अपेक्षा पद्य रचनाओं का महत्त्व अधिक है, क्योंकि गेयता लोकजीवन का प्राण है। इसीलिए अधिकांश अनुप्रेक्षा साहित्य पद्यमय रचा गया है। आज भी जैन कुल बहुल बुन्देलखण्ड भूमि पर प्रभातबेला में वृद्ध पुरुषों एवं नारी- कण्ठों से पद्यमय बारह भावनाओं की सुमधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है। अब तो नगरों / कस्बों में भी अध्यात्मप्रियजनों के घर में टेप रिकाड्स के माध्यम से बारह भावनाओं के बोल सुनाई पड़ने लगे हैं। वर्तमान वैज्ञानिक युग में शोध / समीक्षा का विशेष महत्त्व है। इसलिए किसी भी विषय का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर बुद्धिजीवी वर्ग को सहज ही आकृष्ट किया जा सकता है और अपनी बात समीक्षाशैली के माध्यम से विद्वज्जनों / अध्यात्मरसिकों के हृदय पटल पर स्थायी रूप से अंकित की जा सकती है। आज का युग प्रचार का युग है। जो बोलता है उसका भूसा भी बिक जाता है और जो नहीं बोलता है उसका गेहूँ भी रखा रह जाता है। अतः अब समय आ गया है कि हम अपना गेहूँ/अपनी बात समयानुकूल भाषा / शोध / समीक्षा के माध्यम से प्रस्तुत करें । Jain Education International 56 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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