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डॉ. के.आर. चन्द्र
(ii) इसकी चूर्णि में मात्र "भगवया" के स्थान पर "भगवता" पाठ मिलता है। आचारांग, पृ 227, पा.टि.नं. 21 (iii) सुयं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खायं (सूत्रकृतांग, 2.1.638, म.जै. वि., पृ. 121)
इन सभी प्रमाणों के आधार पर "आउसंतेण" पाठ ही प्राचीन प्रतीत होता है और नकार के स्थान पर ण का प्रयोग तो परवर्तीकाल की प्रवृत्ति है ही इसमें कोई संदेह अब रहा ही नहीं। . अब "सुयं", "भगवया" और "अक्खायं" शब्दों में आने वाले वर्ण विकारों पर विचार किया जाय। प्रथम और तृतीय शब्द भूत कृदन्त हैं तथा द्वितीय शब्द तृतीया एक वचन का स्प है। आचारांग में ही प्राप्त होने वाले इसी प्रकार के प्रयोगों को देखते हुए इनमें जो ध्वनि विकार
आ गया है वह उपयुक्त नहीं लगता। आचारांग के (म.ज.वि. ) प्रथम श्रुत-स्कन्ध के कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं-- 1. अहासुतं वदिस्सामि -- 1.9.1.254 2. (क) भगवता परिण्णा पवेदिता -- 1.1.1.7, 2.93, 3.24, 4.35, 5.43, 6.51, 9.58 (ख) भगवता पवेदितं -- 1.2.5.89, 6.3.197, 8.4.214, 8.5.267, 8.5.219, 8.6.222, 223 (ग) माहणेण मतीमता -- 1.9.1.276, 9.2.292, 9.3.306, 9.4.323 3. (क) एस मग्गो आरिएहिं पवेदिते -- 1.2.2.94 (ख) मुणिणा हु एतं पवेदितं --1.5.4.164 (ग) जंजिणेहिं पवेदितं -- 1.5.5.168 (घ) पवेदितं माहणेणं -- 1.8.1.202 (ङ) बुद्धेहिं एवं पवेदितं -- 1.8.2.206 (च) णायपुत्तेण साहिते -- 1.8.8.240 (छ) चरियासणाई... जाओ बूइताओ।
आइक्खह ताई.... ।। 1.9.2.211
इस प्रकार "सुत, पवेदित, साहित, बुझ्न और भगवता, मतीमता आदि कितने ही प्रयोग स्वयं आचा. प्रथम श्रुतस्कन्ध में ही प्राप्त हो रहे है। इस दृष्टि में उपोद्घात का वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था... | "सुतं में आउसंतेण भगवता एवमक्खातं"।
इसी सन्दर्भ में "इसिभासियाई" के प्रयोग पर ध्यान दीजिए। इसिभासियाई ग्रन्य शुब्रिग महोदय द्वरा संपादित किया गया है। उसमें हरेक अध्ययन के प्रारम्भ में ऋषि के नाम के साथ "...अरहता इसिणा बुइतं" वाक्यांश का प्रयोग मिलता है। 43 बार "अरहता" एवं बुझतं का प्रयोग 37 बार हुआ है, मात्र 7 बार "बुझ्यं" का प्रयोग मिलता है।
तुलना कीजिए आचारांग के "भगवया... अक्खाय"
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