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परिप्रेक्ष्य में समझने में सहायता भी मिलेगी।
ग्रन्थ तीन खण्डों में विभक्त है। प्रथम चिन्तन, मंथन नामक खण्ड में अनेकांत, अपरिग्रह, अहिंसा, पर्यावरण आदि विषयों से सम्बन्धित लेख हैं। इस खण्ड में समन्वय की दृष्टि से "महावीर और कबीर की अहिंसा दृष्टि" शीर्षक लेख महत्त्वपूर्ण है। धर्म-दर्शन शीर्षक द्वितीय खण्ड में जैनधर्म विषयक कुछ लेख हैं। इन लेखों में मानव धर्म और असाम्प्रदायिक दृष्टि नामक लेख में धार्मिक सहिष्णुता, पारस्परिक सौहार्द के हेतु लेखक की तड़प का पता लगता है। पुस्तक के तीसरे खण्ड में व्यक्ति : विचार में भगवान महावीर और पैगम्बर मोहम्म्द साहब के सामाजिक एकता, अहिंसा, अपरिग्रह एवं जैनधर्म के अणवत आन्दोलन से सम्बन्धित विषयों का तटस्थ बुद्धि से विवेचन किया गया है। इस खण्ड में तीर्थंकरों की परम्परा और महावीर शीर्षक लेख को जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से ऐतिहासिक लेख कहा जा सकता है। भगवान महावीर और विश्व शान्ति, महावीर की लोकतांत्रिक दृष्टि भी प्रासंगिक लेख है।
इन लेखों के माध्यम से लेखक ने सर्वधर्म समभाव का पाठ लोगों के सामने रखा है। आज के धर्मोन्मादी एवं सम्प्रदायवादी वातावरण में इस प्रकार के उदारवादी और दूसरे धर्मों के प्रति आदर भाव रखने वाले विचारकों की अत्यधिक आवश्यकता है।
पुस्तक धर्म-दर्शन आदि विषयों के सुधी अध्येताओं के साथ-साथ सामान्यजन के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।
पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। इस सार्थक प्रयास के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक -- धर्मरत्नकरण्डकः; संपादक -- पंन्यास मुनिचन्द्रविजयगणिः प्रकाशक -- शारदाबेन चिमनभाई एजुकेशन रिसर्च सेन्टर, अहमदाबादः संस्करण -- प्रथम 1994; मूल्य -- दो सौ पचास रुपये मात्र आकार -- रायल आठपेज हार्डबाउण्ड
धर्मरत्नकाण्डकः नामक यह ग्रन्थ श्वेताम्बर आचार्य नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरि के पट्टालंकार आचार्य वर्धमानसूरि के द्वरा वि.सं. 1172 तदनुसार ई.1115 में ग्रथित है। सम्पूर्ण ग्रन्थ निम्नलिखित 20 अधिकारों में विभक्त है -- धर्माऽधर्मस्वस्पाधिकार, जिनपूजाऽधिकार, गुरुभक्ति अधिकार, परोपकाराधिकार, सन्तोषाधिकार, संसाराधिकार, शोकाधिकार, कषायाधिकार, लोकविरुद्धाधिकार, दानाऽधिकार, शीलाSधिकार, तपोऽधिकार, भावनाऽधिकार, शिष्टसमाऽधिकार, विनयाधिकार, विषयाधिकार, विवेकाधिकार, मृदुभाषिताऽधिकार, दयाऽधिकार और सघंपूजाऽधिकार।
इन अधिकारों से स्पष्ट रूप से यह ज्ञात होता है कि ग्रन्थ में न केवल कषायजय, क्षीणपालन और तपादि विविध साधनाओं का उल्लेख है अपितु दान, दया, परोपकार, संघ-पूजा आदि सामाजिक महत्व के विश्व भी है। ग्रन्थ की विशेषता है कि इसमें विषय से
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