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मडाहडागच्छ का इतिहास : एक अध्ययन
के बारे में किन्हीं अन्य साक्ष्यों से कोई सूचना नहीं मिलती। पंचम पट्टधर धर्मदेवसूरि से लेकर अष्टम पट्टधर हरिभद्रसूरि तक के नाम अभिलेखीय साक्ष्यों में भी मिल जाते है तथा नवे पट्टधर कमलप्रभसूरि का साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों साक्ष्यों में उल्लेख मिलता है। उक्त नामावली के अन्य मुनिजनों के बारे में (ज्ञानसागर को छोड़कर) किन्हीं अन्य साक्ष्यों से कोई जानकारी नहीं मिलती। (जय) देवसूरि, पूर्णचन्द्रसूरि और हरिभद्रसूरि का नाम अभिलेखीय साक्ष्यों में भी मिलता है परन्तु उनके बीच गुरु-शिष्य सम्बन्धों का ज्ञान उक्त नामावली से ही हो पाता है। इस दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है।
चक्रेश्वरसूरि
धर्मदेवसूरि
(जय देवसरि
पूर्णचन्द्रसूरि
हरिभद्रसूरि
कमलप्रभसरि । वि.सं. 1520 में सिरोही के अजितनाथ
जिनालय में प्रतिमा प्रतिष्ठापक]
गुणकीर्तिसूरि
धनकीर्तिसूरि । वि.सं. 1520 के प्रतिमालेख में कालिकाचार्यकथा की प्रशस्ति
प्रतिमाप्रतिष्ठ पक [वि.सं. 1461-76 में उल्लिखित]
कमलप्रभसूरि के साथ उल्लिखित ] लिंबही के हस्तलिखित जैन ग्रन्थ भण्डार में वि.सं. 1517 में लिखी गयी कल्पसत्रस्तवक और कालिकाचार्यकथा' की एक-एक प्रति उपलब्ध है जिसे ग्रन्थभण्डार की प्रकाशित सूची में मडाडगच्छीय रामचन्द्रसूरि की कृति बतलाया गया है। चूंकि उक्त ग्रन्थभण्डार में संरक्षित हस्तलिखित ग्रन्यों की प्रशस्तियाँ अभी अप्रकाशित है, अतः ग्रन्थकार की गुरु-परम्परा, ग्रन्थ के रचनाकाल आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती।
इसी गच्छ में विक्रम सम्वत की 15वीं शताब्दी के ततीयचरण में पदमसागरसरि10 नामक एक विद्वान् मुनि हो चुके हैं, जिनके द्वरा रचित कयवन्नाचौपाइ, स्थूलभद्रअठावीसा
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