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शिवप्रसाद
आदि कुछ कृतियाँ मिलती हैं। ये मरु-गूर्जर भाषा में रचित है। कयवन्नाचौपाई की प्रशस्ति में रचनाकार ने अपने गुरु तथा रचनाकाल आदि का उल्लेख किया है -- आदि:
सरस वचन आपे सदा, सरसति कवियण माइ, पणमणि कवइन्ना घरी, पणिसु सुगुरु पसाइ। मम्माडहगच्छे गुणनिलो श्रीमुनिसुन्दरसरि, पद्नसागरसूरि सीस त्सु पभणे आणंदसूरि।
अन्त:
दान उपर कइवन्न चोपई, संवर पनर क्रिसठे थई, भाद्र वदि अठमी तिथि जाण, सहस किरण दिन आणंद आणि। पद्मसागरसूरि इम भणंत, गुणे तिहिं काज सरंति,
ते सवि पामे वंछित सिद्धि, घर नीरोग घरे अविचल रिद्धि। यद्यपि उक्त ग्रन्थकार और उनके गुरु का अन्यत्र कोई उल्लेख नहीं मिलता और यह रचना भी सामान्य कोटि की है फिर भी मडाडगच्छ से सम्बद्ध होने के कारण इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से इसे महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
विक्रम सम्वत की सत्रहवीं शताब्दी के द्वितीय-तृतीय चरण में इस गच्छ में सारंग नामक एक विद्वान् हुए हैं। जिनके द्वरा रचित कविविल्हणपंचाशिकाचौपाई हरचनाकाल वि.सं. 1639 1, मुंजभोजप्रबन्ध रचनाकाल वि.सं. 16511, किसनरुक्मिणीवेलि पर संस्कृतटीका [रचनाकाल वि.सं. 16781 आदि कृतियाँ प्राप्त होती है। इनके गुरु का नाम पद्मसुन्दर
और प्रगुरु का नाम ज्ञानसागर था, जो समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर पूर्वप्रदर्शित मडाहडगच्छ के मुनिजनों की नामावली में उल्लिखित 17वें पट्टधर ज्ञानसागरसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं। मडाडगच्छ से सम्बद्ध अब तक उपलब्ध यह अन्तिम साहित्यिक साक्ष्य कहा जा सकता है।
अभिलेखीय साक्ष्यों से इस गच्छ की रत्नपुरीयशाखा और जाखडियाशाखा का अस्तित्त्व ज्ञात होता है। इनका विवरण निम्नानुसार है--
रत्नपुरीयशाखा जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट होता है, रत्नपुर नामक स्थान से यह अस्तित्त्व में आयी प्रतीत होती है। इस गच्छ से सम्बद्ध 14 प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं जो वि.सं. 1350 से वि.सं. 1557 तक के हैं। इन लेखों में धर्मघोषसूरि, सोमदेवसूरि, धनचन्द्रसूरि, धर्मचन्द्रसूरि, कमलचन्द्रसूरि आदि का उल्लेख मिलता है। इनका विवरण निम्नानुसार है : धर्मघोषसूरि के पट्टधर सोमदेवसूरि
___ इनके द्वरा वि.सं. 1350 में प्रतिष्ठापित पार्श्वनाथ की धातु की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है। मुनि विद्याविजयजी ने इसकी वाचना की है, जो निम्नानुसार है :
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