Book Title: Sramana 1994 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ शिवप्रसाद जगह वि.सं. 1350 लिख दिया गया। इस संभावना को स्वीकार कर लेने पर रत्नपुरीयशाखा की वि.सं. 1450 से वि.सं. 1557 की की एक अविच्छिन्न परम्परा ज्ञात हो जाती है : धर्मघोषसूरि वि.सं. 13( 4 )501 सोमदेवसूरि । वि.सं. 13( 4 )50] एक प्रतिमालेख धनचन्द्रसूरि । वि.सं. 1463] एक प्रतिमालेख धर्मचन्द्रसूरि [वि.सं. 1480-15101 छह प्रतिमालेख कमलचन्द्रसूरि । वि.सं. 1534-15453 चार प्रतिमालेख इस शाखा के प्रवर्तक कौन थे, यह शाखा कब अस्तित्त्व में आयी, इस बारे में प्रमाणों के अभाव में कुछ भी कह पाना कठिन है। अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर वि.सं. की 15वीं शताब्दी के मध्य से वि.सं. की 16वीं शताब्दी के मध्य तक इस शाखा का अस्तित्त्व सिद्ध होता जाखड़ियाशाखा मडाहडगच्छ की इस शाखा का उल्लेख करने वाले 5 प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। इनमें कमलचन्द्रसूरि, आनन्दमेरु तथा गुणचन्द्रसूरि का नाम मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है: कमलचन्द्रसूरि वि.सं. 1535 माघ वदि 6,मंगलवार अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह लेखांक 655 वि.सं. 1547 ज्येष्ठ सुदि 2, मंगलवार बीकानेरजैनलेखसंग्रह लेखांक 1112 वि.सं. 1557 वैशाख सुदि 11, गुरुवार प्रतिष्ठालेखसंग्रह लेखांक 891 वि.सं. 1560 वैशाख सुदि 3, बुधवार बीकानेरजैनलेखसंग्रह लेखांक 2751 वि.सं. 1575 फाल्गुन वदि 4, गुरुवार वही लेखांक 1630 वि.सं. 1575 के लेख में मडाडगच्छ की शाखा के रूप में नहीं अपितु स्वतन्त्र स्प से जाखड़ियागच्छ के रूप में इसका उल्लेख मिलता है। इस शाखा के भी प्रवर्तक कौन थे तथा यह कब और किस कारण से अस्तित्त्व में आयी, इस बारे में आज कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। •रिसर्च एसोसिएट, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाव, का.हि.वि.वि., वाराणसी-5. Jain Education International For Private & Personal Use Only 40 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78