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(बलराम) और कृष्ण प्रमुख थे।
"वसुदेवहिण्डी" में वर्णित कृष्णकथा के अवलोकन से कृष्ण की मानसिक ऊर्जा और शारीरिक ईर्या की अतिशयता बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। शारीरिक दृष्टि से भी कृष्ण का व्यक्तित्व बड़ा ही दिव्य और विराट है। वे अंगविद्या में उल्लिखित सभी शारीरिक लक्षणों से सम्पन्न थे। संघदासगणी ने कृष्ण और बलराम की शारीरिक संरचना का चित्रण करते हुए लिखा है-- दोनों भाइयों में बलराम का शरीर निर्जल (उज्ज्वल) मेघ और कृष्ण का शरीर सजल (श्यामल) मेघ की छवि को पराजित करने वाला था, उनकी आंखें सूर्य की किरणों के संस्पर्श से खिले हुए कमलों के समान थीं, उनके मुख पूर्णचन्द्र की भाँति मनोरम और कान्तिमान थे, उनके अंगों की विस्फूर्जित सन्धियाँ साँप के फन की तरह प्रतीत होती थीं, उनकी बाँहें धनुष की तरह लम्बी और रथ के जुए की भाँति सुकुमार थीं, श्रीवत्स के लांछन से आच्छादित उनके विशाल वक्षःस्थल शोभा के आगार थे, उनके शरीर का मध्य भाग इन्द्रायुध (वज) के समान था
और नाभिकोष दक्षिणावर्त। उनका कटिभाग सिंह के समान पतला और मजबूत था, उनके पैर हाथी की सँड के समान गोल और स्थिर थे, उनके घुटने सम्पुटाकार और माँसपेशी से आवृत ये, हरिण की जैसी जंघाओं (घुटने और टखने के बीच का भाग) की शिराएँ माँसलता के कारण, ढकी हुई गूढ शिराओं वाली थीं, उनके चरणतल सम, सुन्दर, मृदुल, सुप्रतिष्ठित और लाल-लाल नखों से विभूषित थे और कानों को सुख पहुँचाने वाली उनकी वाणी की गूंज सजल मेघ के स्वर के समान गम्भीर थी। इस प्रकार, कृष्ण और बलराम की शारीरिक सुषमा नितरां निरवद्य थी। वस्तुतः कृष्ण काम और धर्म के समन्वित स्प थे।
रसमधुर, कलारुचिर एवं सौन्दर्योद्दीप्त कृष्णचरित के प्रतिपादक वैष्णव-सम्प्रदाय के धार्मिक ग्रन्थों में "श्रीमद्भागवत" अग्रगण्य है। इसमें दार्शनिक विवेचन और धार्मिक चिन्तन, रूपकों और प्रतीकों के आधार पर किया गया है। परन्तु इसमें धर्म-दर्शन की बौद्धिक चेतना के उत्कर्ष के साथ कवित्व या काव्य का प्रौदिप्रकर्ष भी है। इसीप्रकार "क्सुदेवहिण्डी", "श्रीमदभागवत" की भाँति वर्णकथा होते हुए भी काव्यत्व की गरिमा से ओतप्रोत है। किन्तु इस महत्कथा के रचयिता आचार्य संघदासगणी भागवतकार के समान कृष्ण के चरित्र की उद्भावना की दृष्टि से नितान्त रूढ़िवादी नहीं हैं। संस्कृत-साहित्य के धार्मिक युग में भावों और चरित्रों या आचारगत संस्कारों में जहाँ अतिलौकिकता और सदिजन्य परतन्त्रता परिलक्षित होती है, वहाँ प्राकृत-साहित्य का धार्मिक युग अधिकांशतः लौकिक है और चारित्रिक उद्भावना के क्षेत्र में सर्वथा सढ़िमुक्त और सातिशय स्वतन्त्र भी है।
भागवतकार के नन्द श्रीकृष्ण की शक्ति से विस्मित हैं और यशोदा उनके अलांकिक चरित्र से चकित। किन्तु "वसुदेवहिण्डी" के कृष्ण इतने अधिक पुरुषार्थी और प्रतिभाशाली महामानव हैं कि वरवती जाने के लिए, समुद्र ने उन्हें रास्ता दिया था और कुबेर ने उनके लिए दरवती नगरी का निर्माण किया था, साथ ही रत्न की वर्षा भी की थी अर्थात् कृष्ण की मानवी शक्ति के समक्ष दैवी शक्ति नतमस्तक थी। "श्रीमद्भागवत" की तरह अतिरंजित अलौकिक पारमेश्वरी शक्ति की सर्वोपरिता के सिद्धान्त से "वसुदेवहिण्डी" के कृष्ण आक्रान्त नहीं हैं, इसलिए
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