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प्राकृत
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बृहत्कथा "वसुदेवहिण्डी" में वर्णित कृष्ण - डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव
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ब्राह्मण एवं श्रमण दोनों परम्पराओं में कृष्ण-कथा के चित्रण के प्रति समान आग्रह ब्राह्मण - परम्परा का सम्पूर्ण वैष्णव-साहित्य राम और कृष्ण की कथा का ही पर्याय- प्रतीक बन गया है, जो सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से अपना पार्यन्तिक महत्त्व रखता है । किन्तु श्रमण-परम्परा के राम और कृष्ण लोक संग्रही व्यक्तित्त्व से उद्दीप्त है। वैष्णवों की तरह श्रमणों की कृष्णभक्ति - परम्परा में श्री कृष्ण की केवल प्रेममयी मूर्ति को आधार बनाकर प्रेमतत्त्व को सविस्तार व्यंजना करने की अपेक्षा उनके लोकपक्ष को उद्भावित किया गया है। श्रमणों के कृष्ण प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं की भुजाओं से वलयित गोकुल के श्रीकृष्ण नहीं हैं, अपितु बड़े-बड़े भूपालों और सामन्तों के बीच रहकर लोकमर्यादा और विधि व्यवस्था की रक्षा करने वाले, साथ ही दुष्ट दलनकारी द्वारकावासी कृष्ण हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्द "लोक - संग्रह की भावना से विमुख, अपने रंग में मस्त रहने वाले जीव, वैष्णव भक्तों कृष्ण के रूप को लेकर काव्यरचना की है, वह हास - विलास की तरंगों से परि सौन्दर्य का समुद्र है । " किन्तु इसके विपरीत सामाजिक स्थिति के प्रति सतत सत्के
श्रमण आचार्यों ने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिए कृष्ण की श्रृंगारमयी लोकोत्तर छ आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से जनता को रसोन्मत्त करने की अपेक्षा, लौकिक स्थूल युक्त विषयवासनापूर्ण जीवों पर पड़ने वाले उन्मादकारी श्रृंगार के प्रतिकूल प्रभावों पर बराबर ध्यान रखा है। श्रमण परम्परा के कृष्ण की यौवनलीला या कामलीला मूलतः उनके पुरुषार्थ या कला-वैचक्षण्य को ही योतित करती है, जिसमें उनके मानव-जीवन की अनेकरूपता प्रतिबिम्बित है, जो एक अच्छे प्रबन्धकाव्य के लिए आवश्यक तत्त्व मानी जाती है। देश की अन्तर्वाहिनी मूल भावधारा के स्वरूप के ठीक-ठीक परिचय के लिए श्रमण परम्परा के कृष्णचरित का अनुशीलन इसलिए आवश्यक है कि वह अपना निजी मौलिक वैशिष्ट्य रखता
है ।
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"श्रीमद्भागवतपुराण" के अनुसार, कृष्ण स्वयं भगवान हैं-- "कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।" श्रमण- परम्परा में भी जैनाचार्यों द्वारा कृष्ण-विषयक धार्मिक लोक-मान्यताओं की उपेक्षा नहीं की गई है, अपितु उनका सम्मान करते हुए उन्हें विधिवत् अपनी परम्परा में यथास्थान सम्मिलित किया गया है और उन्हें "अर्द्धभरताधिपति" माना गया है। राम और लक्ष्मण तथा कृष्ण और बलदेव के प्रति जनता का पूज्यभाव रहा है और उन्हें अवतार पुरुष माना गया है। जैनों ने भी चौबीस तीर्थंकरों के साथ-साथ कृष्ण (नवम वासुदेव) को भी तिरसठ शलाका पुरुषों (कर्मभूमि की सभ्यता के आदियुग में अपने धर्मोपदेश तथा चारित्र द्वारा सत्-असत् मार्गों के प्रदर्शक महापुरुषों) में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों ("हरिवंशपुराण", "पाण्डवपुराण" (जैन महाभारत), "महापुराण", त्रिषष्टि- शलाकापुरुषचरित " आदि) में उनके जीवन चरित्र का सविस्तार वर्णन किया है।
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