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संघदासगणी कृष्ण की मानवी भावों के विकास को अधिक दूर तक विस्तृत और व्यापक दिखाने में सफल हुए हैं। ब्राह्मण-परम्परा स्वभावतः ब्रह्मवादी है, इसलिए उसमें मानवीय पुरुषार्थ की अपेक्षा ईश्वरीय शक्ति के चमत्कार या भाग्यवाद को अधिक प्रश्रय दिया गया है और श्रमण परम्परा स्वभावतः श्रम ( पुरुषार्थ)-वादी है, इसलिए वह मानवी शक्ति या पुरुषार्थ की अवधारणा के प्रति अधिक आस्थावान है। अतएव "वसुदेवहिण्डी" के कृष्ण परात्पर परब्रह्म न होकर मानवी जीवन और समाज की सर्वसाधारण मान्यताओं के अनुयायी हैं। फलतः जैन कृष्ण के प्रति हम अलौकिक आतंक से ग्रस्त होने की अपेक्षा उनके सामाजिक पुरुषार्थ की प्रेरणा से स्फूर्त हो उठते हैं।
"वसदेवहिण्डी" के कृष्ण में दिव्य और मानुष भाव का अदभुत समन्वय हुआ है। इसलिए वह अवतारी या दिव्यपुरुष न होते हुए भी असाधारण कर्मशक्ति से सम्पन्न उत्तम प्रकृति के पुरुष हैं। वह अलग से ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए आग्रहशील नहीं हैं, अपितु स्वतः उनमें ईश्वरीय गुण विकसित हैं। वैष्णवसाधना के क्षेत्र में कृष्ण के भाव और चरित्र दोनों ही अलौकिक हैं, इसलिए वैष्णव-भक्तिकाव्यों में कृष्ण महान नायक के रूप में ब्रहम हैं और गोपियाँ उनकी नायिकाओं के रूप में जीवात्माएँ हैं। किन्तु, श्रमण-परम्परा की महार्घ कथाकृति "वसुदेवहिण्डी" के कृष्ण केवल महान् नायक हैं और अपनी पत्नियों और पुत्रों एवं वृद्ध कुलकरों और मित्र-राजाओं के प्रति बराबर दाक्षिण्य भाव से काम लेते हैं। वह हिंसा एवं युद्ध को भी व्यर्थ समझते हैं। वह प्रतिरक्षात्मक आक्रमण तभी करते हैं, जब उसके लिए उन्हें विवश होना पड़ता है। पद्मावती, लक्षणा, सुसीमा, जाम्बवती और रुक्मिणी को पत्नी के स्प में अधिगत करते समय विवशतावश ही उन्हें युद्ध और हत्या का सहारा लेना पड़ा है। अपने पुत्र शाम्ब की धृष्टता और उद्दण्डता पर खीझ कर ही उन्होंने उसे निर्वासन दण्ड दिया। इतना ही नहीं उनका यक्षाधिष्ठित आयुधरत्न सुदर्शन चक्र भी शत्रु का ही संहार करता है, किन्तु अपने स्वामी के बन्धुओं का तो वह रक्षक है-- " आउहरयणाणं एस धम्मो -- "सत विवाडेयण्वो, बन्धू रक्खियव्वो सामिणो त्ति।" (पृ. 96 )
"वसुदेवहिण्डी" में कृष्णचरित के साथ न तो धार्मिक अलौकिक भावना का सामंजस्य हो सका है, न ही कृष्ण को साधारण नायक के रूप में स्वीकारा जा सका है। ऐसी स्थिति में, "वसुदेवहिण्डी" के कृष्ण पुरुषोत्तम युद्धवीर दक्षिण नायक हैं। इस आदर्श भावना के परिणामस्वरूप ही संघदासगणी ने कृष्ण के चरित्र में रूप-परिवर्तन आदि अलौकिक शक्ति की सम्भावना के साथ ही उनकी सामन्तवादी प्रवृत्ति को स्वीकृति दी और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में लोक-कल्याण की भावना का भी विनियोग किया। इस प्रकार "वसुटेपहिण्डी" का कृष्णकथा-प्रसंग प्रायः सभी प्रकार से औचित्य की सीमा में ही परिबद्ध है।
संघदासगणी हृदय से तीर्थंकरों या शलाकापुरुषों के भक्त होते हुए भी वैचारिक दृष्टि से समकालीन सामाजिक प्रवृत्ति और प्रगति से पूर्ण परिचित है। उनका कथाकार भक्ति भावना के आवेश में कभी नहीं आता। इसलिए उन्होंने कृष्ण की कथा को राधा के प्रेमाशु के अतिरेचन से सदामुक्त रखा है। वे यथार्थवादी कथाकार है। वे न तो भक्ति और ज्ञान के तर्कों में उलझे हैं, न
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