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प्राकृत की बृहत्कथा "वसुदेवहिण्डी" में वर्णित कृष्ण
श्रमण परम्परा के कृष्ण जैनों के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के कुल से सम्बद्ध हैं। नेमिनाथ महाभारत-काल में उत्पन्न हुए । आचार्य संघदास गणी (ईसा की तृतीय - चतुर्थ शती) द्वारा रचित प्राकृत के "बृहत्कथाकल्प", "वसुदेव- हिण्डी" के अनुसार, शौरिपुर के यादववंशी राजा अन्धकवृष्णि के ज्येष्ठ पुत्र हुए समुद्रविजय, जो दस दशाहों में प्रथम थे । राजा समुद्रविजय से नेमिनाथ, दृढ़नेमि प्रभृति पुत्र उत्पन्न हुए। वसुदेव अन्धक वृष्णि के सबसे छोटे पुत्र (दस दशाह में अन्तिम ) थे, जिनसे वासुदेव कृष्ण पैदा हुए। इस प्रकार नेमिनाथ और कृष्ण आपस में चचेरे भाई थे। जैसा कि प्रसिद्ध है, जरासन्ध के आतंक से त्रस्त होकर यादव शोरिपुर छोड़कर द्वारका में जा बसे थे। प्रसंगवश ज्ञातव्य है कि " वसुदेवहिण्डी" की कृष्णकथा के आधार पर ही देवेन्द्रसूरि (13वीं शती) ने 1163 गाथाओं में "कृष्णचरित" ग्रन्थ की रचना की। इसमें वसुदेव के जन्म और भ्रमण के वृत्तान्त की भी आवृत्ति है। 2
" वसुदेवहिण्डी" के तीन प्रमुख अधिकारों "पीठिका", "मुख" और "प्रतिमुख" में कृष्ण और उनके पूर्वजों - वंशजों की कथा परिगुम्फित है । "वसुदेव ने किस प्रकार परलोक में फल प्राप्त किया ? राजा श्रेणिक के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने उनसे कहा कि आप पहले "पीठिका" सुनें, क्योंकि यह वसुदेव के बहुत बड़े ( महान) इतिहास के प्रासाद की पीठ (आधारभूमि) हैं और इसी क्रम में लगातार भगवान् महावीर ने "मुख" और "प्रतिमुख" नामक नातिदीर्घ अधिकारों द्वारा कृष्णकथा से सम्बद्ध पक्षों को भी उद्भावित कर दिया।
उस समय के आनर्त, कुशर्थ (कुशावर्त्त), सुराष्ट्र और शुकराष्ट्र (शुक्रराष्ट्र ) -- ये चारों जनपद पश्चिम समुद्र से संचित थे। इन जनपदों की अलंकार-स्वरूपा द्वारवती की गणना सर्वश्रेष्ठ नगरी के रूप में होती थी । इस नगरी के बाहर, "नन्दन" वन से परिवृत रैवत नाम का पर्वत था, जो नन्दनवन से घिरे मेरु पर्वत के समान प्रतीत होता था । द्वारवती नगरी का वैभवपूर्ण वर्णन करते हुए संघदासगणी ने लिखा है कि लवणसमुद्र के अधिपति "सुस्थित" नामक देव इस नगरी के मार्गदर्शक थे। कुबेर की बुद्धि से नगरों का निर्माण हुआ था। चारदीवारी सोने की बनी हुई थी। यह नगरी नौ योजन क्षेत्र की चौड़ाई में फैली हुई थी। इसकी लम्बाई बारह योजन थी । वहाँ रत्नों की वर्षा होती थी, इसलिए वो दरिद्र नहीं था । रत्न की कान्ति से वहाँ निरन्तर प्रकाश फैला रहता था । चक्राकार भूमि में उपस्थित वहाँ के हजारों-हजार प्रासाद देव-भवन के समान सुशोभित थे। वहाँ के निवासी विनीत, अतिशय ज्ञानी, मधुरभाषी वा मधुर नामों वाले, दानशील, दयालु, सुन्दर वेश-भूषा बने और शीलवान् थे । ( "वसुदेवडी, मूल, भावनगर - संस्करण, पृ. 77 )
इस प्रकार की द्वारवती नगरी में दस धर्म की तरह दस दशार्ह (यादव) रहते थे। उनके नाम थे-- समुद्रविजय, अक्षेभ, स्तिमित, सागर, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव । इन दशाहों के सम्मत राजा उग्रसेन देवों के बीच इन्द्र की तरह विराजते थे । प्रथम दशार्ह राजा समुद्रविजय के ययोक्त नेमि, दृढ़नेमि आदि पुत्र थे । ' शेष दशाहों के पुत्र उद्धव आदि थे। अन्तिम दशार्ह वसुदेव के अकूर, सारणक, शुभदारक आदि पुत्र थे, जिनमें राम
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