Book Title: Sramana 1994 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 30
________________ प्राकृत की बृहत्कथा "वसुदेवहिण्डी" में वर्णित कृष्ण "क्सुदेवहिण्डी" के कृष्ण न तो अर्जुनमोहविनाशिनी गीता के वक्ता श्रीकृष्ण हैं न ही पाण्डवों के सखा तथा सलाहकार महाराज कृष्ण, जो डॉ. याकोबी के शब्दों में "अपने उददेश्य की सिद्धि के लिए चाहे जिस किसी उपाय का अवलम्बन कर लेते थे।" इसके अतिरिक्त, वह "गोपीवल्लभ" या "गोप-गोपीजनप्रिय" भी नहीं हैं, जिनकी बाललीला या गोपीक्रीड़ा के वर्णनों से "महाभारत" के साथ ही "विष्णु-पुराण", "श्रीमद्भागवत", "हरिवंश", पद्मपुराण", "ब्रह्मवैवर्तपुराण" एवं "ब्रम, वायु, अग्नि, लिंग और देवीभागवत पुराण मुखरित है। संघदासगणी के कृष्ण का व्यक्तित्व ही कुछ दूसरा है। कृष्ण के व्यक्तित्व की विभिन्नता के सम्बन्ध में डॉ. विण्टरनित्ज ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है "पाण्डवों के सखा और सलाहकार भगवद्गीता के सिद्धान्त के प्रचारक, बाल्यकाल में दैत्यों का वध करने वाले वीर, गोपियों के वल्लभ तथा भगवान् विष्णु के अवतार श्री कृष्ण एक ही व्यक्ति थे, इस बात पर विश्वास होना बहत ही कठित है। संघदासगणी ने भी श्रीकृष्ण के वैष्णव परम्परा में चित्रित व्यक्तित्व की विपुलता पर विश्वास न करके उन्हें एक स्वतन्त्र लोकविश्वसनीय व्यक्तित्व प्रदान किया है। कृष्ण की बाललीला का जहाँ तक प्रश्न है, संघदासगणी ने भी अपने ग्रन्थ के अन्त में उसका आभास-मात्र दिया है। उन्होंने केवल इतना ही लिखा है कि कृष्ण के विनाश के लिए कंस ने कृष्णायक्ष के अतिरिक्त, गधे, घोड़े और बैल को भेजा। वे गोकुलवासियों को पीड़ा पहुँचाने लगे लेकिन, कृष्ण ने उनका विनाश कर दिया। हालाकि कृष्ण ने ऐसा साहस और शौर्य तब दिखलाया है, जब वह प्रायः युवा हो गये हैं। इससे स्पष्ट है कि महाभारत या विभिन्न पुराणों या फिर जैनवाङ्मय के ग्रन्थों में वर्णित श्रीकृष्ण-चरित्र में तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से न्यूनाधिक अन्तर कहीं-कहीं भले हो, परन्तु कथा का मुख्य विषय सर्वत्र एक ही है। संघदासगणी के कृष्णचरित्र पर "महाभारत" के कृष्णचरित्र का प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत में कृष्ण का राजनीतिज्ञ के रूप में बहुत ही सम्मानपूर्वक वर्णन किया गया है। वास्तविक स्थिति यह थी कि कृष्ण के वंश में, यादवों में भिन्न-भिन्न कुल थे, जिनमें अन्धकवृष्णि प्रधान थे। अन्धकवृष्णि कुल में गणतान्त्रिक शासन-प्रणाली प्रचलित थी, जिसके प्रधान पद पर राजा उग्रसेन प्रतिष्ठित थे। इस गणसंघ के सदस्य समय-समय पर आप में लड़ा करते थे और उनके बीच सौहार्द स्थापित कर राज्य चलाना निश्चय ही गुरुतर कार्य था। कृष्ण ने अपनी विषम राजनीतिक स्थिति का वर्णन करते हुए नारद से कहा है-- "नाम तो मेरा ईश्वर है, किन्तु अपने जाति भाइयों की नौकरी करता हूँ। भोग तो आधा ही मिलता है, परन्तु गालियाँ खूब मिलती हैं। जैसे-- आग जलाने की इच्छा से लोग अरणि के काष्ठ का मन्थन करते हैं, वैसे ही ये सम्बन्धी गालियों से मेरा हृदय मथा करते हैं। मेरे जेठे भाई लराम अपने बल के अभिमान में चूर रहते है। ...मेरे ज्येष्ठ पुत्र प्रद्युम्न को स्प के मद की बहोशी रहती है। फलतः मैं एकदम असहाय हूँ। मेरे भक्त आहुक और अक्रूर सदा लड़ा करते हैं। इनके मारे मेरी नाकों में दम है। मेरी दशा जुआड़ी की उस माता के समान है, "जो चाहती है कि मेरे दोनों जुआड़ी पुत्रों में एक तो जीते, परन्तु दूसरा हारे भी नहीं।"12 कहने का तात्पर्य है कि कृष्ण निरन्तर अपने जातियों के परस्पर कलह को सुलझाने में ही Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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