Book Title: Sramana 1994 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ रामचन्द्रसूरि और उनका साहित्य - डॉ. कृष्ठापाल त्रिपाठी महाकवि रामचन्द्रसूरि जैन संस्कृत वाङ्मय .के बहुप्रशंसित साहित्यकार है। साहित्य, व्याकरण और न्याय सदृश गम्भीर विषयों से सम्बन्धित ग्रन्थों का प्रणयन कर उन्होंने सुरभारती का जो सुन्दर शृंगार किया, वह सर्वतोभावेन श्लाघ्य है। यद्यपि उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं पर साधिकार लेखनी चलायी फिर भी एक रूपककार एवं नाट्याचार्य के रूप में ही उनकी विशेष ख्याति है। उनकी रचनाओं में उत्कृष्ट कोटि की साहित्यिकता के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध हैं परन्तु उनमें कवि के जीवन-वृत्त एवं रचनाओं के विषय में विस्तृत सूचना प्रदान करने वाली सामग्री का अभाव है। फिर भी अन्तः एवं बाहय साक्ष्यों से जो जानकारी प्राप्त होती है, उसी के आधार पर रामचन्द्रसूरि के जीवन एवं रचनाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत जीवन-वृत्त (क) स्थान -- रामचन्द्रसूरि के जन्मस्थान के विषय में कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। स्वयं कवि और अन्य साहित्यकारों ने भी इस विषय में कोई उल्लेख नहीं किया। आधुनिक विद्वानों का अनुमान है कि रामचन्द्रसूरि का जन्म गुजरात में अणहिल्लपुर पाटन के समीप हुआ था।' यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाये तो यह अनुमान सत्य के अत्यन्त सन्निकट प्रतीत होता है। रामचन्द्र के गुरु आचार्य हेमचन्द्र भी गुजरात में ही जन्मे और दीर्घकाल तक उसी प्रदेश में बिराजमान रहे। सम्भवतः रामचन्द्र का जन्म भी गुजरात में ही हुआ था, तभी तो उन्हें आसानी से हेमचन्द्राचार्य का सन्निध्य प्राप्त हुआ। दूसरी ओर गुजरात के चौलुक्य नरेशों के साथ भी उनके घनिष्ठ सम्बन्ध थे। अतः रामचन्द्र की कर्मभूमि भी गुजरात ही थी। (ख) शिक्षा-दीक्षा -- अन्तः एवं बाहय दोनों साक्ष्यों से स्पष्ट है कि रामचन्द्रसूरि गुजरात के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीमदाचार्य हेमचन्द्रसूरि के शिष्य थे। हेमचन्द्र अपने युग के महान् धर्माचार्य एवं साहित्यकार थे। अतः वे ही रामचन्द्र के दीक्षा-गुरु के साथ-साथ शिक्षा-गुरु भी थे। पुरातनप्रबन्धसंग्रह से ज्ञात होता है कि हेमचन्द्रसूरि ने रामचन्द्र को सुशिष्य समझ कर उन्हें विशेष विद्या एवं मान दिया था। रामचन्द्र अत्यन्त जिज्ञासु, गुणग्राही एवं असामान्य प्रतिभासम्पन्न शिष्य थे। उन्होंने शीघ्र ही शब्द (व्याकरण), प्रमाण (न्याय) और काव्य -- इन तीन महाविद्याओं में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। इसीलिए उन्होंने बड़े गर्व के साथ स्वयं को 'विद्याज्यीचणम्' और 'विद्यवेदिनः' कहा है। वस्तुतः हैमबृहद्वृत्तिन्यास, द्रव्यालंकार, नाट्यदर्पण और विविधविध स्पकों-स्तोत्रों का प्रणयन कर उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का जो परिचय दिया है, वह उनके त्रैविद्यविज्ञत्व का प्रबल साक्ष्य 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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