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रामचन्द्रसूरि और उनका साहित्य
घोर युद्ध के पश्चात् लक्ष्मण द्वारा रावण का वध और अन्त में राम-सीता का सानन्द मिलन होता है।
इस नाटक में माया-पात्रों की कल्पना एवं उनके निर्वाह में कवि की विलक्षण प्रतिभा का परिज्ञान होता है। राम-विलाप पर विक्रमोर्वशीय का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वस्तु, नेता, रस आदि नाटकीय तत्वों की दृष्टि से यह नाटक पूर्णतः समृद्ध है। 5. सत्यहरिश्चन्द्र -- इसकी प्रस्तावना में "आदिस्पक" शब्द को देखकर डॉ. चौधरी ने इसे कवि की आदि कति मान लिया है.44 जबकि आदिस्पक का अर्थ है-- रूपक का आदि प्रकार अर्थात् नाटक। इसीलिए नलविलास को "आद्यं रूपकं" और कौमुदीमित्राणन्द प्रकरण को "द्वितीयं रूपकं" कहा गया है। वस्तुतः सत्यहरिश्चन्द्र परवर्ती रचना है।
सत्यहरिश्चन्द्र छः अंकों का नाटक है। इसकी कथावस्तु सत्यवादी हरिश्चन्द्र के पौराणिक आख्यान पर आधारित है। एक दिन इन्द्र ने हरिश्चन्द्र की प्रशंसा की परन्तु वह कुलपति को अच्छी नहीं लगी। उसने राजा के सत्व की परीक्षा लेने के लिए कूट-विधान तैयार किया। राजा ने एक वराह को मारने के लिए बाण चलाया, जिससे कुलपति-पुत्री वंचना की पालिता गर्भिणी हरिणी भी मर गयी। कुलपति ने राजा को शुद्धि के लिए सर्वस्वदान करने को कहा। द्वितीय अंक में वह साकेत पहुँचा और एक मास के अन्दर मुद्रायें देने का आदेश दिया। तृतीय अंक में पुत्र और पत्नी को बेचने के बाद राजा चाण्डाल के यहाँ नौकरी करते हैं। चतुर्थ-पंचम अंक में कुलपति के षडयन्त्रों द्वारा राजा के कष्टों का वर्णन है। षष्ठ अंक में मृत पुत्र के शव को देखने पर भी राजा अपनी सत्यनिष्ठा बनाये रखते हैं। अन्त में उनकी सफलता के लिए देवगण उन्हें बधाई देते हैं।
इस नाटक में चरित्र-निर्माण एवं लोकानुरंजन के सभी तथ्य विद्यमान हैं। रस, भाव, भाषा, अभिनय आदि की दृष्टि से यह नाटक पूर्णतः सफल है। 6. निर्भयभीम व्यायोग -- यह व्यायोग कोटि का एकांकी रूपक है। इसमें महाभारतीय बकासुर-वध की कथा मनोरम शैली में वर्णित है। इस पर भास के मध्यमव्यायोग और हर्ष के नागानन्द का प्रभाव स्पष्ट है। 7. मलिकामकरन्द -- इसकी प्रस्तावना में इसे नाटक कहा गया है, जबकि शास्त्रीय दृष्टि से यह करण है। इसमें छः अंक है। प्रकरण की प्रकृति के अनुसार इसमें मल्लिका और मकरन्दी प्रणय-कथा लोकपरम्परा पर आधारित है। प्रारम्भ में नायक मरणोद्यता नायिका की रक्षा करता है। बाद में मल्लिका का पालक बतलाता है कि यह विद्याधर की पुत्री है और सोलह वर्ष की आयु में वह इसे पुनः उठा ले जायेगा। मकरन्द उसकी रक्षा के लिए अनेक कष्ट उठाता है। अन्त में नायक-नायिका का सानन्द मिलन होता है। रस-निष्पत्ति, गुण, अलंकार रीति, छन्द आदि की दृष्टि से यह प्रकरण उत्तम है। इसकी भाषा सरल एवं प्रवाहयुक्त है। इस पर भवभूति-विरचित मालतीमाधव का पर्याप्त प्रभाव है।
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