Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 7
________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह संख्या पुरुषों से अधिक है। संख्या की यह अधिकता संघ में उनकी क्रियाशीलता को दर्शाता है एवं तत्परिणामस्वरूप उनके योगदान को रेखांकित करती है। जैन संघ में उल्लिखित यह संख्या कवि की कल्पना-प्रसूत नहीं है अपितु सुस्पष्ट प्रमाणों पर आधारित है। पुरातात्त्विक प्रमाण हमें बहुलता से नहीं प्राप्त होते, परन्तु जो भी प्राप्त हैं उनसे उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। उदाहरणस्वरूप हम मथुरा के लेखों का अध्ययन करें। मथुरा के लेख कुषाण सम्राट कनिष्क एवं उसके उत्तराधिकारियों के समय के हैं। कनिष्क एक सुप्रसिद्ध बौद्ध नरेश के रूप में मान्य है। निश्चय ही जैन संघ के लिए यह बहुत अनुकूल परिस्थिति नहीं रही होगी। इस स्थिति में भी मथुरा में जैन मन्दिरों एवं चैत्यों के निर्माण स्त्रियों की बहुसंख्या में सहभागिता हमें आश्चर्य में डाल देती है। स्त्रिया यहाँ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु बहुमूल्य दान करती हुई प्रदर्शित हैं। इनमें धनी एवं उच्च वर्ग की स्त्रियों के साथ ही लोहकार23, रंगरेज24, गंधिक25, स्वर्णकार26, नर्तक7 आदि की पुत्रियों, पत्नियों एवं पुत्र-वधुओं के दान का भी उल्लेख है। गणिकाओं28 का भी नामोल्लेख है जो अपने अन्य सम्बन्धियों के साथ एक मन्दिर के लिए आयागपट्ट एवं तालाब के निर्माण हेतु दान देते हुए प्रदर्शित है। समाज के प्रत्येक वर्ग के स्त्रियों की यह सहभागिता जैन परम्परा के विकास में उनके स्वतः योगदान को सूचित करती है। बिना किसी दबाव एवं राजकीय आकर्षण के स्त्रियों का यह अवदान जैन धर्म के प्रसार में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करता है। समाज के उच्च एवं निम्न वर्ग के साथ समान सम्पर्क ने जैनधर्म को अक्षुण्ण बनाये रखा एवं उसको निरन्तर गति प्रदान की। जैनधर्म परम्परा के विकास में स्त्रियों के योगदान सम्बन्धी ये कुछ उपर्युक्त उदाहरण प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत हैं। कालान्तर में जैनधर्म में भी पुरुषज्येष्ठधर्म को स्वीकार कर लिया गया -- फलस्वरूप समाज में नारी का स्थान गौण होता चला गया और उनकी भूमिका महत्त्वहीन। 21वीं शताब्दी के आने वाले समय में हमें समाज में नारी की सार्थक भूमिका की तलाश करनी है। इसमें प्राचीन साहित्य एवं अभिलेख हमारे लिए मार्ग दर्शक सिद्ध हो सकते हैं। हमें उनकी प्रतिष्ठा एवं सम्मान के लिए नया क्षेत्र सृजित नहीं करना है, अपितु पहले से ही प्राप्त उनकी प्रशंसनीय भूमिका को पुनप्रतिष्ठित करना है। प्रवक्ता, प्रा. इतिहास विभाग, श्री बजरंग महाविद्यालय, दादर आश्रम सिकन्दरपुर, बलिया, (उ.प्र.) Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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