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डॉ. अरुण प्रताप सिंह
का भी अध्ययन करे और उनकी ऐसी विशेषताएँ अपना ले जो उसे पसन्द आ जाएँ।"
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि अशोक का अभिलेख और उसमें वर्णित उसका धम्म अनेकान्तवादी अवधारणा से पूरी तरह प्रभावित था। मूल, वचगुति, समवाय एवं बहुसुत के आदर्शों के द्वारा उसने धार्मिक सहिष्णुता एवं सामाजिक सद्भाव की जो परिकल्पना की है, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जिनते आज से 2300 वर्ष पूर्व थे। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि अशोक के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता आज और भी अधिक है। भारत की वर्तमान दशा अत्यन्त शोचनीय और दयनीय है। आधुनिक युग में भारत में जो विभिन्न मत प्रचलित हैं और उनमें जो पारस्परिक कटुता एवं वैमनस्य है उसका समाधान अशोक के रास्ते से ही सम्भव है । जिस अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का परिचय अशोक ने अभिलेखों में दिया है, वह प्रशंसनीय एवं पालनीय है।" तीसरी सदी ई. पू. का यह राजर्षि हमें जो बात सिखाना चाहता है, वह यह है कि हमें सब धर्मों में सार देखना और इस पर आचरण करना चाहिए तथा इन धर्मों के कर्मकाण्डों और सिद्धान्तों की निष्पक्ष होकर तुलना करनी चाहिए। उसका यह सन्देश कितना उदात्त और विश्वासोत्पादक है और आज की दुनिया के लिए भी यह कितना अपरिहार्य है। जरा सोचिए कि अगर हम इस परम प्रज्ञापन के शब्दों का श्रद्धा के साथ अनुसरण करें और न केवल हिन्दूधर्म और इस्लाम का, बल्कि ईसाई धर्म, जरथुष्ट्री (पारसी) धर्म और यहाँ तक कि मन्त्र - तन्त्र का भी अध्ययन करें तो संसार आत्मिक और बौद्धिक दृष्टि से कितना समृद्ध और उन्नत हो जायेगा।"15
प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास विभाग, एस. बी. डिग्री कालेज, सिकन्दरपुर, बलियाँ (उ. प्र. )
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