Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ अशोक के अभिलेखों में अनेकान्तवादी चिन्तन : एक समीक्षा अशोक के काल (तृतीय शताब्दी ईसापूर्व) में सम्भवतः विभिन्न मतवाद प्रचलित थे। भग अशोक के ही समकालीन सम्पादित होने वाले जैनग्रन्थ सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में विभिन्न मतों को विस्तार से चर्चा है। वहाँ भी अशोक के अभिलेख की ही शैली में उपर्युक्त बात कही गई है कि जो अपने मत की प्रशंसा एवं दूसरे मत की निन्दा करते हैं, वे एकान्तवादी हैं, सत्य से भटके हुए हैं। सूत्रकृतांग एवं अशोक के अभिलेख -- दोनों के भाव एक हैं। स्पष्ट है कि सम्राट के रूप में अशोक का प्रमुख कर्त्तव्य इन विभिन्न मत-मतान्तरों के मध्य सौहार्द को स्थापित करना था। इसी कारण वह धर्म के यथार्थ सार की वृद्धि के लिए प्रयत्नशील था सभी धर्मों (मतों) में अच्छी बातें हो सकती हैं और होती हैं। हमें अनेकान्तवादी दृष्टि से उसको विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। यह कार्य असम्भव नहीं है। इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए अशोक "समवाय" शब्द का प्रयोग करता है। समवाय (सं + अव + इ) का शाब्दिक अर्थ है सम्यक् प्रकार से चलना। इसके अर्थ का विस्तार देते हुए अशोक बताता है कि सभी को एक-दूसरे के धर्मों को सुनना और सुनाना चाहिए (अनमंत्रस धम सुणारु च सुंसुसेर च)।12 इसमें सन्देह नहीं कि एक-दूसरे के धर्मों को सुनने से प्रत्येक धर्म की अच्छी बातों का ज्ञान होगा फलस्वरूप एकान्तिक आग्रह का भाव मिट जायेगा। आग्रह का भाव न रहने पर लोग दूसरे मत के सत्य को भी सहज स्वीकार करेंगे। इस अनेकान्तवादी दृष्टि के विकसित होने पर समाज में स्वयं सौहार्द की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होगा। __ इस अनाग्रही दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए आवश्यक है कि लोग बहुश्रुत बनें।13 बहुश्रुत से तात्पर्य है सभी धर्मों के शास्त्रों की सम्यक् जानकारी। ___ एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी मतों को सुनने एवं उनके ग्रन्थों का अध्ययन करने से निश्चय ही मनुष्य के मिथ्याज्ञान का परिहार होगा और वह सभी मतों के सत्य का साक्षात्कार करने में समर्थ होगा। इस अनाग्रही/अनेकान्तवादी दृष्टि के विकसित होने पर उसके परिणाम भी सुखद एवं सुन्दर होंगे। अशोक इसके परिणाम के बारे में बताता है कि इससे स्वयं के धर्म की वृद्धि होगी और धर्म का दीपन होगा। 4 जैसा कि स्पष्ट है कि अशोक मात्र कोरा उपदेशक नहीं था। उसके अभिलेखों में प्रयुक्त वाक्यों एवं शब्दों के अंशों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वह स्वयं भी बहुश्रुत था। उसने बौद्धधर्म के समान ही जैनधर्म एवं अन्य परम्पराओं का गहन अध्ययन किया था और सब धर्मों के निचोड़ या सार के रूप में अपने धम्म की प्रस्थापना की थी। प्रो. डी. आर. भण्डारकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "अशोक" में इस सम्भावना पर संक्षेप में विचार किया है कि अशोक जैनधर्म की मूल बातों से कहाँ तक प्रभावित था। इसके अभिलेखों में प्रयुक्त आसिनव, परिस्सव, चंडिये, निठुलिए, कोधे, माने, इस्सा, अनालम्भो जीवानं अविहिंसा भूतानां, जीव, पाण, भूत, जात आदि पारिभाषिक शब्द इस तथ्य के प्रमाण हैं कि अशोक ने जैनधर्म की उत्तम बातों को बिना किसी संकोच के ग्रहण किया।" इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि अशोक बौद्धधर्म का उत्साही अनुयायी है, पर उसमें अभी इतनी उदारता थी कि जैन आदि अन्य धर्मों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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