Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ हिन्दू एवं जैनपरम्परा में समाधिमरण : एक समीक्षा अभिलेख में हमें समाधिमरण का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। यद्यपि तमिलनाड़ में कुछ गुफाओं में समाधिमरण प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के ब्राहमी लिपि में मात्र नाम निर्देश है। हिन्दू परम्परा में भी धार्मिक देहत्याग और आत्महत्या सम्बन्धी कथानक बाद के हैं। ईस्वी पर्व के किसी भी हिन्दू साहित्य में हमें ऐसी परम्परा के दर्शन नहीं होते। गुप्तकालीन एवं उसके सद्यः पूर्व के साहित्य में धार्मिक विधि से देहत्याग या आत्महत्या के उल्लेख मिलते हैं यह काल ही धार्मिक कर्मकाण्डों का था जब उससे सम्बन्धित नियमों-उपनियमों को अत्यन्त विस्तृत रूप प्रदान किया गया। मेरी समझ से तो यह धार्मिक विकृति का काल था। धर्म के मूल तत्त्वों की अवहेलना कर उनके स्थान पर स्थूल पक्षों को महत्त्व प्रदान किया गया। यह दर्भाग्य था कि उपनिषदों एवं गीता एवं उपनिषदों के तत्त्वज्ञान सम्बन्धी उन वाक्यों को जिनमें ज्ञानाग्नि द्वारा सर्व कर्मों के नाश की बात कही गई थी, कालान्तर के हिन्दू धर्माचार्यों ने अत्यन्त ही स्थूल रूप से ग्रहण किया और कर्मों के नाश की नहीं अपितु शरीर के ही नाश की बात सोची। जैनधर्म के सम्बन्ध में यही बात सत्य है। जैनधर्म के आचार्यों ने संवर एवं निर्जरा के द्वारा कर्मों के नाश एवं उनके आगमन के द्वार को निरुद्ध करने की अवधारणा विकसित किया। यद्यपि यह नहीं भूलना चाहिये कि धार्मिक उन्माद से शरीर का नाश अन्ततः आत्मा के विकास के मार्ग को अवरुद्ध करता है। शरीर ही वह माध्यम है जिससे आत्मा का विकास सम्भव है। उस माध्यम को ही नष्ट कर मोक्ष प्राप्ति की कल्पना करना मृगमरीचिका के समान थी। हिन्दू धर्माचार्यों ने धार्मिक देहत्याग को स्वर्ग या मोक्ष का हेतु बताया है। परन्तु यह सिद्धान्त प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित मोक्ष की अवधारणा से मेल नहीं खाता। प्रायः सभी वैदिक ग्रन्थ मोक्ष हेतु अज्ञान के नाश की चर्चा करते हैं। ज्ञान रूपी अग्नि द्वारा कर्ममलों को जला देने के उपरान्त ही मोक्ष की सम्भावना को स्वीकार किया जा सकता है। इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में जो वर्णन है, उससे भी यही तथ्य स्पष्ट होता है। "सम्यग-दर्शनचारित्राणिमोक्षमार्ग" का उद्घोष करने वाली जैनपरम्परा में मोक्ष प्राप्ति करने का साधन तो शरीर ही है। शरीर के माध्यम से ज्ञान, दर्शन, चारित्र तीनों का सम्यक्-रूपेण पालन करने वाला पथिक ही मोक्ष-पथ का अनुगामी हो सकता है, अन्य कोई नहीं। समाधिमरण का तात्पर्य देहोत्सर्ग नहीं है अपितु देह के प्रति ममत्व का त्याग है। जब तक पूर्ण निर्ममत्व नहीं आता मुक्ति असम्भव है। मात्र समाधिमरण का व्रत ग्रहण कर लेने से मुक्ति नहीं होती है। - प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास विभाग, एस. बी. डिग्री कालेज, सिकन्दरपुर, बलियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 17

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