Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम किन्तु आचारांगकार कर्म और अकर्म तथा पापकर्म और पुण्य की चर्चा अवश्य करता है। आचारांग में अकम्मस्स', निक्कमदंसी, शब्दों का प्रयोग यह बताता है कि आचारांगकार के समक्ष यह अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी कि सभी कर्म बन्धक नहीं होते हैं। पुण्य (शभ। और पाप (अशुभ) कर्म के साथ-साथ अकर्म की यह अवधारणा हमें गीता में भी उपलब्ध होती है। चाहे आचारांग में कर्म प्रकृतियों की चर्चा न हो परन्तु कर्म-शरीर की चर्चा है. -- धुणे . कम्मसरीरग11 कहकर दो तथ्यों की ओर संकेत किया गया है -- एक तो यह कि कर्म से या कर्मवर्गणा के पुद्गलों से शरीर की रचना होती है। उस शरीर को तप आदि के माध्यम से धुनना सम्भव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग में कर्म की पौद्गलिकता, कर्मपुद्गलों का आसव और उसका आत्मा के लिए बन्धन-कारक होना -- ये अवधारणायें स्पष्ट रूप से अस्तित्व में आ गयी थीं। इसके साथ ही कर्म से विमुक्ति के लिए संवर और निर्जरा की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं। दूसरे शब्दों में आचारांग में कर्म, कर्मबन्ध, कर्मआसव, कर्म-निर्जरा ये शब्द प्राप्त होते हैं। कर्मबन्ध के कारण के रूप में आचारांग में मोहहिंसा12 और राग-द्वेष की चर्चा भी उपलब्ध होती है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मोह के कारण ही प्राणी गर्भ और मरण को प्राप्त होता है। जो कर्म मोह और राग-द्वेष से निःसृत नहीं है वे कर्म भी यदि हिंसा या परपीड़ा के साथ जुड़े हुए हैं तो भी उनसे बन्ध होता ही है।14 आचारांग में कहा गया है कि गुण समितिवान अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर भी कुछ प्राणी परिताप प्राप्त करते हैं। मुनि के इस प्रकार के कर्म द्वारा उसे इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध होता है। इसका तात्पर्य यह है कि आचारांगकार की दृष्टि में राग-द्वेष और प्रमाद की अनुपस्थिति में भी यदि हिंसा की घटना घटित होती है तो उससे कर्म बन्ध तो होता ही है। इसका तात्पर्य यह है कि आचारांग में ईर्यापथिक कर्म की जो अवधारणा विकसित हुई है उसके भी मूलबीज उपस्थित हैं। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बन्धन के मिथ्यात्व आदि पाँच कारणों की चर्चा, अष्टकर्म प्रकृतियों की चर्चा, कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा आचारांग के काल तक अनुपस्थित रही होगी। आचारांग में कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह उपलब्ध होता है कि एक ओर आचारांगकार किसी के निमित्त से होने वाली हिंसा की घटना से ही अप्रमत्त मुनि को इस जन्म में वेदनीय कर्म का बन्ध मानता है किन्तु वह दूसरी ओर इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करता है कि बाह्य घटनाओं का अधिक मूल्य नहीं है। वह स्पष्ट रूप से यह कहता है कि 'जो आस्रव हैं वे ही परिश्रव हैं, अर्थात् कर्म निर्जरा के रूप में परिणत हो जाते हैं जो परिश्रव अर्थात् के कर्मनिर्जरा के हेतु हैं वही आसव के हेतु बन जाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि कौन सा कर्म आसव के रूप में और कौन सा कर्म परिश्रव के रूप में रूपान्तरित होगा इसका आधार कर्म का बाह्य पक्ष न होकर कर्ता की मनोवृत्ति ही होगी। Jain Education International For Private & Ional Use Only www.jainelibrary.org

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