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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का सांस्कृतिक अध्ययन
लाढ, सुराष्ट्र, दशार्ण, शूरसेन, कलिंग, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि का उल्लेख मिलता है। प्रमुख नगरों में उज्जैनी, द्वारिका, भरुकच्छ, शूर्पारक, प्रतिष्ठान, मथुरा, भिल्लमाल, प्रभास आदि का वर्णन प्राप्त होता है। नदियों में गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही आदि का तथा पर्वतों में अष्टापद, अर्बुद, रैवतक, उज्जयन्त, मेरु आदि का उल्लेख हुआ है।
तृतीय अध्याय आर्थिक जीवन से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत कृषि, उससे सम्बन्धित विभिन्न कृषि उपकरण यथा -- हल, कुदाल, कोल्हू, हँसिया आदि सिंचाई के अन्तर्गत सेतु और केतु, कृषि उत्पादन यथा -- ब्रीहि, शालि, यव, मसूर, माँस, प्रियंगु, अन्नभण्डारण आदि का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही साथ पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग धन्धे यथा -- सूती वस्त्र उद्योग, काष्ठ उद्योग, प्रसाधन उद्योग, वास्तु उद्योग, मद्य उद्योग, कुटीर उद्योग जैसे -- हाथी दाँत से बनी वस्तुएँ आदि का वर्णन किया गया है।
शिल्पकारों की भाँति उस समय व्यापारियों की भी श्रेणियाँ होती थीं। ये व्यापारी जल और स्थल मार्ग से अपने माल-आसबाब के साथ एक देश से दूसरे देश में आते जाते थे। बृहत्कल्पभाष्य में सार्थवाहों के बारे में विपुल सामग्री प्राप्त होती है। उसमें पाँच प्रकार के सार्थों का उल्लेख है -- 1. भंडीसार्थ -- माल ढोने वाले सार्थ, 2. वहिलग -- उंट, खच्चर और बैलों द्वारा माल ढोने वाले, 3. भारवह -- अपना माल स्वयं ढोने वाले, 4. ओदरिया -- यह उन मजदूरों का सार्थ होता था, जो जीविका के लिए एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते थे, 5. कार्पटिक -- इसमें ज्यादातर संख्या श्रमण-श्रमणियों की होती थी। उन दिनों व्यापारिक मार्ग सुरक्षित नहीं थे। रास्ते में चोर-डाकुओं और जंगली जानवरों का भय रहता था, इसलिए व्यापारी लोग एक साथ मिलकर किसी सार्थवाह को अपना नेता बनाकर, परदेश यात्रा के लिए निकलते थे। अध्याय के अन्त में विभिन्न प्रकार के स्वर्ण, ताम्र, रजत या रुवग, केडविक, सिक्कों का वर्णन किया गया है।
चतुर्थ अध्याय सामाजिक जीवन से सम्बन्धित है। इसमें वर्ण के अन्तर्गत ब्राह्मण (बांभण), क्षत्रिय (खत्तिय), वैश्य ( वइस्स) और शूद्र (सुद्द) का, अळूत जातियों में चाण्डाल, भील और डोंब का और छः अनार्य जातियों में अम्बष्ठ, कुलिन्द, विदेह, वेदग, हरित और चुंचण का उल्लेख हुआ है। विवाह के अन्तर्गत स्वयंवर और गन्र्धव विवाह का वर्णन है। इसी अध्याय में परिवार, स्त्रियों की स्थिति, दास-प्रथा आदि का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही साथ खान-पान, वस्त्र एवं अलंकार, क्रीड़ा-विनोद और रीति-रिवाज का वर्णन किया गया है। विभिन्न प्रकार के रोग यथा-- वल्गुली, विषकुंभ, दृष्टिहीन, कुष्ठरोग आदि एवं नके उपचार के सम्बन्ध में आठ प्रकार के वैद्यों के नाम बतलाये गये हैं -- 1. संविग्न, 2. असंविग्न, 3. लिंगी, 4. श्रावक, 5. संज्ञी, 6. अनभिगृहीत असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि), 7. अभिगृहीत असंज्ञी, 8. परतीर्थिक।
पंचम अध्याय धार्मिक जीवन से सम्बन्धित है जिसके अन्तर्गत मूलरूप से जैनश्रमण-- श्रमणियों के आचार, अतिचार, प्रायश्चित्त और अपवादों का वर्णन किया गया है। चार महीने Jain Education International For Private & PA3 al Use Only
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