Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 44
________________ शोध-प्रबन्ध का सार-संक्षेप बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का सांस्कृतिक अध्ययन ___ - डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह बृहत्कल्पसूत्र आगमसाहित्य के अन्तर्गत एक अंग बाह्य ग्रन्थ है। यह एक छेदसूत्र है। छेदसूत्रों के वरिष्ठता क्रम में इसका दूसरा स्थान है। यह आचार्य भद्रबाहु प्रथम की रचना है। इस ग्रन्थ पर छठी शताब्दी में संघदासगणि ने भाष्य लिखा है। इसमें छ: हजार चार सौ नब्बें गाथाएँ हैं, जो प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। इस पर आठवीं शताब्दी ईसवी के आस-पास मलयगिरि ने संस्कृत में वृत्ति लिखी, परन्तु यह पूर्ण नहीं हो सकी। इस अपूर्ण वृत्ति को क्षेमकीर्ति ने तेरहवीं सदी ईस्वी में पूरा किया। बृहत्कल्पसूत्र जिस रूप में सम्प्रति उपलब्ध है, उसमें जैन श्रमणों के आचार-विचार, व्रत-नियम, तप-त्याग, गमनागमन, रोग-चिकित्सा, अतिचार, दोष, प्रायश्चित्त आदि विषयों का वर्णन है। इसके साथ ही साथ इसमें प्रसंगवश तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी उल्लेख किया गया है। ग्रन्थ की सांस्कृतिक सामग्री पर अब तक कई विद्वानों ने शोध कार्य किया है, जिनमें जगदीश चन्द्र जैन द्वारा लिखित "जैनागम साहित्य में भारतीय समाज" सबसे प्रमुख है। लेकिन इस ग्रन्थ का क्षेत्र व्यापक होने से इसमें बृहत्कल्पसूत्र के सम्पूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का विवेचन नहीं किया जा सका है। इसी प्रकार अरुण प्रताप सिंह कृत "जैन और बौद्ध संघ में भिक्षुणी संघ का उदभव एवं विकास" में केवल जैन भिक्षुणियों से सम्बन्धित सामग्री का विवरण प्रस्तुत किया गया है। मधुसेन कृत "ए कल्चरल स्टडी आफ निशीथचूर्णि" में बृहत्कल्पसूत्र पर लिखी वृत्ति का ही अधिकांश सन्दर्भ दिया गया है। इसी तरह मोतीचन्द्र कृत "सार्थवाह", तथा "भारतीय वेशभषा" और वासुदेवशरण अग्रवाल कृत "प्राचीन भारतीय लोक धर्म" में तत्सम्बन्धित विषयों की ही चर्चा है। अतः मैंने बृहत्कल्पसूत्र में उपलब्ध सम्पूर्ण सांस्कृतिक सामग्री को एक जगह एकत्रित कर उसका सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ___ अध्ययन की सुविधा के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध को आठ अध्यायों में विभक्त किया गया प्रस्तावना स्वरूप प्रथम अध्याय में बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का संक्षिप्त परिचय देते हुये जैन आगमसाहित्य में इसका स्थान, ग्रन्थकार संघदासगणि का काल एवं उनका क्षेत्र और तत्कालीन सांस्कृतिक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अध्याय में भौगोलिक दशा का वर्णन किया गया है जिसमें जनपदों, पर्वतों, वनों, नदियों, नगरों और ग्रामों का वर्णन किया गया है। प्रमुख जनपदों में अवंति, कुणाल, कोंकण, Jain Education International For Private & Pers42 Use Only www.jainelibrary.org

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