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मूक सेविका - विजयाबहन
- शरद कुमार साधक
श्रमण के भूतपूर्व सम्पादक जमनालाल जी जैन की पत्नी श्रीमती विजयाबहन अब हमारे बीच नहीं हैं। वे सर्वोदय-समाज की मूक सेविका तथा आचार्यकुल की निष्ठावान सदस्या थीं। उनकी पहचान सर्वसेवा संघ प्रकाशन के वरिष्ठ कार्यकर्ता, सम्पादक तथा जैन जगत के प्रसिद्ध लेखक श्री जमनालाल जैन की जीवन संगिनी के रूप में रहीं। ८ अक्टूबर १६६३ को उनका स्वर्गवास हो गया है लगभग दस वर्ष तक वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में रहीं थीं।
विजयाबहन का जन्म सारनाथ में हुआ था और सारनाथ में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली। ६0 वर्ष की जीवन-यात्रा के दौरान उन्होंने आत्मीयता की व्यापक भूमिका पर अपने स्नेह सम्बन्ध बनाये। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, बिहार, बंगाल ही क्यों, देश भर के कत्ताओं से जहाँ भी जुड़ी कि आत्मीय हो गयीं। किससे क्या बात करनी है, क्या सुननी है, इसका सूक्ष्म विवेक उन्हें भरपूर था। उनके वर्धा या वाराणसी आवास पर जो भी पहुँचा, वह बिना जलपान किये नहीं लौट सकता था। महात्मा भगवानदीन महीनों उनके अतिथि रहे। जैनेन्द्र जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकार के साथ तो उनका घरेलू सम्बन्ध ही था। दादा धर्माधिकारी, धीरेन्द्र मजूमदार, जयप्रकाश नारायण, शंकरराव देव, सिद्धराज ढड्ढा, पूर्णचन्द्र जैन, सुरेश राम भाई आदि सर्वोदय नेताओं का स्नेह-सौजन्य भी वे पायीं। जब जमनालाल जी राजगृह में वीरायतन का कार्य देख रहे थे तब सर्वसेवा संघ के अध्यक्ष आचार्य राममूर्ति ने कार्यकारिणी की बैठक वीरायतन में रखी तो विजयाबहन हम सभी सर्वोदय साथियों की समुचित व्यवस्था के लिए सारनाथ से वाराणसी पहुँच गयीं। वहाँ उनकी व्यवस्था शक्ति और आतिथ्य की किसने प्रशंसा नहीं की ? उन्होंने अपनी पुत्रियों और पुत्रवधू को भी यही सिखाया कि घर आये मेहमान का हार्दिकता पूर्वक सत्कार करना चाहिए। प्रश्न यह नहीं है कि तुम्हारे पास क्या है, क्या नहीं है। मुख्य बात है आत्मीयता, सेवा।
विजयाबहन की शिक्षा परम्परावादी जैन बालाश्रम आरा में हुई थी, फिर वे स्वतन्त्र विचारों वाली सामाजिक कार्यकर्वी थीं। गाँधी-विनोबा तथा क्रांतिकारी विचारकों के सम्पर्क में रहने के कारण कभी 'लकीर का फकीर बनना रास नहीं आया।' भूत-प्रेत, जादू-टोना, वार-तिथि आदि के चक्कर से बचकर रहीं। नियमों से भी अपने को जकड़ा नहीं। लेकिन रात में न खाने वालों या व्रत वालों का वे पूरा ध्यान रखती थीं। जिनेन्द्रवर्णी जी के आहार का उन्होंने जितना ध्यान रखा, उतना ही ख्याल भदन्त आनन्द कौसल्यायन या फातिमी साहब के भोजन का भी रखा और इस विषय में उन्होंने जमनालाल जी का पूरा साथ निभाया। रिश्तेदारों का विरोध होने पर भी पुत्र-पुत्रियों के अन्तर्जातीय व अन्तर्धर्मी विवाह किये। फिजूल खर्ची नहीं, मितव्ययिता पूर्वक बिना कंजूसी के घर-खर्च चलाया। व्यवहार कुशल तो इतनी थीं
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