Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुमरा अक्टूबर-दिसम्बर १६६३ वर्ष 88 अंक १०-१२ ch Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादक प्रो० सागरमल जैन सम्पादक सह-सम्पादक डा० शिव प्रसाद डा० अशोक कुमार सिंह वर्ष ४४ अक्टूबर-दिसम्बर, १९९३ अंक १०-१२ प्रस्तुत प्रङ्क में १. जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान -डा० अरुण प्रताप सिंह २. अशोक के अभिलेखों में अनेकान्तवादी चिन्तन : एक समीक्षा--डा. अरुण प्रताप सिंह ३. हिन्दू एवं जैन परम्परा में समाधिमरण : एक समीक्षा--डा. अरुण प्रताप सिंह ४ प्राचीन जैन ग्रंथों में कर्मसिद्धांत का विकासक्रम --डा० अशोक सिंह ५. हिन्दी जैन साहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास --डॉ० (श्रीमती) विद्यावती जैन ६ मूक सेविका--विजयाबहन -- शरदकुमार साधक शोधप्रबन्धसार ७ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का सांस्कृतिक अध्ययन -डॉ० महेन्द्र प्रताप सिह ८ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र : एक कलापरक अध्ययन -- डॉ० शुभा पाठक ९. काशी के घाट : कलात्मक एवं सांस्कृतिक अध्ययन - डॉ. हरिशंकर १० पुस्तक समीक्षा ११. जैन जगत वार्षिक शुल्क एक प्रति चालीस रुपये दस रुपये यह आवश्यक नहीं कि लेखक के विचारों से सम्पादक अथवा संस्थान सहमत हों। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान - डॉ. अरुण प्रताप सिंह जैन परम्परा के विषय में यहाँ विस्तार से लिखना पुनरुक्ति मात्र होगी। संक्षेप में जैन परम्परा की विशेष प्रसिद्धि त्याग, तपस्या, संयम एवं निवृत्तिमूलक गुणों के कारण है। वह व्यक्ति में उन मानवीय मूल्यों के विकास का प्रयास करती है जिससे व्यक्ति सच्चे अर्थों में मनुष्य बन सके। जैन परम्परा सामाजिक एवं धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास करती है। वीतरागता का भाव जिस किसी में भी हो, उसके लिए वन्दनीय है। इस प्रकार यह परम्परा सर्वधर्मसमभाव से अनुप्राणित है। इसका विश्वास है कि यदि व्यक्ति अपने अन्तर्निहित गुणों का विकास कर ले तो वह स्वयं तीर्थंकर बन सकता है। तीर्थंकर आध्यात्मिक गुणों के विकास की सर्वोच्च अवस्था है। इतनी उत्कृष्ट अवधारणाओं से संपृक्त जैन परम्परा के विकास में स्त्री-पुरुष दोनों का प्रशसनीय योगदान है। फिर भी स्त्रियों का योगदान तो अति महत्त्वपूर्ण है। जैन ग्रन्थों का अवलोकन करने से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। अंग साहित्य में इस बात के सुस्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। इन ग्रन्थों में "भिक्खु वा-भिक्खुणी वा" तथा "निग्गंन्थ वा निग्गन्थी वा" का उद्घोष न केवल नारी की महत्ता को मंडित करता है, अपितु उनके योगदान को भी रेखांकित करता है। ___ जैन परम्परा के आदर्शों एवं मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने में स्त्रियों की सार्थक भूमिका थी। सूत्रकृतांगकार को यद्यपि यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि स्त्रियाँ हलाहल विष तथा पंक के समान हैं। यह पुरुष प्रधान समाज का ही दुष्परिणाम है जहाँ हर व्यक्तिगत या सामाजिक बुराई को स्त्री के मत्थे मढ़ दिया जाता है, वास्तव में यह एक भयभीत व्यक्ति का कथन है जो आध्यात्मिक विकास के मार्ग में स्त्री को बाधक समझता है। इन्हीं ग्रन्थों में जो अत्यल्प उदाहरण प्राप्त है, उनसे स्पष्ट है कि पंक स्त्रियाँ नहीं, पुरुष भी है। वही उसे पथ-भ्रष्ट करना चाहता है और इसका प्रयास भी करता है। उत्तराध्ययन में वर्णित राजीमती एवं रथनेमि का उदाहरण इसका प्रमाण है। राजीमती भोजकुल के नरेश उग्रसेन की एक संस्कारित पुत्री थी, जिसका विवाह श्रीकृष्ण के भ्राता अरिष्टनेमि से होना निश्चित हुआ था। अरिष्टनेमि के संन्यास ग्रहण करने के उपरान्त राजीमती ने अपने मनसास्वीकृत पति के मार्ग का अनुसरण किया। राजीमती का विधिवत विवाह नहीं हुआ था, वह चाहती तो पुनर्विवाह कर सकती थी -- इसके लिए कोई भी नैतिक या धार्मिक अवरोध नहीं थाः परन्तु सारे वैभव एवं सांसारिक सुखों को तिलांजलि देकर मनसास्वीकृत पति के मार्ग का अनुसरण कर उसने जिस त्याग का परिचय दिया, यह पूरे भारतीय साहित्य में अनुपम है, अद्वितीय है। संन्यास के मार्ग में भी उसका आचरण स्पृहणीय है, वंदनीय है। एकदा अरिष्टनेमि के दर्शन के लिए जा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान रही राजीमती के वस्त्र वर्षा के कारण भीग जाते हैं। वहीं एक गुफा में वस्त्र सुखा रही राजीमती को नग्न अवस्था में देखकर रथनेमि का चित्त विचलित हो जाता है। वे विवाह का प्रस्ताव करते हैं। राजीमती जिस दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देती है, वह जैन परम्परा की अमूल्य धरोहर है। राजीमती धिक्कारते हुए रथनेमि से कहती है कि हे रथनेमि तू यदि साक्षात इन्द्र भी हो तब भी मैं तेरा वरण नहीं कर सकती हूँ। वह उन्हें क्रोध, मान, माया, लोभ का निग्रह करने तथा इन्द्रियों को वश में करने का उपदेश देती है। उसके दृढ़ चरित्र का ही परिणाम था कि रथनेमि को अपनी भूल का एहसास होता है और वे सुस्थिर चित्त होकर पुनः तप मार्ग का अवलम्बन ग्रहण करते हैं। ऐसी घटनाओं का अत्यधिक महत्त्व होता है। व्यक्ति के आचरण से ही किसी धर्म या पंथ का प्रचार-प्रसार होता है तथा वह लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनता है। आचरण से ही सांस्कृतिक परम्परा विकसित होती है, अन्यथा तो वह कोरा किताबी ज्ञान बनकर रह जाती। राजीमती का आचरण एक ऐसा आदर्श है जो कई शताब्दियों के बाद आज भी हमें प्रेरित कर रहा है। - जैन परम्परा एवं आदर्शों को अक्षुण्ण रखने में स्त्रियों का अनुपम योग था। संघ में प्रवेश लेने के समय पत्नी एवं माता की अनुमति आवश्यक थी। यदि वे अपने पुत्रों-पतियों को सहर्ष अनुमति न देतीं तो जैन संघ में भिक्षु-भिक्षुणियों की इतनी अधिक संख्या न होती। अपने एकमात्र पुत्र तक को वे भिक्षु बनाने में कोई अवरोध नहीं बनती थीं -- यदि माता एवं पत्नी के स्नेह को तौलने का कोई तराजू होता तो उस पर तौल कर उनके त्याग के अवदान का अनुमान लगाया जा सकता है। युवती कन्याओं का पूरा भविष्य सामने मुँह बाये खड़ा रहता था, वृद्ध माताओं का जर्जर शरीर अवरोधक का काम कर सकता था, परन्तु इन युवती कन्याओं एवं वृद्ध माताओं के समक्ष जैन परम्परा के आदर्श एवं मान्यताएँ थीं जिसके शनैः-शनैः विकास का उत्तरदायित्व भी उन्हीं के कन्धों पर था। नारियों ने अपने गुरुतर दायित्व का मूल्यांकन किया। उन्होंने अपने सांसारिक सुखों के आगे उन आदर्शों एवं मान्यताओं को प्रश्रय प्रदान किया जो अक्षुण्ण थीं तथा निरन्तर प्रवाहमान थीं। जैन धर्म के नियमों से अवगत श्रावक-पत्नियों ने परिवार की परम्परा को अक्षुण्ण रखा। वे स्वयं धर्म में श्रद्धा रखती थीं तथा अपने पुत्रों एवं पतियों को प्रोत्साहन भी देती थीं। पति के प्रतिकूल होने पर भी उससे अविरक्त न रहने वाली पत्नी ही प्रशंसनीय मानी गई थी। श्रावक आनन्द की पत्नी शिवानन्दा का ऐसा ही आदर्श चरित्र उपासकदशांग में वर्णित है। इसी ग्रन्थ में चुलनीपिता का उल्लेख है। देवोपसर्ग से विचलित होने पर इसकी माता ने ही उपदेश देकर धर्म में दृढ़ रहने को प्रोत्साहित किया। इसी प्रकार सुरादेव की पत्नी धन्या' एवं चुल्लशतक की पत्नी बहुला का वर्णन है जिन्होंने अपने पतियों की देवोपसर्ग से रक्षा की तथा सुस्थिर मन से धर्म में दृढ़ रहने का उपदेश दिया। इन स्त्रियों की अपनी प्रशंसनीय भूमिका के कारण ही सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा को धर्म सहायिका, धर्मवैद्या, धर्मानुरागरक्ता, समसुखदुःख सहायिका कहा गया है। चुलनीपिता की माता को देव एवं गुरु के सदृश पूजनीय कहा गया For Private &ersonal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह है।10 मर्यादा की रक्षा हेतु माताएं अपने एकमात्र पुत्र तक को संघ में भेजने को तत्पर रहती थीं। ज्ञाताधर्मकथा में थावच्चापुत्र का वर्णन है जो अपनी माता का एकमात्र पुत्र था। पुत्र का संकल्प जानने पर उसकी माता थावच्चा स्वयं श्रीकृष्ण के पास जाती हैं और उनसे छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करने का निवेदन करती हैं जिससे वे अपने पुत्र का अभिनिष्क्रमण संस्कार सम्यकरूपेण कर सकें।1 इस तरह के अनेक उदाहरण जैन ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। इन प्रमाणों से स्त्रियों के योगदान का मूल्यांकन किया जा सकता है। जैनधर्म के चतुर्विध संघ में भिक्षुणी-संघ एवं श्राविका संघ का अपना विशिष्ट महत्त्व है। संसार त्याग कर तप-तपस्या का पथानुसरण करने वाली भिक्षुणियों एवं संसार में रहकर घर-गृहस्थी का भार संचालन करने वाली श्राविकाओं ने जैन परम्परा के विकास में महत् योगदान दिया है। जैन आचार्यों ने संघ को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों की व्यवस्था की। सभी प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से स्पष्ट है कि नियमों के पालन के सम्बन्ध में भिक्षु-भिक्षुणियों में कोई भेद नहीं किया गया। जैन भिक्षुणियाँ उन नियमों के पालन में कसौटी पर खरी उतरीं। उनके द्वारा नियमों का उल्लंघन किया गया हो -- इसकी कोई स्पष्ट सूचना ग्रन्थों से नहीं प्राप्त होती। सुकुमालिका,काली आदि भिक्षुणियों के कुछ उदाहरण अवश्य हैं, परन्तु वे अपवादस्वरूप हैं। ज्ञाताधर्मकथा में सुकुमालिका का जो वृत्तान्त दिया गया है, वह महाभारत के प्रसिद्ध नारी पात्र द्रौपदी के पूर्वभव से सम्बन्धित है। द्रौपदी का पाँच पतियों के साथ विवाह का पूर्व कारण क्या था -- कथा के माध्यम से इस पर प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः यह घटना अपवादस्वरूप ही है -- अन्यथा ग्रन्थों में वर्णित प्रायः सभी भिक्षुणियाँ त्याग-तपस्या की जीवन्त प्रतिमाएँ दिखायी पड़ती हैं। ये भिक्षुणियां ध्यान एवं स्वाध्याय में लीन रहकर चिन्तन-मनन किया करती थीं। अन्तकृद्दशा में यक्षिणी आर्या के सान्निध्य में पद्मावती'4 तथा चन्दना आर्या के सान्निध्य में काली15 आदि भिक्षुणियों को ग्यारह अंगों का अध्ययन करने वाली बताया गया है। इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा16 में सुव्रता, द्रौपदी को ग्यारह अंगों में निष्णात बताया गया है। जैन भिक्षणियों की विद्वत्ता के प्रमाण हमें बौद्ध ग्रन्थों से भी होते हैं। थेरी गाथा की परमत्थदीपनीटीका में भद्राकुण्डलकेशा तथा नंदुत्तरा का उल्लेख प्राप्त होता है जिन्होंने क्रमशः महान बौद्ध भिक्षु सारिपुत्र एवं महामौद्गल्यायन के साथ शास्त्रार्थ किया था। ये भिक्षुणियाँ तर्कशास्त्र में निष्णात थीं। ध्यान एवं स्वाध्याय के क्षेत्र में ही नहीं, तपस्या के क्षेत्र में भी जैन भिक्षुणियाँ प्रशंसा की पात्र थीं। अन्तकृदशा में भिक्षुणी पद्मावती' द्वारा उपवास, बेला, तेला, चोला, पंचोला से लेकर पन्द्रह-पन्द्रह दिन की एवं महीने-महीने तक की विविध प्रकार की तपस्याएँ करने के उल्लेख हैं। इसी ग्रन्थ में भिक्षुणी काली के तपस्या करने का भी वर्णन है। रत्नावली तप करने के पश्चात् आर्याकाली का शरीर मॉस और रक्त से रहित हो गया था, उनके शरीर की धमनियाँ प्रत्यक्ष दिखायी देती थीं, शरीर इतना कृश हो गया था कि उठते-बैठते उनके शरीर से हड्डियों की आवाज उत्पन्न होती थी।20 For Private & Personal Use ou Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान तप स्वाध्याय एवं ध्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाली इन साध्वियों ने जैन धर्म की महान परम्परा को पल्लवित एवं पुष्पित किया। इन साध्वियों ने जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में अमूल्य योगदान दिया। इसका क्रमबद्ध इतिहास तो नहीं लिखा जा सकता परन्तु यह विचार अवश्य किया जा सकता है कि जैन धर्म के प्रसार में उनका योगदान कहीं से भी न्यून नहीं था । जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु भिक्षुओं एवं आचार्यों के साथ वे भी उन प्रदेशों में गईं जो अपरिचित थे एवं जहाँ जाना कष्ट साध्य था । जैनधर्म के प्रसार एवं उसकी परम्परा को अक्षुण्ण रखने में भिक्षुणियों के समानं श्राविकाओं का भी अप्रतिम योगदान है। श्रावक श्राविकाओं के योगदान के कारण ही इन्हें संघ का विशिष्ट अंग बनाया गया । धर्मरूपी रथ के दो चक्रों की कल्पना की गई जिसमें एक चक्र को भिक्षु - भिक्षुणियों से तथा दूसरे चक्र को श्रावक-श्राविकाओं से सम्बन्धित किया गया । श्राविकाओं ने ही साधु-साध्वियों को दैनिक आवश्यकताओं की चिन्ता से मुक्त किया। जैनधर्म के विकास में यह उनका महती योगदान था । श्राविकाओं के इस योगदान के अभाव में धर्म रथ का चक्र निस्सन्देह सुचारु रूप से गति करने में समर्थ नहीं था । साधु-साध्वियों का आध्यात्मिक जीवन श्रावक-श्राविकाओं के इस योगदान का अत्यन्त ऋणी रहेगा। श्रावक-श्राविकाओं के इस योगदान की महत्ता को आचार्यों ने भी स्वीकार किया । उत्तराध्ययन में गृहस्थों को भिक्षु भिक्षुणियों का माता-पिता बताया गया है। जैन ग्रन्थों में भिक्षुओं एवं श्रावक-श्राविकाओं के मध्य सम्बन्धों को विस्तार से निरूपित किया गया है। भिक्षुओं को यह निर्देश दिया गया था कि वे किसी श्रावक के ऊपर भार न बनें। जैसे भ्रमर प्रत्येक फूलों का रस ग्रहण करता है और उन्हें कोई कष्ट नहीं पहुँचाता उसी प्रकार भिक्षुओं को यह सुझाव दिया गया था कि वे प्रत्येक श्रावक परिवार पर पूर्णतया अवलम्बित न रहें । 21 भिक्षुओं का प्रत्येक श्रावक-श्राविकाओं से सम्पर्क जैनधर्म के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ । अपने उद्गम स्थल से बौद्ध धर्म के समाप्तप्राय एवं जैन धर्म के निरन्तर विकसित होने में उपर्युक्त कारक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । श्रावक-श्राविकाओं से जैन आचार्यों का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और आज भी है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म अपने उपासक - उपासिकाओं से शनैः-शनैः कटता हुआ मठों एवं चैत्यों तक सीमित रह गया । मठों एवं चैत्यों के विध्वंस होने पर समाज में उनको पहचानने वाला भी कोई न रहा। जबकि समाज की ऊर्जा शक्ति अर्थात् श्रावक-श्राविकाओं का प्रोत्साहन जैनधर्म को निरन्तर उत्साहित किये रहा 122 जैनधर्म के विकास, प्रसार एवं परम्परा को स्थायित्व प्रदान करने में ऊपर हमने जिन श्रावक-श्राविकाओं के योगदान की चर्चा की है-- उनमें श्राविकाओं का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि जैनधर्म के सभी तीर्थंकरों में हम केवल महावीर की ही ऐतिहासिकता को स्वीकार करें तो भी हम यह पाते हैं कि उनके श्रावकों की संख्या 1,59,000 तथा श्राविकाओं की संख्या 3,18,000 थी। इसी प्रकार भिक्षु भिक्षुणी संघ में भी भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं की में अधिक है। अन्य तीर्थंकरों के चतुर्विध संघों में भी भिक्षुणियों एवं श्राविकाओं की तुलना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह संख्या पुरुषों से अधिक है। संख्या की यह अधिकता संघ में उनकी क्रियाशीलता को दर्शाता है एवं तत्परिणामस्वरूप उनके योगदान को रेखांकित करती है। जैन संघ में उल्लिखित यह संख्या कवि की कल्पना-प्रसूत नहीं है अपितु सुस्पष्ट प्रमाणों पर आधारित है। पुरातात्त्विक प्रमाण हमें बहुलता से नहीं प्राप्त होते, परन्तु जो भी प्राप्त हैं उनसे उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। उदाहरणस्वरूप हम मथुरा के लेखों का अध्ययन करें। मथुरा के लेख कुषाण सम्राट कनिष्क एवं उसके उत्तराधिकारियों के समय के हैं। कनिष्क एक सुप्रसिद्ध बौद्ध नरेश के रूप में मान्य है। निश्चय ही जैन संघ के लिए यह बहुत अनुकूल परिस्थिति नहीं रही होगी। इस स्थिति में भी मथुरा में जैन मन्दिरों एवं चैत्यों के निर्माण स्त्रियों की बहुसंख्या में सहभागिता हमें आश्चर्य में डाल देती है। स्त्रिया यहाँ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु बहुमूल्य दान करती हुई प्रदर्शित हैं। इनमें धनी एवं उच्च वर्ग की स्त्रियों के साथ ही लोहकार23, रंगरेज24, गंधिक25, स्वर्णकार26, नर्तक7 आदि की पुत्रियों, पत्नियों एवं पुत्र-वधुओं के दान का भी उल्लेख है। गणिकाओं28 का भी नामोल्लेख है जो अपने अन्य सम्बन्धियों के साथ एक मन्दिर के लिए आयागपट्ट एवं तालाब के निर्माण हेतु दान देते हुए प्रदर्शित है। समाज के प्रत्येक वर्ग के स्त्रियों की यह सहभागिता जैन परम्परा के विकास में उनके स्वतः योगदान को सूचित करती है। बिना किसी दबाव एवं राजकीय आकर्षण के स्त्रियों का यह अवदान जैन धर्म के प्रसार में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करता है। समाज के उच्च एवं निम्न वर्ग के साथ समान सम्पर्क ने जैनधर्म को अक्षुण्ण बनाये रखा एवं उसको निरन्तर गति प्रदान की। जैनधर्म परम्परा के विकास में स्त्रियों के योगदान सम्बन्धी ये कुछ उपर्युक्त उदाहरण प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत हैं। कालान्तर में जैनधर्म में भी पुरुषज्येष्ठधर्म को स्वीकार कर लिया गया -- फलस्वरूप समाज में नारी का स्थान गौण होता चला गया और उनकी भूमिका महत्त्वहीन। 21वीं शताब्दी के आने वाले समय में हमें समाज में नारी की सार्थक भूमिका की तलाश करनी है। इसमें प्राचीन साहित्य एवं अभिलेख हमारे लिए मार्ग दर्शक सिद्ध हो सकते हैं। हमें उनकी प्रतिष्ठा एवं सम्मान के लिए नया क्षेत्र सृजित नहीं करना है, अपितु पहले से ही प्राप्त उनकी प्रशंसनीय भूमिका को पुनप्रतिष्ठित करना है। प्रवक्ता, प्रा. इतिहास विभाग, श्री बजरंग महाविद्यालय, दादर आश्रम सिकन्दरपुर, बलिया, (उ.प्र.) For Private Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ १. सूत्रकृतांग (आगम प्रकाशन समिति, राजस्थान), १६८२, १/४/१/१०-११; उत्तराध्ययन (वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १६७२) गच्छाचार (आगम प्रकाशन समिति ), ७०,८४ उत्तराध्ययन, २२/२६ "जइ सि स्वेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो। तहा वि ते न इच्छामि, जइ सि सक्खं पुरन्दरो।। ४. वही, २२/४७/-४६ उपासकदशांग (आगम प्रकाशन समिति, राजस्थान, १९८२), पृ.११ वही, पृ. ११३ ७. वही, पृ. १२१ ८. वही, पृ. १२६ ६. वही, पृ. १६४ १०. वही, पृ. १०८ ११. ज्ञाताधर्म कथा (आगम प्रकाशन समिति, राजस्थान), १/५, पृ. १६२ १२. वही, १/१६ १३. अन्तकृद्दशा (श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना ), अष्टम वर्ग। १४. वही, पंचम वर्ग, १५. वही, अष्टम वर्ग १६. ज्ञाताधर्मकथा, १/१६ १७. थेरीगाथा, परमत्थदीपनी टीका, ४६ १८. वही, ४२ १६. अन्तकृद्दशा, पंचम वर्ग २०. "तएणं सा काली अज्जा तेणं ओरालेणं जाव धमणि संतया जाया या वि होत्था। से जहा नामए इंगालसगडी वा जाव सुहुयहुयासणे इव भासरासिपलिच्छण्ण,तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव उवसोभेमाणी चिट्ठ। - वही, अष्टम वर्ग २१. दशवैकालिक, १/२-४; विस्तार के लिए देखें - जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ ( पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १६८६), पृ. ३२-६० "It is evident that the lay part of the community were not regarded as outsiders, as seem to have been the case in early Buddhism; their position was, from the beginning, well defined by religious duties and privilages. The bond which united them to the order of monks was an effective one . It can not be Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह doubted that this close union between laymen and monks brought about by the similarity of their religious duties differing not in kind but in degree enabled Jainism to eavoid fundamental changes within and to resist dangers from without for more them two thousand years, while Buddhism, being less exacting as regards the laymen underwent the most extrordinary evolutions and finally disappeared altogether in the country of its origin". - Jacobi, H.; Jainism, Encyclopaedia of Religion and Ethicss, Vol. Vil, p. 470 २३. List of Brahmi Inscriptions (Ed. H. Luders Berlini Indological Book House, Varanasi, 1972 ), 329, 53, 54. २४. [bld, 32. २५. bid, 37, 68, 76. २६. bid, 95. २७. |bid, 100. २८. bid, 102. पार्श्वनाथ शोधपीठ के मन्त्री श्री भूपेन्द्रनाथजी जैन सम्मानित राष्ट्रीय अन्ध संघ, भारत द्वारा अन्धों के कल्याणार्थ की गई विशिष्ट सेवाओं के उपलक्ष में रुस्तम मेरवानजी अल्पाईकल्ला स्मृति पुरस्कार 1993 पूज्य सोहनलाल स्मारक, पार्श्वनाथ शोधपीठ के मन्त्री, प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाज सेवी श्री भूपेन्द्र नाथ जैन, फरीदाबाद को प्रदान किया गया है। आपको यह पुरस्कार राष्ट्रीय अन्ध समुदाय की हरियाणा शाखा के अध्यक्ष के रूप में की गई विशिष्ट सेवाओं के उपलक्ष में प्रदान किया गया है। आपने हरियाणा में अन्धों के कल्याण हेतु सराहनीय कार्य किया। आपके मार्गदर्शन एवं सहयोग से 'ग्रामीण पुनर्वास योजना', ब्रेल सहायता बैंक, टेलीफोन आपरेटर्स ट्रेनिंग कोर्स, एकीकृत शिक्षा कार्यक्रम आदि अन्ध-कल्याण के अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सफलता पूर्वक सम्पन्न किये गये। - - For Private & Person Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के अभिलेखों में अनेकान्तवादी चिन्तन : एक समीक्षा __ - डॉ. अरुण प्रताप सिंह भारत के ऐतिहासिक साम्राज्यों में विशालतम मौर्य साम्राज्य के संस्थापकों चाणक्य और चन्द्रगुप्त एवं उसके गौरव में अभिवृद्धि करने वाले महान अशोक के नामों से प्रायः सभी भारतीय परिचित हैं। विश्व के सभी प्रसिद्ध सम्राटों का मूल्यांकन करते हुए इतिहासकार एच.जी. वेल्स ने अशोक की गणना सबसे देदीप्यमान तारे के रूप में की है। अशोक अपने पितामह चन्द्रगुप्त की भाँति दुर्धर्ष साम्राज्यवादी था। इस उद्देश्य से प्रेरित होकर उसने अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष वर्तमान उड़ीसा में स्थित कलिंग पर भीषण आक्रमण किया। युद्ध की भयंकरता एवं अनगिनत धन-जन की क्षति से अशोक का हृदय द्रवीभूत हो उठा। यह न केवल अशोक के इतिहास की अपितु सम्पूर्ण भारत के इतिहास की क्रान्तिकारी घटना थी। युद्ध के पूर्व का चण्डाशोक अब धर्माशोक में पूर्णतया परिवर्तित हो गया था। अशोक के साम्राज्य में उसके तेरहवें शिलालेख के अनुसार अब भेरीघोष के स्थान पर धम्मघोष का निनाद सुनायी पड़ने लगा। इस धम्मघोष का निनाद जनता को सुनाने के लिए अशोक ने अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक एवं नेपाल से लेकर मैसूर तक अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में अभिलेखों को उत्कीर्ण कराया। इन अभिलेखों के अध्ययन से अशोक की महानता का दर्शन होता है। वह अपने साम्राज्य में वैचारिक तथा धार्मिक सहिष्णुता की स्थापना के लिए कितना आतुर है -- यह उसके अभिलेखों के अध्ययन से स्पष्ट है। - अभिलेखों में उत्कीर्ण अशोक के महान विचार स्पष्टतः तत्कालीन प्रचलित सभी धर्मों के गम्भीर अनुशीलन के उपरान्त प्रस्फुटित हुए। यद्यपि यह निष्कर्ष स्थापित करने में कोई संकोच नहीं कि वह बौद्धधर्म से ज्यादा अनुप्राणित था और सम्भवतः वह अपने शासनकाल के अन्तिम दिनों में बौद्धधर्म का उपासक हो गया था जैसा कि उसके भाव अभिलेख से स्पष्ट है। बौद्धधर्म का उपासक होते हुए भी उसने सभी प्रचलित धर्मों को पूर्ण सम्मान प्रदान किया। अभिलेखों में वर्णित उसका धम्म केवल बौद्धधर्म की सम्पदा नहीं, अपितु सभी धर्मों की सामूहिक थाती है। वह जैनधर्म से विशेष परिचित प्रतीत होता है। उसके कई अभिलेखों में निग्गण्ठों (निर्गन्थ-जैनधर्म) का सम्मानपूर्ण उल्लेख हुआ है। उसका धम्म जैनधर्म के सिद्धान्तों से इतना अधिक प्रभावित है कि अशोक के अभिलेखों का अध्ययन करने वाले प्रसिद्ध विद्वान एडवर्ड टामस ने तो यह मत व्यक्त किया था कि अशोक पहले जैन था और बाद में बौद्ध हो गया। इन सन्दर्भो से स्पष्ट है कि अशोक अपने समय में प्रचलित सभी पंथों से परिचित था। इसी प्रकार वह अपने अभिलेखों में आजीविकों एवं ब्राहमण (वैदिक) धर्म का उल्लेख करता है। कहने का सारांश यह है कि उसके धम्म में सभी धर्मों (विचारों) की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। सभी विचारों को यथोचित सम्मान प्रदान करना ही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद का For Buate & Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के अभिलेखों में अनेकान्तवादी चिन्तन : एक समीक्षा सिद्धान्त विश्व को जैनधर्म की विशिष्ट देन है । यह सिद्धान्त व्यक्ति को यह शिक्षा देता है कि वह सभी धर्मों के प्रति आदर एवं सम्मान का भाव रखे तथा दूसरे धर्मों के प्रति अनादर या उपेक्षा का भाव न रखें। इस अवधारणा के अनुसार सत्य सर्वत्र है । केवल अपने ही विचारों को सत्य मान लेना आग्रह उत्पन्न करता है जो सारे विवादों का मूल कारण होता है । अनेकान्तवाद की मान्यता के अनुसार वस्तु के अनन्त धर्म या गुण होते हैं। चूँकि मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं सापेक्ष होता है अतः वह एक समय में वस्तु के एक ही गुण का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह आंशिक सत्य होता है, सम्पूर्ण सत्य नहीं । जब व्यक्ति इसी आंशिक सत्य को सम्पूर्ण सत्य मान बैठता है तभी आग्रहवाद पैदा होता है। सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक जीवन में जो मतभेद पाया जाता है, उसका भी कारण यही है कि प्रत्येक मत अपने ही दृष्टिकोण को ठीक मानता है। और दूसरे दृष्टिकोण को मिथ्या बतलाकर उसकी घोर उपेक्षा करता है । अनेकान्तवादी दृष्टिकोण विकसित होने पर व्यक्ति न केवल अपने मत के सत्य का अपितु दूसरे मत के सत्य का भी साक्षात्कार कर सकता है, फलस्वरूप मतभेद की सम्भावना नहीं रहती । अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अनेकान्तवाद के इस सिद्धान्त से सम्राट अशोक कहाँ तक प्रभावित था ? इसका स्पष्ट उत्तर हाँ या नहीं में तो नहीं दिया जा सकता, पर उसके अभिलेखों का अनुशीलन कर इसकी सम्भावनाओं पर विचार अवश्य किया जा सकता है। यह स्पष्ट है कि अशोक केवल उपदेशक मात्र ही नहीं था, अपितु स्वयं उसका पालन करने वाला महान शासक था। उसके कथन और कार्य में कोई विभाजक रेखा खींचना सम्भव नहीं । अशोक बौद्धमतावलम्बी अवश्य था, पर वह कभी भी इससे अन्धानुरक्त नहीं था । उसके राज्यकाल में बौद्धेतर मतावलम्बियों की कोई अवहेलना हुई हो या उनके प्रति कोई असम्मान प्रदर्शित किया गया हो इसका कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता । अशोक अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का परिचय देते हुए सभी धर्मों (मतों ) की उन्नति के लिए प्रयत्नशील दीख पड़ता है । अशोक के काल में भी विभिन्न धर्मों में पारस्परिक मतवैभिन्न्य था । उस समय बौद्धधर्म के अतिरिक्त जैनधर्म (निग्गन्थ), ब्राह्मणधर्म ( माहण) एवं आजीविक मत का प्राधान्य था जैसा कि उसके अभिलेखों से स्पष्ट है। इन विभिन्न मतों में वैचारिक मतभेद होना सहज एवं स्वाभाविक था, परन्तु इन सभी मतों में कुछ बातें ऐसी अवश्य थीं जो सबको सहज स्वीकार्य थीं । अशोक इस तथ्य से परिचित है। इसके इन विचारों की अभिव्यक्ति उसके सप्तम शिला - अभिलेख में हुई है । इस अभिलेख में अशोक यह इच्छा प्रकट करता है कि उसके साम्राज्य में सभी धर्म वाले रहें। क्योंकि सभी धर्म वाले संयम और भावशुद्धि चाहते हैं । अशोक इन मतों के भिन्न-भिन्न (उच्च-नीच ) विचारों से भी परिचित है। वह उच्च-नीच भावों को गौण मानता है। अशोक वैचारिक सहिष्णुता का परिचय देते हुए सभी के लिए स्वीकार्य मत को ही अपने धम्म का अंग बनाता है। अशोक के छठें स्तम्भ लेख में भी इसी तथ्य का द्योतन है जिसमें सभी सम्प्रदायों को समान रूप से महत्त्व देने का उल्लेख है । अशोक यह स्पष्ट घोषणा करता है कि सभी सम्प्रदाय (धर्म) विविध प्रकार की पूजाओं से मेरे द्वारा पूजित हैं । 4 अब यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि अशोक के हृदय में कभी भी किसी मत के प्रति असम्मान का भाव नहीं रहा । -- Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह यही नहीं, चाहे दान देने का प्रसंग हो या उसके द्वारा नियुक्त धर्ममहामात्रों के कर्तव्यों का सन्दर्भ हो, अशोक किसी विशेष मत के प्रति पक्षपात का भाव नहीं रखता। अशोक के तृतीय एवं चतुर्थ शिलालेख में दान देने का प्रसंग है। इसमें वह ब्राह्मणों एवं श्रमणों में कोई भेद नहीं करता। दोनों को साथ-साथ दान देने का उल्लेख करता है। सभी धर्मों की उन्नति के लिए ही अशोक ने धर्ममहामात्रों का नया पद सृजन किया था। ये धर्ममहामात्र केवल बौद्धधर्म की उन्नति की देख-रेख के लिए नहीं थे, अपितु सभी धर्मों की सम्यक् उन्नति के लिए नियुक्त किये गये . थे। अपने पंचम शिलालेख में अशोक इस तथ्य का स्पष्टता के साथ उल्लेख करता है। अनेकान्तवाद के महान विचार से प्रभावित अशोक धार्मिक सहिष्णुता एवं वैचारिक सदभाव के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा। अपने बारहवें शिलालेख में वह विस्तार से इसका उपाय भी बताता है। अशोक के अनुसार सभी मतों (सम्प्रदायों) के धर्म के सार (तत्त्व) की वृद्धि के. साथ (सारवठी) इसका प्रारम्भ किया जा सकता है। विभिन्न धर्मों के सार की वृद्धि कैसे होगी। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है और इसका समाधान भी आवश्यक है। अशोक विभिन्न धर्मों के मध्य सार की वृद्धि के लिए जो सबसे आवश्यक चीज मानता है, वह वचन पर नियन्त्रण (वचगुती) है। उसके अनुसार यह मूल कारण है (तस तु इदं मूलं)।° अशोक इस बात को अच्छी तरह जानता था कि वाणी पर लगाम दिये बिना धार्मिक सद्भाव की बात निरर्थक है। वाणी पर नियन्त्रण तभी सम्भव है जब हम अपने विचार या भावना को बहुआयामी बनावें अर्थात् अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को विकसित करें। इस प्रकार का दृष्टिकोण विकसित होने पर ही व्यक्ति विरोधी विचारधारा को भी यथोचित सम्मान प्रदान कर सकता है, क्योंकि वह उसमें भी सत्य का अंश देखता है। एकान्तिक दृष्टिकोण के कारण व्यक्ति अपनी विचारधारा को सर्वोत्कृष्ट मानता है तथा दूसरे के विचारों को हेय दृष्टि से देखता है। अशोक इस पर बल देता है कि लोग केवल अपने सम्प्रदाय (धर्म) की प्रशंसा एवं दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा न करें। जो व्यक्ति केवल अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा एवं दूसरे सम्प्रदाय ( मत) की आलोचना करता है, अशोक के अनुसार वह अपने ही सम्प्रदाय की हानि करता है। अशोक का यह कथन यथार्थतः सत्य है। अपने ही मत तक सीमित रह जाने के कारण व्यक्ति की बुद्धि कुंठित हो जाती है तथा वह दूसरे मत के सत्य को स्वीकार करने से इन्कार कर देता है। वह मिथ्याज्ञान से युक्त हो जाता है। एकान्त या आग्रह बुद्धि के कारण वह न तो अपने मत के ही विविध पक्षों के सत्य को अपना पाता है और न ही दूसरे के मत के सत्य को। "वस्तुतः पक्षाग्रह की धारणा से विवाद का जन्म होता है। व्यक्ति जब स्व-मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करता है, तो परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में संघर्ष का प्रादुर्भाव हो जाता है। वैचारिक आग्रह न केवल वैयक्तिक नैतिक विकास को कुण्ठित करता है, वरन् सामाजिक जीवन में विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीज बो देता है।"10 वह अन्धों के समान हाथी के ... विविध अंगों को ही सम्पूर्ण हाथी समझने लगता है। इस वैचारिक अनाग्रह से समाज में जिस विष या विग्रह का जन्म होता है -- स्पष्टतः अशोक सम्राट के रूप में भली-भाँति परिचित था। For PTO & Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के अभिलेखों में अनेकान्तवादी चिन्तन : एक समीक्षा अशोक के काल (तृतीय शताब्दी ईसापूर्व) में सम्भवतः विभिन्न मतवाद प्रचलित थे। भग अशोक के ही समकालीन सम्पादित होने वाले जैनग्रन्थ सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में विभिन्न मतों को विस्तार से चर्चा है। वहाँ भी अशोक के अभिलेख की ही शैली में उपर्युक्त बात कही गई है कि जो अपने मत की प्रशंसा एवं दूसरे मत की निन्दा करते हैं, वे एकान्तवादी हैं, सत्य से भटके हुए हैं। सूत्रकृतांग एवं अशोक के अभिलेख -- दोनों के भाव एक हैं। स्पष्ट है कि सम्राट के रूप में अशोक का प्रमुख कर्त्तव्य इन विभिन्न मत-मतान्तरों के मध्य सौहार्द को स्थापित करना था। इसी कारण वह धर्म के यथार्थ सार की वृद्धि के लिए प्रयत्नशील था सभी धर्मों (मतों) में अच्छी बातें हो सकती हैं और होती हैं। हमें अनेकान्तवादी दृष्टि से उसको विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। यह कार्य असम्भव नहीं है। इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए अशोक "समवाय" शब्द का प्रयोग करता है। समवाय (सं + अव + इ) का शाब्दिक अर्थ है सम्यक् प्रकार से चलना। इसके अर्थ का विस्तार देते हुए अशोक बताता है कि सभी को एक-दूसरे के धर्मों को सुनना और सुनाना चाहिए (अनमंत्रस धम सुणारु च सुंसुसेर च)।12 इसमें सन्देह नहीं कि एक-दूसरे के धर्मों को सुनने से प्रत्येक धर्म की अच्छी बातों का ज्ञान होगा फलस्वरूप एकान्तिक आग्रह का भाव मिट जायेगा। आग्रह का भाव न रहने पर लोग दूसरे मत के सत्य को भी सहज स्वीकार करेंगे। इस अनेकान्तवादी दृष्टि के विकसित होने पर समाज में स्वयं सौहार्द की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होगा। __ इस अनाग्रही दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए आवश्यक है कि लोग बहुश्रुत बनें।13 बहुश्रुत से तात्पर्य है सभी धर्मों के शास्त्रों की सम्यक् जानकारी। ___ एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी मतों को सुनने एवं उनके ग्रन्थों का अध्ययन करने से निश्चय ही मनुष्य के मिथ्याज्ञान का परिहार होगा और वह सभी मतों के सत्य का साक्षात्कार करने में समर्थ होगा। इस अनाग्रही/अनेकान्तवादी दृष्टि के विकसित होने पर उसके परिणाम भी सुखद एवं सुन्दर होंगे। अशोक इसके परिणाम के बारे में बताता है कि इससे स्वयं के धर्म की वृद्धि होगी और धर्म का दीपन होगा। 4 जैसा कि स्पष्ट है कि अशोक मात्र कोरा उपदेशक नहीं था। उसके अभिलेखों में प्रयुक्त वाक्यों एवं शब्दों के अंशों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वह स्वयं भी बहुश्रुत था। उसने बौद्धधर्म के समान ही जैनधर्म एवं अन्य परम्पराओं का गहन अध्ययन किया था और सब धर्मों के निचोड़ या सार के रूप में अपने धम्म की प्रस्थापना की थी। प्रो. डी. आर. भण्डारकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "अशोक" में इस सम्भावना पर संक्षेप में विचार किया है कि अशोक जैनधर्म की मूल बातों से कहाँ तक प्रभावित था। इसके अभिलेखों में प्रयुक्त आसिनव, परिस्सव, चंडिये, निठुलिए, कोधे, माने, इस्सा, अनालम्भो जीवानं अविहिंसा भूतानां, जीव, पाण, भूत, जात आदि पारिभाषिक शब्द इस तथ्य के प्रमाण हैं कि अशोक ने जैनधर्म की उत्तम बातों को बिना किसी संकोच के ग्रहण किया।" इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि अशोक बौद्धधर्म का उत्साही अनुयायी है, पर उसमें अभी इतनी उदारता थी कि जैन आदि अन्य धर्मों . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह का भी अध्ययन करे और उनकी ऐसी विशेषताएँ अपना ले जो उसे पसन्द आ जाएँ।" उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि अशोक का अभिलेख और उसमें वर्णित उसका धम्म अनेकान्तवादी अवधारणा से पूरी तरह प्रभावित था। मूल, वचगुति, समवाय एवं बहुसुत के आदर्शों के द्वारा उसने धार्मिक सहिष्णुता एवं सामाजिक सद्भाव की जो परिकल्पना की है, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जिनते आज से 2300 वर्ष पूर्व थे। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि अशोक के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता आज और भी अधिक है। भारत की वर्तमान दशा अत्यन्त शोचनीय और दयनीय है। आधुनिक युग में भारत में जो विभिन्न मत प्रचलित हैं और उनमें जो पारस्परिक कटुता एवं वैमनस्य है उसका समाधान अशोक के रास्ते से ही सम्भव है । जिस अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का परिचय अशोक ने अभिलेखों में दिया है, वह प्रशंसनीय एवं पालनीय है।" तीसरी सदी ई. पू. का यह राजर्षि हमें जो बात सिखाना चाहता है, वह यह है कि हमें सब धर्मों में सार देखना और इस पर आचरण करना चाहिए तथा इन धर्मों के कर्मकाण्डों और सिद्धान्तों की निष्पक्ष होकर तुलना करनी चाहिए। उसका यह सन्देश कितना उदात्त और विश्वासोत्पादक है और आज की दुनिया के लिए भी यह कितना अपरिहार्य है। जरा सोचिए कि अगर हम इस परम प्रज्ञापन के शब्दों का श्रद्धा के साथ अनुसरण करें और न केवल हिन्दूधर्म और इस्लाम का, बल्कि ईसाई धर्म, जरथुष्ट्री (पारसी) धर्म और यहाँ तक कि मन्त्र - तन्त्र का भी अध्ययन करें तो संसार आत्मिक और बौद्धिक दृष्टि से कितना समृद्ध और उन्नत हो जायेगा।"15 प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास विभाग, एस. बी. डिग्री कालेज, सिकन्दरपुर, बलियाँ (उ. प्र. ) 12 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक के अभिलेखों में अनेकान्तवादी चिन्तन : एक समीक्षा सन्दर्भ ___ 1. "अठ वषा भिषित षा देवानांपियष पियदषिने लाजिने कलिग्या विजिता" -- त्रयोदश __ अभिलेख ( अशोक के अभिलेख, सं.- राजबली पाण्डेय, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, सं. 2022) 2. अशोक, पृ. 65-66 (लेखक - डी. आर. भण्डारकर, एस. चन्द एण्ड कम्पनी लि., नई दिल्ली, 1989) 3. "देवानं पियो पियदसि राजा सर्वत इछति सवे पासंडा वसेयु। सवे ते संयम च भावसुधिं च इछति । जनो तु उचावचछंदो उचावच रागो" -- सप्तम अभिलेख ___4. "सव पासंडा पि मे पूजिता विविधाय पूजाया" -- षष्ठ स्तम्भ अभिलेख 5. "बाम्हण समणानं साधु दानं" -- तृतीय अभिलेख ____6. "त मया त्रैदसवासाभिसितेन धममहामाता कता । ते सब पाषंडेसु व्यापता धामधिष्ठानाय" -- पंचम अभिलेख 7. "सारबढी अस सबपांसडानं सारबढ़ी तु बहुविधा" -- द्वादश अभिलेख 8. वही, 9. "आत्पपासंडपूजा व पर पासंडगरहा व नो भवे अप्रकरणम्हि लहुका व अस तम्हि तम्हि प्रकरणे। पूजेतया तु एवपर पासंडा तेन तेन प्रकरणेन। एवं करूं आत्मपासंडं च वढयति पासंडस च उपकरोति। तदंत्रथा करोतो आत्मपाषंड च छणति परपासंडस च पि अपकरोति। यो हि कोचि आत्पपासंडं पूजयति परपासंडं व गरहति सवं आत्पपासंडभतिया किंति आत्पपासंडं दीपयेम इति सो च पुत्र तथ करातो आत्पपासंड बाढतरं उपहनाति। -- वही 10. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 2, पृ. 223 (लेखक डॉ. सागरमल जैन, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, 1982) __ 11. "सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वइं जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया" -- सूत्रकृतांग, 1/1/2/23 (प्रकाशक - श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान), 1982) __ 12. द्वादश अभिलेख __13. "सवपासंडा बहुसुता च असुकलाणागमा च असु" -- वही। ___14. "अयं च एतसफल य आत्पपासंडवढी च होति धंमस च दीपना" -- वही ___ 15. अशोक, पृ. 101 For Private 13ersonal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू एवं जैनपरम्परा में समाधिमरण : एक समीक्षा - डॉ. अरुण प्रताप सिंह - समाधिमरण जैनधर्म का एक पारिभाषिक शब्द है जिसका तात्पर्य है क्रमशः आहार- पानी आदि त्यागकर शान्तिपूर्वक अपने जीवन का अन्तिमकाल व्यतीत करना। ऐसा साधक समभाव में स्थित और मृत्यु की आकांक्षा से भी रहित होता है • यही इस व्रत की प्रमुख विशिष्टता है । सामान्यजन समाधिमरण से तात्पर्य आत्महत्या से लेते हैं जो पूर्णतया भ्रममूलक है। आत्महत्या में मृत्यु की आकांक्षा ही सर्वोत्कृष्ट होती है, जबकि समाधिमरण मृत्यु की आकांक्षा से रहित होता है । आत्महत्या सद्यः जात उद्वेग का परिणाम है जबकि समाधिमरण सुविचारित अध्यवसाय का । समाधिमरण के प्रश्न पर हिन्दूधर्म और जैनधर्म के तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता. है। जैनधर्म में समाधिमरण की जो विकसित अवधारणा है उसका हिन्दू धर्म में नितान्त अभाव है । समाधिमरण जैनधर्म की एक सुविचारित परम्परा है, जिसके उल्लेख हमें न केवल जैनसाहित्यिक स्रोतों से अपितु अभिलेखीय साक्ष्यों से भी प्राप्त होते हैं। हिन्दूधर्म में साधना में रत साधकों एवं तपस्वियों के उल्लेख तो बहुशः प्राप्त होते हैं, परन्तु मृत्यु की आकांक्षा से रहित जीवन के अन्तिम क्षणों को व्यतीत करने के उदाहरण विरल ही हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वासों के अनुरूप देहत्याग करने के हमें अनेक प्रकरण उसमें प्राप्त होते हैं। हिन्दूधर्म में धार्मिक देहत्याग हिन्दू परम्परा में समाधिमरण के नहीं, अपितु धर्मानुशासित देहत्याग के उल्लेख प्राप्त होते हैं। कालान्तर के हिन्दू धर्माचार्यों ने स्वर्ग (जिसे भ्रमवश वे मोक्ष कहते थे) का सीधा एवं सरल रास्ता धार्मिक विधि से देहत्याग बताया । इस परम्परा के विकास में धर्मसूत्रों एवं पुराणों ने विशेष योगदान दिया । पद्मपुराण (सृष्टि. 60/65 ) के अनुसार जाने या अनजाने कोई गंगा में मरता है, तो वह मरने पर स्वर्ग एवं मोक्ष पाता है । इसी प्रकार स्कन्दपुराण के अनुसार जो पवित्र स्थल में किसी प्रकार प्राण त्याग करता है, उसे आत्महत्या का पाप नहीं लगता और वह वाँछित फल पाता है । कूर्मपुराण ने चार प्रकार की आत्महत्याओं का उल्लेख किया है और यह आश्वासन दिया है कि इससे सहस्रों वर्षों तक स्वर्गलोक तथा उत्तम फलों की प्राप्ति होगी । आत्महत्या के प्रकार निम्न हैं 1. सूखे उपलों की धीमी अग्नि में अपने को जलाना, 2. गंगा-यमुना के संगम में डूब मरना, 3. गंगा की धारा में सिर नीचे कर जल पीते हुए मर जाना, 4. अपने शरीर के मांस को काट-काट कर पक्षियों को देना । पुराणों के अतिरिक्त गंगावाक्यावली, तीर्थ चिन्तामणि एवं स्थलीसेतु में भी प्रयाग में इस विधि से देहत्याग करने की अनुमति दी गई है । यद्यपि उन्होंने यह प्रशंसनीय व्यवस्था दी कि वृद्ध माता-पिता एवं युवा पत्नी 1 -- Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू एवं जैनपरम्परा में समाधिमरण : एक समीक्षा का परित्याग कर एवं बच्चों को उनके भाग्य पर छोड़कर देहत्याग नहीं किया जा सकता है। त्रिस्थलीसेतु में देहत्याग के पूर्व कुछ व्यवस्थाएँ दी गई हैं जिनका अनुपालन आवश्यक है। धार्मिक विधि से देहत्याग करने वाले को सर्वप्रथम प्रायश्चित्त करना चाहिए। उस दिन उसे उपवास करना चाहिए एवं लिखित रूप में यह संकल्प करना चाहिए कि वह इस विधि से मरना चाहता है। उसे विष्णु का ध्यान करते हुए जल में प्रवेश करना चाहिए। अग्निपुराण (111/13 ) के अनुसार प्रयाग में जो व्यक्ति वट के मूल में या संगम पर प्राण त्याग करता है वह विष्णु के नगर में पहुँचता है एवं कूर्मपुराण के अनुसार ऐसा व्यक्ति सभी स्वर्ग लोकों का अतिक्रमण कर रुद्रलोक में जाता है। जैनधर्म में समाधिमरण समाधिमरण की अवधारणा वट वृक्ष या धार्मिक नदियों के तटों पर बलपूर्वक देहत्याग करने के ठीक विपरीत है। समाधिमरण की प्रक्रिया शान्तमन से क्रमशः सम्पन्न की जाती है। उपासकदशांग में समाधिमरण की जो प्रक्रिया दी गई है वह इसके अर्थ को समझने में सहायक सिद्ध होगी। उपासक आनन्द सर्वप्रथम पाँच अणुव्रत, 3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रत -- कुल 12 प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करता है। आनन्द इन श्रावक धर्मों का पूरे चौदह वर्ष तक श्रद्धा के साथ पालन करता है। 15वें वर्ष में छः माह बीतने पर अपने सम्पूर्ण व्यापारिक कार्यों से निवत्त होकर एवं गृह का उत्तरदायित्व बड़े पुत्र को सौंप कर ग्यारह उपासक प्रतिमाओं को धारण करता है। इन उपासक प्रतिमाओं को पूर्ण करने के उपरान्त ही वह समाधिमरण का व्रत ग्रहण करता है। समाधिमरण की अवधारणा को पूर्ण हृदयंगम करने के लिए उपासक प्रतिमाओं के स्वरूप को समझना अनिवार्य है। यहाँ प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिकृति न होकर प्रतिज्ञा या नियम लेना है जिसके अनुसार साधक अपनी साधना का उत्तरोत्तर विकास करता हुआ साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता है। इन प्रतिमाओं में प्रत्येक प्रतिमा का अपना एक निश्चित समय होता है और जब वह उसे पूर्ण कर लेता है तब आगे की प्रतिमा को स्वीकार करता है। साधक स्वीकृत प्रतिमा के नियमों का पालन करने के साथ-साथ पिछली प्रतिमाओं के नियमों का भी दृढ़ता के साथ पालन करता है। पहली दर्शन प्रतिमा है जिसका अर्थ दृष्टि या श्रद्धा है। साधक इसमें दृढ़ विश्वास के साथ अपनी आत्मा के विकास के लिए प्रयत्नशील होता है। इस प्रतिमा में शंका या अनास्था का कोई स्थान नहीं होता। दूसरी व्रत प्रतिमा है जिसमें वह पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पूर्वक पूर्ण रूप से पालन करता है। तीसरी सामायिक प्रतिमा है जिसमें साधक प्रतिदिन नियमतः तीन बार सामायिक करता है। समभाव की साधना करता है। चौथे प्रोषध प्रतिमा है जिसमें वह अष्टमी; चतुर्दशी एवं पर्वतिथियों पर उपवास पूर्वक व्रताराधना करता है। पाँचवीं कायोत्सर्ग प्रतिमा है जिसमें वह अपने शरीर, वस्त्र का ध्यान छोड़कर आत्मचिन्तन करता है। छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा है जिसमें वह ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सातवीं सचित्ताहार वर्जन प्रतिमा है जिसमें वह For Private & Persoal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह सचित्त आहार अर्थात् जीवनयुक्त वनस्पति आदि के आहार का सर्वथा त्याग कर देता है । आठवीं स्वयं आरम्भ वर्जन प्रतिमा है इसमें वह किसी भी प्रकार की हिंसा या पापाचरण नहीं करता है तथा नवीं भृतक प्रेष्यारम्भ वर्जन प्रतिमा है जिसमें साधक न स्वयं आरम्भ अर्थात् हिंसा करता है और न दूसरों से करवाता है। दसवीं उद्दिष्ट भक्त वर्जन प्रतिमा है जिसमें वह उद्दिष्ट अर्थात् अपने लिए तैयार किये गये भोजन का परित्याग कर देता है। ग्यारहवीं एवं अन्तिम श्रमणभूत प्रतिमा है जिसमें साधक श्रमण या साधु जैसा जीवन जीता है, वह भिक्षु की तरह वेश एवं पात्र भी रखने लगता है । इन प्रतिमाओं का पालन अत्यन्त दृढ़ व्यक्तित्व का परिचायक है। इस तपश्चर्या से आनन्द का शरीर सूख गया तथा शरीर में इतनी क्षीणता आ गई कि उभरी हुई नाड़ियाँ दीखने लगी। 4 इस अवस्था में आनन्द के मानसिक भावों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन की जरूरत है । इतना कृश होने पर भी उसके मन या चित्त में कोई चिन्ता या उद्वेग नहीं है। इसमें धर्मोन्मुख उत्साह है ( उत्थान ), कार्य करने की शक्ति है (कम्म), शारीरिक शक्ति है (बल), आन्तरिक ओज है (वीर्य), पुरुषोचित पराक्रम है ( पुरिसक्कार परक्कम), धर्म के प्रति आस्था है (श्रद्धा), सहिष्णुता है (धृति), एवं मुमुक्षुभाव (संवेग) है। 8 प्रसन्नचित्त एवं अन्तः शक्ति की दृढ़ता के साथ यह समाधिमरण का संकल्प लेता है। समीक्षा समाधिमरण के सम्बन्ध में हिन्दू एवं जैनपरम्परा में स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता है । हिन्दू परम्परा में धार्मिक आत्महत्या तात्कालिक एवं स्वर्ग-सुख को प्राप्त करने के लिए की जाती है। धर्मशास्त्रों एवं पुराणों ने देहत्याग करने वाले पुरुष को सहस्रों वर्षों तक स्वर्ग-सुख भोगने का सुखद आश्वासन दिया है। नदियों के तटों पर प्राणों की आहुति देने वाला व्यक्ति पहले से कोई आध्यात्मिक तैयारी नहीं किये रहता है। उसे प्रायश्चित्त आदि करने का विधान किया गया है, परन्तु यह विधान प्राणोत्सर्ग के दिन ही रखा गया है। इसके ठीक विपरीत जैनधर्म में समाधिमरण की एक लम्बी प्रक्रिया है । वह पूर्व तैयारी के साथ इस व्रत को स्वीकार करता है जिसमें मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग-सुख का कोई आश्वासन नहीं था । ऐतिहासिक दृष्टिकोण से व्याख्या करने पर यह स्पष्ट होता है कि हिन्दूधर्म की अपेक्षा जैनधर्म में समाधिमरण का स्वरूप विकसित एवं सुविचारित यद्यपि प्राचीनतम वैदिक प्राचीन साहित्य में कहीं भी धार्मिक विधि से देहत्याग का उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु जैनधर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग में ऐसा उल्लेख है । उपासकदशांग में आनन्द का कथानक भगवान महावीर के समय का बताया गया है। यहाँ कहा गया है कि महावीर के विचरणकाल में ही आनन्द ने समाधिमरण का व्रत लिया था । " किन्तु ऐतिहासिक समीक्षा इस ग्रन्थ को परवर्ती सिद्ध करती है। फिर भी यह दूसरी-तीसरी शती का अवश्य है । समाधिमरण सम्बन्धी जैन अभिलेखीय साक्ष्य 5वीं शताब्दी के उपरान्त प्राप्त होते हैं। छठी शताब्दी के लेखों में ही सर्वप्रथम समाधिमरण के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसके पूर्व के किसी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू एवं जैनपरम्परा में समाधिमरण : एक समीक्षा अभिलेख में हमें समाधिमरण का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। यद्यपि तमिलनाड़ में कुछ गुफाओं में समाधिमरण प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के ब्राहमी लिपि में मात्र नाम निर्देश है। हिन्दू परम्परा में भी धार्मिक देहत्याग और आत्महत्या सम्बन्धी कथानक बाद के हैं। ईस्वी पर्व के किसी भी हिन्दू साहित्य में हमें ऐसी परम्परा के दर्शन नहीं होते। गुप्तकालीन एवं उसके सद्यः पूर्व के साहित्य में धार्मिक विधि से देहत्याग या आत्महत्या के उल्लेख मिलते हैं यह काल ही धार्मिक कर्मकाण्डों का था जब उससे सम्बन्धित नियमों-उपनियमों को अत्यन्त विस्तृत रूप प्रदान किया गया। मेरी समझ से तो यह धार्मिक विकृति का काल था। धर्म के मूल तत्त्वों की अवहेलना कर उनके स्थान पर स्थूल पक्षों को महत्त्व प्रदान किया गया। यह दर्भाग्य था कि उपनिषदों एवं गीता एवं उपनिषदों के तत्त्वज्ञान सम्बन्धी उन वाक्यों को जिनमें ज्ञानाग्नि द्वारा सर्व कर्मों के नाश की बात कही गई थी, कालान्तर के हिन्दू धर्माचार्यों ने अत्यन्त ही स्थूल रूप से ग्रहण किया और कर्मों के नाश की नहीं अपितु शरीर के ही नाश की बात सोची। जैनधर्म के सम्बन्ध में यही बात सत्य है। जैनधर्म के आचार्यों ने संवर एवं निर्जरा के द्वारा कर्मों के नाश एवं उनके आगमन के द्वार को निरुद्ध करने की अवधारणा विकसित किया। यद्यपि यह नहीं भूलना चाहिये कि धार्मिक उन्माद से शरीर का नाश अन्ततः आत्मा के विकास के मार्ग को अवरुद्ध करता है। शरीर ही वह माध्यम है जिससे आत्मा का विकास सम्भव है। उस माध्यम को ही नष्ट कर मोक्ष प्राप्ति की कल्पना करना मृगमरीचिका के समान थी। हिन्दू धर्माचार्यों ने धार्मिक देहत्याग को स्वर्ग या मोक्ष का हेतु बताया है। परन्तु यह सिद्धान्त प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित मोक्ष की अवधारणा से मेल नहीं खाता। प्रायः सभी वैदिक ग्रन्थ मोक्ष हेतु अज्ञान के नाश की चर्चा करते हैं। ज्ञान रूपी अग्नि द्वारा कर्ममलों को जला देने के उपरान्त ही मोक्ष की सम्भावना को स्वीकार किया जा सकता है। इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में जो वर्णन है, उससे भी यही तथ्य स्पष्ट होता है। "सम्यग-दर्शनचारित्राणिमोक्षमार्ग" का उद्घोष करने वाली जैनपरम्परा में मोक्ष प्राप्ति करने का साधन तो शरीर ही है। शरीर के माध्यम से ज्ञान, दर्शन, चारित्र तीनों का सम्यक्-रूपेण पालन करने वाला पथिक ही मोक्ष-पथ का अनुगामी हो सकता है, अन्य कोई नहीं। समाधिमरण का तात्पर्य देहोत्सर्ग नहीं है अपितु देह के प्रति ममत्व का त्याग है। जब तक पूर्ण निर्ममत्व नहीं आता मुक्ति असम्भव है। मात्र समाधिमरण का व्रत ग्रहण कर लेने से मुक्ति नहीं होती है। - प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास विभाग, एस. बी. डिग्री कालेज, सिकन्दरपुर, बलियाँ 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ 1. हम इसके लिए पूर्णरूप से 'धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 3, पृ. 1331-36 भारतरत्न पी. वी. काणे के आभारी हैं। प्र.-- हिन्दी समिति, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन, लखनऊ, द्वि. सं. 1975। उपासकदशांग, आगम प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, व्यावर (राज.), 1980, पृ. 63 3. "तए णं से आणंदे समणोवासए इमेणं एमारुवेण उरालेणं, विउलेणं, पयत्तेणं पग्गहियेणं तवोकम्मेण सुक्के जाव (लुक्खे, निम्मंसे, अटूठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे ) धमणिसंतए जाए", वही, पृ. 69 5. "तं अत्थि ता में उठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे, सद्धा, धिई, संवेग" -- वही, पृ. 70 6. "जाव य मे धम्मायरिये, धम्मोवएसए, समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ" -- वही, पृ. 70 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम - डॉ. अशोक कुमार सिंह भारतीय चिन्तन में कर्मसि ान्त का अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत की सभी दार्शनिक परम्पराओं में कर्मसिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध होता है। जैन दर्शन में कर्मसिद्धान्त का जो सुव्यवस्थित एवं सुविकसित रूप प्राप्त होता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। श्रमण परम्परा के विश्रुत विद्वान पद्मभूषण पं. दलसुख भाई मालवणिया का यह कथन अत्यन्त प्रासंगिक है -- "कर्मवाद की जैसी विस्तृत व्यवस्था जैनों में दृष्टिगोचर होती है वैसी विस्तृत व्यवस्था अन्यत्र दुर्लभ है।"] कर्मसिद्धान्त का विकास वस्तुतः विश्व-वैचित्र्य के कारणों की खोज में ही हुआ है। विश्व-वैचित्र्य के कारणों की विवेचना के रूप में श्वेताश्वतर उपनिषद् में काल, स्वभाव, नियति, यदच्छा, पुरुषार्थ आदि का उल्लेख हुआ है। किन्तु विचारकों को विश्व-वैचित्र्य की व्याख्या करने वाले ये सभी सिद्धान्त सन्तोष प्रदान नहीं कर सके। प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में (सूत्रकृतांग) भी विश्व-वैचित्र्य के कारणता सम्बन्धी इन विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षा की गई और इन सिद्धान्तों की निहित अक्षमता को ध्यान में रखते हुए श्रमण परम्परा में कर्मसिद्धान्त का आविर्भाव हुआ। इस सिद्धान्त में सर्वप्रथम यह माना गया कि वैयक्तिक विभिन्नताओं, व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूति और सदसद् प्रवृत्तियों में उसकी स्वाभाविक रुचि के कारण व्यक्ति के अपने ही पूर्वकर्म होते हैं। यह मान्यता निर्गन्थ, बौद्ध और आजीविक परम्परा में समान रूप से स्वीकृत रही। न्याय- वैशेषिक जैसे प्राचीन दर्शनों ने भी ईश्वर-कर्तृत्व की अवधारणा को स्वीकार करते हुए भी वैयक्तिक विभिन्नता के कारण की व्याख्या के रूप में ईश्वर के स्थान पर अदृष्ट या कर्म को ही प्रधानता दी है। फिर भी यह सुनिश्चित है कि श्रमण परम्पराओं में कर्मसिद्धान्त को जो प्रधानता मिली वह ईश्वरवादी परम्पराओं में सम्भव नहीं थी क्योंकि वे कर्म के ऊपर ईश्वर की सत्ता को स्थापित कर रही थीं। प्राचीन भारत की श्रमण परम्पराओं में आजीविक परम्परा विलुप्त हो चुकी है और उसका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है अतः उसमें कर्मसिद्धान्त किस रूप में था यह कह पाना कठिन है। बौद्धों ने यद्यपि जगत्- वैचित्र्य की व्याख्या के रूप में व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों को ही कारण माना है फिर भी उनकी दृष्टि में कर्म चित्त- सन्तति का ही परिणाम रहा। अतः उन्होंने कर्म को चैतसिक ही माना जबकि निर्गन्थ परम्परा ने कर्म के चैतसिक और भौतिक दोनों ही पक्षों को स्वीकार कर एक सुव्यवस्थित कर्मसिद्धान्त की विवेचना प्रस्तुत की। प्रस्तुत निबन्ध में हमारा विवेच्य जैन कर्म सिद्धान्त की व्याख्या न होकर मात्र इतना ही है कि जैन परम्परा में यह सिद्धान्त क्रमिक रूप में किस प्रकार विकसित हुआ। जैन-परम्परा में 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम कर्मसिद्धान्त के क्रमिक विकास के अध्ययन का आधार उसका आगम साहित्य ही हो सकता है। जैन आगम साहित्य अर्धमागधी और शौरसेनी आगमों के रूप में दो भागों में विभक्त है। उसमें भी अर्धमागधी आगम के कुछ ग्रन्थ शौरसेनी की अपेक्षा प्राचीन हैं। कर्मसिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को इन ग्रन्थों के काल के आधार पर ही समझा जा सकता है। इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यद्यपि जैन परम्परागत रूप में आगमों को और विशेष रूपसे अंग-आगमों को अर्थ के रूप में महावीर की और शब्द के रूप में गणधरों की रचना मानते हैं किन्तु विद्वत्समुदाय अनेक कारणों से सभी आगमों यहाँ तक कि सभी अंग आगमों को भी एक काल की रचना नहीं मानता। अर्धमागधी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध माना गया है। विद्वान इसे लगभग ई.पू. चतुर्थ शताब्दी की रचना मानते हैं। इसके समकालीन अथवा किंचित परवर्ती ग्रन्थों में सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन का क्रम आता है। ये तीनों ग्रन्थ ई.पू. लगभग तीसरी शताब्दी की रचना के रूप में मान्य हैं। प्रस्तुत विवेचन में हम इन ग्रन्थों को ही आधार बनाकर चर्चा करेंगे। शौरसेनी आगम साहित्य में कषाय पाहुड और 'षट्पण्डागम अपेक्षाकृत प्राचीन माने जाते हैं किन्तु ये ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पर्व के नहीं हैं क्योंकि इनमें कर्मसिद्धान अपने सुव्यवस्थित रूप में उपलब्ध है। यह माना जाता है कि पापित्य परम्परा के आगमों में जिन्हें हम पूर्वो के रूप में जानते हैं 'कर्मप्राभूत नामक एक ग्रन्थ था जिससे कर्म, प्रकृति आदि कर्म साहित्य के स्वतन्त्र ग्रन्थों का विकास हुआ। किन्तु कर्मसिद्धान्त के ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की दृष्टि में ई.सन की 5वीं शताब्दी के बाद के ही माने गये हैं। चूँकि हमारा उददेश्य कर्मसिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को देखना है अतः इन ग्रन्थों को विवेचना का आधार न बनाकर अर्धमागधी आगम के कुछ प्राचीन ग्रन्थों को ही अपनी विवेचना का आधार बनायेंगे। आधारांग की कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी विभिन्न अवधारणायें सामान्यतया कर्मशब्द का अर्थ प्राणी की शारीरिक अथवा चैतसिक क्रिया माना गया है। किन्तु कर्मसिद्धान्त की व्याख्या में इस शारीरिक क्रिया या मानसिक क्रिया के कारण की और उसके परिणाम की व्याख्या को प्रमुखता दी गयी अतः कर्म के तीन अंग बने -- 1. क्रिया का प्रेरक तत्त्व 2. क्रिया 3. क्रिया का परिणाम जहाँ बौद्ध परम्परा ने क्रिया के प्रेरक तत्त्व के रूप में चैतसिक वत्तियों को ही व्याख्यायित किया वहाँ जैन परम्परा ने क्रिया के मूल में रही हुई चैतसिक वृत्ति के साथ-साथ उसके परिणाम पर भी विचार किया। इस प्रकार कर्म की अवधारणा को एक व्यापकता प्रदान की। किसी क्रिया के मूल में रहे हुए चैतसिक भावधारा को पारिभाषिक दृष्टि से भावकर्म की संज्ञा दी गई। किन्तु कोई भी क्रिया चाहे वह चैतसिक हो या दैहिक अपने परिवेश में एक हलचल अवश्य उत्पन्न करती है। इसी आधार पर यह माना गया कि इन क्रियाओं के परिणाम स्वरूप For Private &ZAlsonal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अशोक कुमार सिंह कर्मद्रव्य आकर्षित होता है और आत्मा को बन्धन में डाल देता है। जैन परम्परा में किसी क्रिया-विशेष के द्वारा जिस पौद्गलिक द्रव्य का आत्मा की ओर संसरण होता है उसे द्रव्य कर्म कहा जाता है। आचारांग में द्रव्यकर्म और भावकर्म जैसे सुस्पष्ट शब्द का प्रयोग हमें नहीं मिलता किन्तु कर्म के चैतसिक पक्ष के साथ-साथ हमें कर्मशरीर और कर्मरज' जैसी अवधारणायें स्पष्ट रूप से मिलती हैं। वस्तुतः यही कर्मशरीर और कर्मरज द्रव्यकर्म की अवधारणा के आधार बने हैं। आचारांग स्पष्ट रूप से कर्मरज और उसके आसव की बात करता है । इसका तात्पर्य यह है कि वह कर्म के भौतिक पक्ष या द्रव्यपक्ष को स्वीकार करता है । अतः हम कह सकते हैं कि द्रव्यकर्म और भावकर्म की स्पष्ट अवधारणा भले ही नहीं रही हो उनके बीज के रूप में कर्मरज और कर्मशरीर की अवधारणायें उपलब्ध थीं । आचारांग में अन्यत्र 'जो गुण है वही आवर्त हैं और 'जो आवर्त है वही कहकर सांसारिकता के कारण के रूप में गुणों की चर्चा की गई है और यहाँ आचारांगकार का गुणों से तात्पर्य प्रकृति के तीन गुणों से ही रहा हुआ है। ये गुण प्राचीन सांख्य दर्शन में भौतिक तत्त्व के रूप में स्वीकृत हैं और उनकी प्रकृति से एकात्मकता प्रतिपादित की गई है। अतः इससे भी यही फलित होता है कि आचारांगकार के समक्ष कर्म का पौद्गलिक पक्ष स्पष्ट रूप से उपस्थित था चाहे उस काल तक द्रव्य कर्म और भाव कर्म जैसी पारिभाषिक शब्दावली का विकास न हुआ हो । है |5 यह गुण कर्म को संसार - परिभ्रमण या बन्धन का कारण मानना यह सिद्धान्त भी आचारांग के काल तक स्पष्ट रूप से अस्तित्व में आ चुका था । आचारांगकार' स्पष्ट रूप से यह कहता है कि जो आत्मा की पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है और कर्मवादी है। इस प्रकार आचारांग की दृष्टि में पुनर्जन्म की अवधारणा के स्पष्ट तीन फलित हैं-- आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवादं । पुनः कर्मवाद भी आत्मा और संसार की सत्ता को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है अतः कर्मवाद के लिए आत्मा और संसार का अस्तित्व अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में आचारांग के काल में कर्मवाद, पुनर्जन्म की अवधारणा के साथ संयोजित कर लिया गया था । आचारांग की एक विशेषता यह भी परिलक्षित होती है कि वह कर्म को हिंसा या आरम्भ के साथ संयोजित करता है। उसकी दृष्टि में कर्म या क्रियायें हिंसा के साथ जुड़ी हुई हैं और वे संसार के परिभ्रमण का कारण हैं। इसीलिए उसमें यह कहा गया है कि जो क्रिया (आरम्भ ) के स्वरूप को नहीं जानता है वह संसार की विविध जीवयोनियों में परिभ्रमण करता है किन्तु जो कर्म या हिंसा के स्वरूप को जान लेता है वह परिज्ञात कर्मा मुनि सांसारिक जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठता है । इस कथन का स्पष्ट तात्पर्य है कि कर्म या क्रिया बन्धन का कारण है। कर्म या क्रिया से आसव होता है और वह आस्रव बन्धन का कारण बनता है। इसीलिए आचारांगकार स्पष्ट रूप से यह कहता है कि जो भी सांसारिक विविधतायें हैं वे कर्म से उत्पन्न होती हैं। आचारांग में अष्टकर्म प्रकृतियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कर्म की शुभाशुभता के आधार को लेकर भी आचारांग में स्पष्ट रूप से कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं होता For Private 82ersonal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम किन्तु आचारांगकार कर्म और अकर्म तथा पापकर्म और पुण्य की चर्चा अवश्य करता है। आचारांग में अकम्मस्स', निक्कमदंसी, शब्दों का प्रयोग यह बताता है कि आचारांगकार के समक्ष यह अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी कि सभी कर्म बन्धक नहीं होते हैं। पुण्य (शभ। और पाप (अशुभ) कर्म के साथ-साथ अकर्म की यह अवधारणा हमें गीता में भी उपलब्ध होती है। चाहे आचारांग में कर्म प्रकृतियों की चर्चा न हो परन्तु कर्म-शरीर की चर्चा है. -- धुणे . कम्मसरीरग11 कहकर दो तथ्यों की ओर संकेत किया गया है -- एक तो यह कि कर्म से या कर्मवर्गणा के पुद्गलों से शरीर की रचना होती है। उस शरीर को तप आदि के माध्यम से धुनना सम्भव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग में कर्म की पौद्गलिकता, कर्मपुद्गलों का आसव और उसका आत्मा के लिए बन्धन-कारक होना -- ये अवधारणायें स्पष्ट रूप से अस्तित्व में आ गयी थीं। इसके साथ ही कर्म से विमुक्ति के लिए संवर और निर्जरा की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं। दूसरे शब्दों में आचारांग में कर्म, कर्मबन्ध, कर्मआसव, कर्म-निर्जरा ये शब्द प्राप्त होते हैं। कर्मबन्ध के कारण के रूप में आचारांग में मोहहिंसा12 और राग-द्वेष की चर्चा भी उपलब्ध होती है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मोह के कारण ही प्राणी गर्भ और मरण को प्राप्त होता है। जो कर्म मोह और राग-द्वेष से निःसृत नहीं है वे कर्म भी यदि हिंसा या परपीड़ा के साथ जुड़े हुए हैं तो भी उनसे बन्ध होता ही है।14 आचारांग में कहा गया है कि गुण समितिवान अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर भी कुछ प्राणी परिताप प्राप्त करते हैं। मुनि के इस प्रकार के कर्म द्वारा उसे इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध होता है। इसका तात्पर्य यह है कि आचारांगकार की दृष्टि में राग-द्वेष और प्रमाद की अनुपस्थिति में भी यदि हिंसा की घटना घटित होती है तो उससे कर्म बन्ध तो होता ही है। इसका तात्पर्य यह है कि आचारांग में ईर्यापथिक कर्म की जो अवधारणा विकसित हुई है उसके भी मूलबीज उपस्थित हैं। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बन्धन के मिथ्यात्व आदि पाँच कारणों की चर्चा, अष्टकर्म प्रकृतियों की चर्चा, कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा आचारांग के काल तक अनुपस्थित रही होगी। आचारांग में कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह उपलब्ध होता है कि एक ओर आचारांगकार किसी के निमित्त से होने वाली हिंसा की घटना से ही अप्रमत्त मुनि को इस जन्म में वेदनीय कर्म का बन्ध मानता है किन्तु वह दूसरी ओर इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करता है कि बाह्य घटनाओं का अधिक मूल्य नहीं है। वह स्पष्ट रूप से यह कहता है कि 'जो आस्रव हैं वे ही परिश्रव हैं, अर्थात् कर्म निर्जरा के रूप में परिणत हो जाते हैं जो परिश्रव अर्थात् के कर्मनिर्जरा के हेतु हैं वही आसव के हेतु बन जाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि कौन सा कर्म आसव के रूप में और कौन सा कर्म परिश्रव के रूप में रूपान्तरित होगा इसका आधार कर्म का बाह्य पक्ष न होकर कर्ता की मनोवृत्ति ही होगी। For Private & Ional Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अशोक कुमार सिंह इस प्रकार आचारांग कर्मबन्ध और कर्म निर्जरा में घटना के बाह्य स्वरूप के स्थान पर कर्ता के मनोभावों को प्रधानता देता है। सूत्रकृतांग की कर्म सम्बन्धी अवधारणा : आचारांग की अपेक्षा सूत्रकृतांग के प्रथम श्रृंतस्कन्ध को विद्वानों ने किंचित परवर्ती माना है। कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि आचारांग की अपेक्षा सूत्रकृतांग में कर्म सम्बन्धी अवधारणाओं का क्रमिक विकास हुआ है। वह कहता है कि प्राणी इस संसार में अपने-अपने स्वकृत कर्मों के फल का भोग किये बिना उनसे मुक्त नहीं हो सकता है। इस सन्दर्भ में सूत्रकृतांगकार की यह स्पष्ट मान्यता है कि जो व्यक्ति पूर्व में जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार वह बाद में फल प्राप्त करता है। व्यक्ति का जैसा कर्म होगा वैसा ही उसे फल प्राप्त होगा। सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से इस बात का भी प्रतिपादन है कि व्यक्ति अपने ही किये कर्मों का फल भोगता है। व्यक्ति के सुख-दुःख का कारण उसके स्वकृत कर्म हैं अन्य व्यक्ति या परकृत कर्म नहीं।19 कर्मबन्ध के कारणों की चर्चा के रूप में सूत्रकृतांग में हमें दो महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं। सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में तो परिग्रह या आसक्ति को ही हिंसा या दुष्कर्म का एकमात्र कारण माना गया है।29 आगे चलकर प्रथम अध्ययन के द्वितीय उददेशका में यह कहकर कि अन्तःकरण में व्याप्त लोभ, समस्त प्रकार की माया, अहंकार के विविध रूप और क्रोध का परित्याग करके ही जीव कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार सूत्रकृतांग में चारों कषायों को भी कर्मबन्धन के कारण के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। बन्धन के कारणों की इस चर्चा में सूत्रकृतांग में प्रकारान्तर से प्राणाति पात, मृषावाद, अदत्तादान और मैथुन से अविरति को भी कर्मबन्धन का कारण माना है। इस प्रकार चाहे स्पष्ट रूप से नहीं परन्तु प्रकारान्तर से उसमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय को योग के साथ बन्धन का कारण मान लिया गया है। अतः बन्धन के जिन पाँच कारणों की चर्चा परवर्ती साहित्य में उपलब्ध है उसका मूलबीज सूत्रकृतांग में उपलब्ध है। यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि कषयों की यह चर्चा 'जे कोहं दंस्सि से माणं दस्सि' आदि के रूप में आचारांग में आ गयी है। सूत्रकृतांग की विशेषता यह है कि वह इन कारणों से कर्मबन्धन को स्वीकार करता है।23 कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में सूत्रकृतांग इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि व्यक्ति स्वकृत कर्मों के फल का ही भोक्ता होता है। वह न तो अपने कर्मों का विपाक दूसरों को दे सकता है न दूसरों के कर्मों का विपाक स्वयं प्राप्त कर सकता है। ____कर्म के द्रव्य और भावपक्ष की इन नामों से चर्चा इसमें नहीं मिलती है किन्तु कर्मरज24 और कर्म का त्वचा के रूप में त्याग जैसे उल्लेखों में स्पष्ट रूप से हमें लगता है कि उसमें कर्म के द्रव्य पक्ष की स्वीकृति रही हुई है। पुनः 'प्रनाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म है यह . कहकर सूत्रकार ने कर्म के भावपक्ष को भी स्पष्टतः स्वीकार कर लिया है। कर्म के पुण्यपाप, कर्म और अकर्म, कर्म के ऐसे तीन पक्षों की चर्चा भी सूत्रकृतांग में उपलब्ध होती है। For Private Ega sonal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम WisheriXHAchieve जहाँ तक कर्मप्रकृतियों की चर्चा का प्रश्न है सूत्रकृतांग में मात्र दर्शनावरण27 का उल्लेख अवश्य मिलता है। इससे ऐसा लगता है कि सूत्रकृतांग में कर्मप्रकृतियों की चर्चा के मूलबीज धीरे-धीरे प्रकट हो रहे थे। कर्म के ईर्यापथिक28 और साम्परायिक29 इन दो रूपों की चर्चा का प्रश्न अकर्म और कर्म से जुड़ा हुआ है किन्तु इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हमें सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में मिलता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तेरह क्रियास्थानों की चर्चा के सन्दर्भ में ई-पथिक का उल्लेख आया है। कर्म की दस अवस्थाओं में से हमें उदय30, उदीरणा31 और कर्मक्षय32 की चर्चा मिलती है। कर्मनिर्जरा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि तप के द्वारा कर्मक्षय सम्भव है और सम्पूर्ण कर्म का क्षय हो जाने पर परम सिद्धि प्राप्त होती है।33 इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा कर्मसिद्धान्त का क्रमिक विकास हुआ है। ऋषिभाषित की कर्मसम्बन्धी अवधारणायें : कर्मसिद्धान्त के इस क्रमिक विकास की चर्चा में हम यह देखते हैं कि आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित में कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था में मिलता है। कर्म, अकर्म34 की चर्चा के साथ-साथ शुभाशुभ कर्म की चर्चा 5 तथा शुभाशुभ कर्मों से अतिक्रमण36 की चर्चा ऋषिभाषित में ही. सर्वप्रथम मिलती है। ऋषिभाषित ही ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्वर्ण और लोह-बेड़ी की उपमा देकर37 पुण्य-पाप कर्म से अतिक्रमण की चर्चा है। सर्वप्रथम अष्टकर्म ग्रन्थि38 की चर्चा करने वाला भी यही ग्रन्थ है। ऋषिभाषित में कर्म के 5 आदान या कारण स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। इसमें यद्यपि कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा नहीं है फिर भी सोपादान, निरादान, विपाकयुक्त उपक्रमित और अनुदित कर्मों का विवरण उपलब्ध होता है। साथ ही उपक्रमित, उत्करित, बद्ध, स्पष्ट और निधत्त कर्मों के संक्षेप एवं क्षय होने एवं निकाचित कर्मों के अवश्य ही भोगने का उल्लेख है। ऋषिभाषित इस बात पर स्पष्ट रूप से बल देता है कि कोई व्यक्ति अपने स्वकृत शुभाशुभ कर्मों का ही फल भोगता है।42 इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित के काल तक जैन कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था को प्राप्त हो जाता है। भले ही इसमें अष्टकर्म प्रकृतियों के अलग-अलग नामों का उल्लेख न हो किन्तु अष्टकर्म ग्रन्थि का उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि कर्मों की अष्टमूल प्रकृतियों की चर्चा उस युग तक आ चुकी थी। यदि हम कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता हे कि ऋषिभाषित आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा पर्याप्त रूप से विकसित ग्रन्थ है। किन्तु कुछ विद्वानों ने इसे आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का समकालीन माना है इस सन्दर्भ में एक विकल्प यह माना जा सकता है कि ऋषिभाषित मुख्य रूप से पापित्य परम्परा का ग्रन्थ रहा हो और पार्वापत्य परम्परा में कर्मसिद्धान्त की विकसित चर्चा भी उपलब्ध हुई है। क्योंकि इस ग्रन्थ में कर्मसिद्धान्त का जो For Private & 24 onal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. अशोक कुमार सिंह विकसित रूप मिलता है वह मुख्यरूप से इसके 'पार्श्व नामक अध्ययन में उपलब्ध होता है। साथ ही कर्मसिद्धान्त के चैतसिक पक्ष और कर्मसन्तति की विशेष चर्चा उस ग्रन्थ में पायी जाती है, वह भी मुख्य रूप से महाकश्यप सारिपुत्र, वज्जिपुत्र आदि बौद्ध ऋषियों के उपदेशों के रूप में ही है। इसलिए यह सम्भावना पूरी तरह से असत्य नहीं हो सकती कि पापित्य परम्परा में महावीर की अपेक्षा एक विकसित कर्मसिद्धान्त उपलब्ध था। उत्तराध्ययन की कर्मसम्बन्धी अवधारणा : अंग आगम साहित्य में आचारांग के पश्चात् स्थानांग, समवायांग और भगवती सूत्र ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें कर्मसिद्धान्त का विकसित रूप उपलब्ध होता है। किन्तु विद्वानों के अनुसार इन तीनों ग्रन्थों में परवर्तीकाल की सामग्री को अन्तिम वाचना के समय संकलित कर लिया गया। इसलिए कर्मसिद्धान्त के विकास की दृष्टि से इन ग्रन्थों की चर्चा न कर उत्तराध्ययन में उपलब्ध कर्म सम्बन्धी विवरणों की चर्चा करना चाहेंगें। उत्तराध्ययन सूत्र में 33वें अध्ययन को छोड़कर अन्य अध्ययनों में जो कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी चर्चायें मिलती हैं वे आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा किंचित विकसित प्रतीत होती है। किन्तु उनमें उन्हीं सब तथ्यों की चर्चा है जो सूत्रकृतांग में उपलब्ध होती है। कर्म कर्ता का अनुसरण करता है।43 सभी जीवों को अपने कर्म के अनुसार फल भोगना पड़ता है। कामभोगों की लालसा के कारण कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध होता है किन्तु जो रागादि भावों से रहित होता है वह बन्ध में नहीं आता है।45 कर्म अपने शुभाशुभ अध्यवसायों एवं विपाकों के अनुसार पुण्य और पाप रूप होता है।46 ये चर्चायें ऐसी हैं जो प्रकारान्तर से आचारांग और सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है। उत्तराध्ययन में कर्म को कर्म-ग्रन्थि, कर्मकंचुक, कर्मरज, कर्मगुरु, कर्मवन आदि कहने के जो उल्लेख उपलब्ध है। वे सब भी हमारे समक्ष नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं करते हैं। उत्तराध्ययन का मात्र 33वाँ अध्याय ऐसा है जिसमें आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित की अपेक्षा कर्मसिद्धान्त के विकसित रूप मिलते हैं। इस अध्याय की प्राचीनता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है फिर भी यह अध्याय भी ई.पू. का ही माना जाता है। ऋषिभाषित में जो अष्टकर्मग्रन्थि का उल्लेख आया है,48 इसकी भी विस्तृत व्याख्या उत्तराध्ययन में उपलब्ध है। आगम साहित्य में अष्टमूल प्रकृतियों और उनके अवान्तर भेदों की चर्चा करने वाला यह प्रथम ग्रन्थ है। सम्भवतः उत्तराध्ययन में ही सर्वप्रथम अष्टकर्म प्रकृतियों को घाती और अघाती कर्म में वर्गीकृत किया गया है। इसमें ज्ञानावरणीय की 5, दर्शनावरणीय की 9, वेदनीय की दो, मोहनीय की दो, आयुष्य की चार, नाम कर्म की दो, गोत्र की दो और अन्तराय कर्म की पाँच उत्तरकर्म प्रकृतियों का उल्लेख है।49 उत्तर कर्मप्रकृतियों के विवरण की विशेषता यह है कि दर्शनावरणीय की उत्तर प्रकृतियों के क्रम में आज की दृष्टि से अन्तर है। वेदनीय की साता-असाता में से दोनों के अनेक भेद बताये गये हैं। मोहनीय कर्म के दर्शन एवं चारित्र मोहनीय दो भेदों में चारित्र मोहनीय के उपभेद नोकषाय मोहनीय के सात या 9 भेद बताये गये हैं। नाम कर्म के पहले शुभ और अशुभ भेद किये गये फिर इन दोनों के अनेक भेदों की सूचना दी गई। गोत्र कर्म के दोनों भेदों उच्च और नीच के आठ-आठ भेद बताये गये हैं। For Private 26ersonal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम इसमें मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों का वर्णन करने के पश्चात् प्रदेशों का परिमाण, उनका क्षेत्र, काल और भाव का निरूपण है । इसमें कर्म की मूलप्रकृतियों के अधिकतम और न्यूनतम स्थिति की चर्चा है। इन कर्मप्रकृतियों की कालावधि के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त 51 की बतायी गयी है वहाँ अन्यत्र 12 अन्तर्मुहुर्त बतायी गयी है। इसमें आत्मा के द्वारा कर्मपुद्गलों के ग्रहण करने और उनकी संख्या का विवरण भगवती में विस्तार से मिलती है यहाँ केवल एक ही गाथा में 52 इसका वर्णन है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उत्तराध्ययन में 33वें अध्ययन में यद्यपि . कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित विवरण है फिर भी परवर्ती साहित्य में और भी विस्तृत विवेचना की गई है। उदाहरण के लिए इसमें नामकर्म की दो शुभ और अशुभ कर्म की दो ही उत्तरप्रकृतियों का उल्लेख है. जबकि आगे चलकर इसके 42, 67, 93 एवं 103 भेदों की चर्चा मिलती है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उत्तराध्ययन के पश्चात् भी जैन कर्मसिद्धान्त का विकास होता गया । For Private 26 ersonal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. सन्दर्भ मालवणिया, दलसुख भाई, 'आत्ममीमांसा' - जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, वाराणसी, पृ. 951 श्वेताश्वतर उपनिषद् मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरंग 1/2/6/163 आचारांग - अंगसुत्ताणि प्रथम, मुनि नथमल जैन विश्वभारती लाडनू, प्रथम सं. 1974 1 डा. जैन, परमेष्ठीदास, आचारांग सूत्र एक अध्ययन, पा. वि. शोध संस्थान, वाराणसी - 5, प्रथम सं. 1987, पृ. 130 ! जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे 1/1/5/93 आचारांग वही वही से आयावाई, लोगावाइ, कम्भावाई, किरियावाई 1/1/5 वही अपरिणाय कम्मे खलु अयं पुरिसे... अणेगरुवाओ जोणीओ संघइ । 1/1/1/8 एवं से हु मुणी परिणाय कम्म, 1/1/1/12 वही, कम्मुणा उवाही जायइ, 1/3/1/8/9 8. 9. वही, अकम्मस्स, 1/3/1/18 10. वही, णिक्कमदंसी, 1/3/2/35 11. वही सन्दर्भ 3 12. कम्ममूलं च जं कूण, 1/1/3/21 कामेसुगिद्धाणिचयं करोति, 1/1/3/31 13. मोहेण गब्भं मरणाइ एति, 1/5/1/7 14. एगया गुण समियस्स रीयतो कायसंफास समणुचिण्ससा एगतिया पाणा उददायंति । इहलोग- वेयण वेज्जावडियं ।। 1/5/4/71-72 15. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, 1/4/2/134 16. सयमेव कडेहिं गाहंति, सूत्रकृतांग, 2/1/4 17. जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमव आगच्छति सम्पराएं एवं जहांकडं कम्म तहासिभारे, 5/2/23 एवं 5/1/26 18 सव्वे सयकम्मकप्पिया, वही, 2/3/17 19. वही, 2/3/17 व 2/1/4 20. से जाइजाइं बहुकूरकम्मे, जं कुव्वइ भिज्जइ तेण वाले । 21. वही, 1/2/26-27 22. वही, 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. वहीं, 24. सूत्रकृतांग, 2/21. 25. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं। वही, 8/3 26. वही, 8/3 27. दंसणावरणंतए -- वही, 15/1 28. वही, 7/7 29. वही, 8/8 30. वही, 2/1/6 31. वही, 5/1/8 32. वही, 2/1/15 33. असेसकम्मं विसोहइत्ता अणुत्तरणं परभसिद्धिं, 6/18 34. ऋषिभाषित, 4/7 35. वही, 4/12, 13 36. वही, 4/11, 12,13 व 9/2-3-4 37. वही, 4/12,13 38. वही, 9/7 39. वही, क्रमशः 3818, 9, 9/5, 9/7, 31/9 40. वही, 9/9 41. वही, 9/2-3 42. गच्छंति कम्मेहिं--- से सकम्मसित्ते, वही, 2-3, 4/12-13 43. उत्तराध्ययन, 13/23-24 44. वही, 4/3 45. वही, 25/41-43 '46. वही, 4/3 व 3/10-11 47. वही, क्रमश: 29/31,17, 9, 22,3/11, 10/3, 7/9 व 18/49 48. ऋषिभाषित, 33/1-18 49. उत्तराध्ययनसूत्र, 33/1-16 50. वही, 33/17 51. वही, 33/18 52. वही, 25/43 - डॉ. अशोक कुमार सिंह 28 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैनसाहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास - डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन भारत की हृदयस्थली मध्यप्रदेश के सीमान्त पर एक ऐसा भी भूखण्ड है, जो रामायण एवं महाभारत-कालीन इतिहास के अनेक तथ्यों को अपने अस्तित्व में समाहित किये हुए है, किन्तु दुर्भाग्य से परवर्ती काल में वह उपेक्षित होता रहा है, यद्यपि चेदि, हैहय, कलचुरि, चन्देल, गाहड़वाल एवं बुन्देला-ठाकुरों ने वहाँ अनेक स्वाभिमानपूर्ण पराक्रम प्रदर्शित किये हैं और वे अपनी अतीतकालीन महिमामयी परम्पराओं को सुरक्षित रखने के लिए सर्वस्व न्यौछावर करते रहे हैं। इतिहास इसका साक्षी है। उस उपेक्षित महामहिम भूखण्ड को आज बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है। __ यही वह भूमि है, जहाँ वीर चम्पतराय बुन्देला ने अपनी तलवार के जौहर दिखाये थे। यही वह पुण्यभूमि है, जहाँ महाराज छत्रसाल ने परनामी-सम्प्रदाय के महान् साधक स्वामी प्राणनाथ का आशीर्वाद प्राप्त कर बुन्देलभूमि को श्रीसमृद्धि के साथ नया तेजस्वी जीवन दिया था। उन बुन्देलकेसरी छत्रसाल का साहित्यिक प्रेम हिन्दीसाहित्य का इतिहास कभी भुला नहीं सकता, जब उन्होंने अपनी ही धरती के लाल महाकवि भूषण की विदाई के समय उनकी पालकी में अपना कन्धा दिया था। यही वह भूमि है, जिसके राजाओं -- मधुकरशाह एवं इन्द्रजीत सिंह ने मुगलों के विरोध में एक ओर जहाँ अपनी तलवारों के चमत्कार दिखाये थे, वहीं दूसरी ओर, गोपी-कृष्ण की स्मृति में अपनी कलम का भी हृदयस्पर्शी चमत्कार दिखलाया था। एक हिन्दी-कवि के रूप में महाराज मधुकरशाह का यह पद "ओड़छी वृन्दावन सौ गाँव" आज भी बुन्देलखण्ड के झोपड़ों से महलों तक सर्वत्र सुनाई देता है। यही वह भूमि है, जहाँ गोस्वामी तुलसीदास के बाद महाकवि केशव, प्रवीणराय, बिहारी, बलभद्र, जगनिक, खड्गसेन कायस्थ, गोविन्द गोस्वामी, वीरबल, हरिराम, टोडरमल, आसकरण, रहीम खाँ, चतुर्भुज, कल्याण, बालकृष्ण, गदाधर, अमरेश प्रभृति ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से इसे महिमा-मण्डित किया था। वन्दनीय बुन्देलखण्ड प्रारम्भ से ही कलाकृतियों, मठों एवं मन्दिरों का प्रमुख केन्द्र रहा है। वहाँ शायद ही ऐसा कोई ग्राम, कसबा, नगर अथवा शहर हो, जहाँ हस्तलिखित पोथियों का भण्डार न हो। किन्तु, दुर्भाग्यवश शतियों से उनका आलोड़न-विलोड़न नहीं हो पाया है और हजारों-हजार पोथियाँ ( हस्तलिखित) काल-कवलित हो चुकी हैं और होती चली जा रही हैं। बन्देलखण्ड में ही प्राच्यकालीन ओरछा-स्टेट की राजधानी टीकमगढ (वर्तमान मध्यप्रदेश का एक जिला) में "दिगौड़ा" नामक एक ग्राम है, जहाँ महान् अध्यात्मी देवीदास नाम के कवि हुए हैं। कहा जाता है कि उन्होंने अनेक कृतियाँ लिखी थीं, किन्तु वे सब कहाँ हैं, इसका पता नहीं चलता। उनके कुछ पद तो इतने लोकप्रिय हैं कि वे आज भी घर-घर में गाये जाते हैं। उनकी कुछ लघु कृतियों का संग्रह एक गुटके के रूप में श्री ग.व. दि. जैन शोध-संस्थान, For Private & Peeg al Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दा जनसाहित्य का विस्मृत बुन्दला काव : दवादास वाराणसी के ग्रन्थागार में सुरक्षित है, जो अद्यावधि अप्रकाशित है। ये लघु कृतियाँ अत्यन्त सरस, मधुर एवं गेय है। 18वीं शती के अन्तिम चरण की बुन्देली-भाषा की दृष्टि से वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी ज्ञात कृतियों की कुल संख्या 38 हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं : 1. परमानन्दस्तोत्र भाषा, 20. लछनाउली पथ, 2. जीवचुतुर्भेदादि बत्तीसी, 21. जोगपच्चीसी, 3. जिनांतराउली, 22. पदपंगति, 4. धरमपच्चीसी, 23. द्वादशभावना, 5. पंचपदपच्चीसी, 24. केवलज्ञान के दस अतिशय, 6. दशधा सम्यक्त्व, 25. उपदेशपच्चीसी, 7. पुकारपच्चीसी, 26. जन्म के दस अतिशय, 8. वीतरागपच्चीसी, 27. हितोपदेश, 9. दरसनछत्तीसी, 28. चक्रवर्तिविभूतिवर्णन, 10. बुद्धिवाउनी, 29. एकेन्द्रिय-सैनी-असैनी, 11. तीनि मूढ अरतीसी, 30. पदी, 12. देवकृत चौदह अतिशय, 31. जूववरा पद, 13. सीलांगचतुर्दशी, 32. पदावली 14. जुआवर्णन (सप्तव्यसन), 33. चतुर्विंशति जिनवन्दना, 15. विवेकबत्तीसी, 34. अंगपूजा, 16. स्वजोगराछरौ, 35. अष्टप्रातिहार्यपूजा, 17. मारीच भवांतराउली, 36. अनन्तचतुष्टयपूजा, 18. रागरागिनी, 37. अष्टादशदोषपूजा, 19. पंचवरन के कवित्त, 38. जिन नामावलि। देवीदास का रचनाकाल वही था, जो हिन्दी-साहित्य के इतिहास में रीतिकाल का समय माना गया है। उस समय "मनमथ नेजा नोंक सी"२ जैसी घोर श्रृंगारिक कविता के लिखने का बोलबाला था। उस विपरीत वातावरण में भी देवीदास ने अदम्य उत्साह के साथ अध्यात्म एवं भक्ति रस की जैसी अजस्र धारा प्रवाहित की, वह प्रशंसनीय है। आत्मचिन्तन एवं आत्मविकास के माध्यम से स्वस्थ समाज एवं राष्ट्रनिर्माण ही उनका प्रमुख लक्ष्य था। उन्होंने सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् के आदर्श को अपनी कविता के माध्यम से मुखरित करने का अथक प्रयास किया है। उन्होंने लोकहित की भावनाओं का गान करने में जहाँ एक ओर लोकसंगीत का आश्रय लिया, वहीं यमनर, बिलावल सारंग: जयजयवन्ती रामकली, दादरा', केदार, धनाश्री आदि शास्त्रीय राग-रागिनियों का भी सहारा लिया है। इस प्रकार, इस कवि ने अपने जीवन में संगीत के माध्यम से अध्यात्म रस की जो गंगा-जमुनी प्रवाहित की, वह बुन्देलखण्ड के हिन्दी-साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम For Private & P90nal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन HARHATHI अध्याय बन गया है। कवि-परिचय : 'अद्यावधि अज्ञात कवि देवीदास का विस्तृत परिचय अनुपलब्ध है, किन्तु उनकी कृतियों के अन्तिम प्रशस्ति-पद्यों एवं पुष्पिकाओं में जो छुटपुट परिचय उपलब्ध है, उनके अनुसार वह "दिगौड़ा" (टीकमगढ़ : मध्यप्रदेश) नामक ग्राम के निवासी थे। वह ग्राम उस समय बुन्देला सावन्तसिंह नरेश के राज्य का अंग था।१ कुण्डलियाँ छन्द के माध्यम से उन्होंने अपने विषय में कहा है कि उनकी जाति गोलालारे (गोलाराड) थी।१२ उनका वंश खरौआ के नाम से प्रसिद्ध था।१३ "सोनबयार" उनका बैंक था।१४ उनका गोत्र कासल्ल था। उनका परिवार भदावर देश के "सीक सिकहारा" नामक ग्राम से "कैलगवाँ" (टीकमगढ़ के पास) नामक स्थान पर आ बसा।६ फिर आगे चलकर वह परिवार दिगौड़ा आकर रहने लगा। देवीदास के पिता का नाम सन्तोष एवं माता का नाम मणि था। उनके छह भाई थे।६ देवीदास जेठे थे। बाकी के नाम इस प्रकार हैं : छगन, लल्ले, कमल, मरजाद गोपाल और गंगाराम । कवि के भाइयों के कृतित्व एवं व्यक्तित्व का परिचय नहीं मिलता। केवल उनकी संख्या, नाम और स्थान का ही विवरण दिया है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वजन्म के संस्कारवश तथा किसी गुरु के उपदेश एवं निरन्तर स्वाध्याय के कारण देवीदास में कवित्व-शक्ति का स्फुरण हुआ था और उसी के बल पर उन्होंने अपनी रचनाएँ लिखी थीं। कवि की आजीविका का प्रमुख साधन कपड़े का व्यापार था। वह बंजी२० करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे।२१ उनकी यह विशेषता थी कि हानि अथवा लाभ की स्थिति में वह समरस रहते थे। उनके जीवन में कुछ ऐसी मार्मिक घटनाएँ भी घटी थीं, जिनसे उनके जीवन की दृढ़ता, सच्चरित्रता एवं आत्मसंयम की कठोर परीक्षा हुई और वह उसमें खरे उतरे थे। इन सभी कारणों से तत्कालीन साहित्यिकों एवं सामाजिकों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। बुन्देलखण्ड में आजकल भी एक रोचक किंवदन्ती प्रचलित है कि एक बार वह अपने छोटे भाई कमल के साथ उसके विवाह के लिए आवश्यक वस्तुएँ खरीदने हेतु ललितपुर (उत्तर-प्रदेश) जा रहे थे। रास्ते में घना जंगल पडता था, वहीं कहीं कमल पर एक शेर ने सहसा ही आक्रमण कर उसे मार डाला। इस अप्रत्याशित घटना ने कवि को झकझोर डाला, किन्तु शीघ्र ही उनका विवेक जागत हो गया और अपने को सम्बोधित किया कि "कर्मों" की गति विचित्र है, उसे कोई टाल नहीं सकता। तत्पश्चात् वह उसका दाह-संस्कार कर घर वापस आ गये। स्नेहवश देवीदास अपने भाई कमल के लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहते थे। सम्भवतः उसकी स्मृति को स्थायित्व देने के लिए ही वह जीवित रहे और अपनी साहित्यिक कृतियाँ लिखते रहें। अपने कमल की मृत्यु से दुःखी होकर वह कविताएँ रचते रहे। अपनी माँ को ढाढस बंधाने के लिए उन्होंने पुराणों के मार्मिक उदाहरणों की चर्चा करते हुए कहा : "हे माँ, देखों, संसार की गति कितनी विचित्र है। व्यक्ति जो सोचता है, वह नहीं हो पाता। मर्यादापुरुषोत्तम राम को कहाँ तो सबेरे उठते ही पृथ्वीमण्डल का चक्रवर्ती-पद प्राप्त करना था 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दा जनसाहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास और कहाँ उसी सबेरे उन्हें वनवास मिल गया। रावण ने सोचा था कि यदि मैं युद्ध में जीत जाऊंगा, तब राम को सीता वापस कर दूंगा। किन्तु, उसे युद्धकाल में ही मृत्यु का वरण करना पड़ा। मैंने स्वयं सोचा था कि मैं अपने भाई का शान के साथ विवाह करूँगा, किन्तु उसके पूर्व ही वह अकस्मात् चल बसा ! माँ, यह काल की गति बड़ी विचित्र है। इस स्थिति में विवेक खो देने से प्राणी की सद्गति नहीं बन पाती। अतः इस शोक को सहन करो, इसी में सार है।"२२ काव्य-वैभव जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि देवीदास की काव्य रचनाएँ यद्यपि अध्यात्म एवं भक्तिपरक है, तथापि उनमें काव्यकला के विविध रुप उपलब्ध है। प्रासंगानुकूल रस-योजना, प्राकृतिक वर्णनों की छटा, अलंकार-वैचित्र्य, छन्द एवं मानव के मनोवैज्ञानिक चित्रणों से उनकी रचनाएँ अलंकृत हैं। उनकी भाषा भी भावानुगामिनी बन पड़ी है। रस-योजना किसी भी काव्य की आत्मा रस होती है और आध्यात्मिक एवं भक्ति-साहित्य में शान्त रस को रसराज माना गया है। कविवर देवीदास ने भी रस को आनन्द के रूप में ग्रहण कर उसे निजात्मरस के रूप में अभिव्यक्त किया है। यथा : तिजग से भारी सो अपूरव अधिरज कारा परम आनन्द रूप अपै अविचल हैं।२३ आतमरस अतिमीठी साधौ आतमरस अतिमीठौ।४ कवि ने नवरस की विस्तृत योजना तो नहीं की, उसे इतना अवसर भी नहीं था, किन्तु भक्ति के आवेग में प्रसंगवश प्रायः सभी रसों का समावेश हो गया है। उन्होंने अपनीसूक्ष्म दृष्टि के साथ तूलिका-रूपी छेनी द्वारा शान्त रस को बड़ी मनोरमता से मूर्तित किया है एवं उसे रसराज माना है। इसका स्थायी भाव शम या वैराग्य है तथा विभाव आलम्बन है -- असार-संसार, शास्त्रचिन्तन, तप, ध्यान आदि। उद्दीपन हैं -- सन्तवचन एकान्त स्थान, मतक-दर्शन आदि! रोमांच, संसारभीस्ता, तल्लीनता और उदासीनता आदि अनभाव हैं एवं धृति, मति, स्मृति, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। जहाँ समरस की स्थिति होती है, वहीं शान्त रस रहता है। संसार की भौतिकवादी चमक-दमक मानव को शान्ति प्रदान करने में असमर्थ है, अतएव उसे आत्ममुखी होना आवश्यक है और आत्ममुखी होना ही शान्त रस की नियोजना है। इसलिए, शान्त रस का रसराज के रूप में प्रयुक्त होना एकदम सार्थक है। शान्त रस में सभी रसों का समावेश हो जाता है। यहाँ इसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं : अंतरदिष्टि जगैगी जब तेरी अन्तरदिष्टि जगैगी। होइ सरस दिडता दिन हूँ दिन सब भय भीत भगैगौ।। दसरन ज्ञान चरण सिवमारग जिहि रस रीति पगैगी। देवियदास कहत तब लगि है जिय तूं सुद्ध ठगैगी।। For Private & Pers32| Use Only , Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन समकत बिना न तरयौ जिया समकित बिना न तरयौ ।।२५ .... इनके अतिरिक्त कवि ने प्रसंगवश श्रृंगार२६, भक्ति२७, करुण२८, रौद्र२६, भयानक, अद्भुत, बीभत्स३२ आदि रसों की भी सुन्दर योजना की है, जिसके कारण उनके काव्य में निखार आ गया है। अलंकार कल्पना, सौन्दर्यबोध तथा भावप्रवणता के लिए कवि ने शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों की ही सुन्दर योजना की है। जहाँ उन्होंने अनुप्रास एवं यमक जैसे शब्दालंकारों के माध्यम से वर्ण्य प्रसंगों को प्रस्तुत किया है, वहाँ उसकी मधुमयी रसधारा पाठकों को मनोमुग्ध कर देती हैं। यथा : अनुप्रास -- लाल लसिउ दैवी को सुवाल लाल पाग बाँधे लालहग अधर अनूप लाली पान की। लालमनी कान लाल माल गरै मूंगन की।। अंगझगा लाल कोर गिरवान की। यमक -- जरा जोग हरे, हरे वन में निवास करें। करें पसु बधे बंध काजै देखि कारे भए ।।३ इन वर्णन-प्रसंगों के सुन्दर नियोजन के साथ कवि ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, उपमेयोपमा आदि अर्थालंकारों के द्वारा वर्ण्य विषय को अधिकाधिक रम्यता और गहनता प्रदान की है। पाठकों के रसास्वादन-हेतु यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं : उपमा -- उपमेय भाव को उत्कर्ष प्रदान करने के लिए कवि ने अप्रस्तुत वर्णनों के द्वारा भावों को उबुद्ध करने की अपनी अद्भुत क्षमता का परिचय दिया है। कवि कहता है कि प्राणी मोह के वशीभूत होकर भटकता रहता है और राग-द्वेष उसे तस्कर के समान ठगते रहते हैं : हमरे बैर परे दोइ तसकर राग दोष सुन ठेरे। भोहि जात सिवमारग के रुख कर्म महारिपु धेरै४ अन्य स्थान पर उन्होंने परमात्मा की उपमा घन से और मन की उपमा मोर से दी है -- देवियदास निरखि अति हरषित प्रभ तन घन मन मोर।।५ रूपक -- कवि रूपक अलंकार का धनी है। उसने वृक्ष का रूपक उपस्थित कर संयमी पुरुष की समस्त वृत्तियों को व्यक्त कर दिया है -- व्रतमूल संजिम सकंध बध्यौँ जम नीयम उभे, जल सीच सील साखा वृद्धि भयौं है। समिति सुभार चढ्यौं बध्यौ गुप्ति परिवार, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैनसाहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास पहुप सुगन्धी गुन तप-पत्र छ्यौ है।। मुक्ति फल दाई जाकै दया छाह छाई भए भव तप ताई भव्य जाइ ठोर लगयो है। गयो अघ तेज भयो सुगुन प्रकाश ऐसी चरण सुवृक्ष ताहि देवीदास नयो है।।६ कवि ने व्यापार के रूपक द्वारा शरीर और आत्मा की स्थिति को स्पष्ट करते हए आत्मा को सम्बोधित किया है और कहा है कि उसे भेद-ज्ञान प्राप्त कर लेने की आवश्यकता है, बिना भेद-ज्ञान के वह आत्मा इसी प्रकार अनन्त काल तक आवागमन के चक्कर में फंसी रहेगी। कवि आत्मा को "हंस" शब्द से सम्बोधित करते हुए कहते हैं : अरे हँसराई ऐसी कहा तोहि सूझि परी पुँजी लै पराई बंजू कीनौं महा षोटो है। षोटो वंजु किए तौको कैसे के प्रसिद्धि होइ। नफा मूरि थे जहाँसिवाहि ब्याजु चौटो है।। बेहुरे सौ बँध्यौ पराधीन हो जगत्रमाहि। देह कोठरी मैं तं अनादि को अगौटो है। मेरी कही मानु खोजु आपनी प्रताप आप। तेरी एक समै की कमाई को न टोटो है। अनन्वय :- कवि ने ज्ञान और ज्ञानी के वर्णन-प्रसंग में अनन्वय अलंकार के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो ज्ञान एवं ज्ञानी की समता कर सकें, क्योंकि दोनों ही, व्यक्ति की संयम-साधना, त्याग-तपस्या एवं तज्जन्य अनुभूति से सम्बद्ध हैं। इसी तथ्य का निरूपण उन्होंने इस प्रकार किया है -- ज्ञानी सौ न और पैन और सौ सुज्ञानवंत ज्ञानवंत कै क्रियां विचित्र एक जानकी। जानी एक ठौर को पिछानी है सु और कौ सु और की अजानी है न जानै एक ठान की।। ठान-ठान और पैन और ठान-ठान कोई रीति है पिछानिवे की वाही के प्रमान की। ज्ञानी है सुज्ञानी है न ज्ञानी और दूजौ कोई। और के पिछानी मैं निसानी एक ज्ञान की। कवि ने वर्ण्य-विषयों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उदाहरण अलंकार की योजना की है। कवि ने एक-से-एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उन्हें पढ़कर पाठक मन्त्रमुग्ध-सा रह जाता है। उन्होंने व्यवहारनय और निश्चयनय जैसे दार्शनिक विषयों को भी अपने उदाहरणों द्वारा सरल और सरस बना दिया है। यथा : 54 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन जैसे इन्द्र नील मनि डारै पय भाजन मैं मनि को सुभाव पय नीलौ सौ लगत है। निश्च करि जद्यपि सु नीलमनि आए विर्षे उपचार करै व्यापी पय मैं पगत है।। जैसे सुद्ध ज्ञान की प्रवर्तना है ग्येय विषै व्यवहार नय के प्रमान सौं सगत है। सुद्ध नय न निहचै प्रमान ज्ञान एक ठान वग्यौ चिदानन्द के समूह में दगत है। इसी प्रकार, नश्वर शरीर में चैतन्य आत्मा किस प्रकार निवास करती है, इस तथ्य को कवि ने अत्यन्त सुन्दर उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत किया है। यथा-- जैसे काठ माहि बसै पावक सुभाव लियै हाटक सुभाव लियै निवसैउ पल मैं। पहुप समूह मैं सुगन्ध को प्रमान जैसे तेल तिली के मझार बसै और फल मैं।। दही दूध विर्षे सु तूप आप स्वरूप बसै तीत रहौ पुरैन बीच जल मैं। जैसे चिदानन्द लियें आपनौ स्वरूप सदा भिन्न हैं निदान वैसे देह की गहल मैं।190 मानवीकरण -- कवि जब कवित्व के आवेश में जड़ एवं चेतन से तादात्म्य स्थापित कर लेता है, तब उसे सृष्टि के रहस्यमय तत्वों में भी नायक अथवा नायिका के दर्शन होने लगते हैं। कवि ने सुमति के वर्णन-प्रसंग में चेतन रूप नायक की पटरानी के रूप में उसे इस प्रकार प्रस्तुत किया है। यथा -- सा घिय सुंदरी सील सती सम शीतल संतनि के मन मानी। मंगल की करनी हरनी अपकीरति जासु जगत्र बखानी।। संतनि की परची न रधी परब्रहम स्वरूप लखावन स्यानी। ज्ञान सुता वरनी गुनवंतिनी चेतनि नाइक की पटरानी ।। इसी प्रकार, मार्मिक शैली में प्रस्तुत कुबुद्धि का चित्रण भी द्रष्टव्य है -- दूतिय दुर्गति तै नियरी पर पोपिनि दोषिनी है दुषदाई। इंद्रिनि की पति राखत है प्रगटी विषयारस तैं गुरताई। औगन मंडित निन्दित पंडित या दुर्बुद्धि कुनारि कहाई।११ प्रतीक-योजना -- कवि देवीदास आध्यात्मिक कवि थे। अध्यात्म स्वयं अपने में एक ऐसी विधा है, जिसकी व्याख्या करते समय प्रज्ञापुरुषों को भी भावाभिव्यक्ति में विकट समस्या का For Private & nal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैनसाहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास सामना करना पड़ता है। ऐसी ही परिस्थिति में प्रतीकों की योजना की जाती है। ये प्रतीक केवल चित्र ही उपस्थित नहीं करते, अपितु किसी भी हृदयगत भाव के जीते-जागते क्रियाशील प्रतिनिधि होते हैं। कवि के भी जब विविध आध्यात्मिक भाव कठोर चट्टानों से टकराने वाले स्रोतों की भाँति फूट निकलने के लिए मचलने लगते हैं, तब वह प्रकृति-प्रदत्त प्रतीकों का आश्रय लेकर अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति सहज रूप में कर डालता है। कवि देवीदास ने साधना के लिए "केहरि"४२ सिंह को प्रतीक बनाया है, इसी प्रकार सुख और दुःख की प्रवृत्तियों को प्रकाशित करने के लिए" अमृत और विष"४३ को प्रतीक-स्वरूप ग्रहण किया है। परमात्मा के लिए कवि ने "गरीबनवाज.४" एवं आत्मा का "हंस४५" के माध्यम से वर्णन किया है। संसार की अज्ञानता को उन्होंने "कृप४६" के माध्यम से व्यक्त किया है। इसी प्रकार, पाँच रंगों का वर्णन, पीला-ज्ञान, सरस्वती४७, हरा समृद्धि८, लाल-प्रेम और शक्ति४६ श्वेत-यश और काला-अज्ञान, अन्धकार के रूप में किया है। स्व-पर-विवेक के लिए कवि ने "भोर"५२ प्रतीक का आश्रय लिया है। इन प्रतीकों द्वारा कवि ने वर्ण्य प्रसंगों को सरलता, सरसता, रमणीयता, कोमलता एवं गम्भीरता प्रदान की है। छन्दः प्राचीन काल से ही साहित्य में छन्दों का प्रयोग होता रहा है। साहित्य की दृष्टि से छन्दोबद्ध साहित्य जहाँ अधिक रुचिर और चमत्कारपूर्ण होता है, वहीं अतिदीर्घजीवी भी हो जाता है। यही कारण है कि लेखन-सामग्री के आविष्कार के पूर्व सहस्राब्दियों तक वेदादि, प्राचीन साहित्य कण्ठ-परम्परा में सुरक्षित रह सके हैं। "छान्दोग्योपनिषद्" में छन्दों की क्रियात्मक उपयोगिता के भाव को सुन्दर रूपक के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : "देवताओं ने मृत्यु से डरकर अपने-आपको (अपनी कृतियों को) छन्दों में ढाँप लिया। मृत्यु-भय से आच्छादन या रक्षार्थ आवरण के कारण ही "छन्द" संज्ञा सार्थक हुई है।३३ "सायणभाष्य" में छन्द की एक व्युत्पत्ति और भी दी गई है -- "छन्द कलाकारों और उनकी कलाकृतियों को अपमत्यु से बचा लेते हैं। इसी उपयोगिता के कारण साहित्य में छन्दों की परम्परा निरन्तर चलती रही हैं। कवि देवीदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में मात्रिक एवं वर्णिक दोनों प्रकार के ही छन्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने गीतिका, कुण्डलिया, छप्पय, सवैया कवित्त, रोडक, गंगोदक और ताटेक का प्रयोग वर्णनों के अनुकूल बड़ी बारीकी से किया है। सवैयों के माध्यम से एक सच्चे कलाकार के समान उनहोंने रत्नों को जड़ने का कार्य किया है, साथ ही विभिन्न शास्त्रीय राग-रागनियों में भी पदों की रचना की है। उनके पदों में इतनी संगीतमयता है कि आध्यात्मिक रस सहज ही छलकता है तथा उनकी सुन्दर ध्वनियोजना एवं कोमल पदरचना अमृत की वर्षा करने में पूर्ण सक्षम है। उदाहरणार्थ, उनका पद यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यथा -- आतमरस अति मीठो साधो आतमरस अति मीठौ। स्यादवाद रसना बिनु जाकौ मिलत न स्वाद गरीठौ।। पीवत होत सरस सुष सो पुनि बहुरि न उलटि पुलीठौ। For Private & Peso al Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन अचिरज रूप अनूप अपूरव जा सम और न ईठौ।५ दिपति महा अतिजोर जिनवर चरन कमल, दिपति महा अतिजोर। देखत रूप सुधी जन जाकौ लेत सबै चित चोर।। कैथों तप गजराज दई सिर भरि सैदुर की कोर। कै सिवकामिनि को मुषु राष्यो केसरि के रंग वोर।। कै निज ध्यान धरे चपला थिर प्रभु धुनि गरजत घोर । देवियदास निरखि अति हरषित प्रभ तन घन मन मोर ।।२६ चित्रबन्ध -- चित्रबन्ध रचना भी काव्य की एक विशिष्ट शैली है, जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं परवर्ती भारतीय वाङ्मय में उपलब्ध है। चित्रबन्ध वस्तुतः सामान्य काव्यलेखन की अपेक्षा अधिक दुरूह है। इस शैली में कवि को काव्यपास्त्रोचित नियमों का ध्यान रखने के साथ-साथ विशिष्ट चित्रबन्ध के नियमों का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। इसमें एक ओर कवि की काव्यरचना के प्रति प्रेम और दूसरी ओर कला के प्रति उसकी सुरुचि-सम्पन्नता का परिचय मिलता है। इस दिशा में हिन्दी-साहित्य में महाकवि केशव, भिखारी, लालकवि, गोकुलनाथ एवं दीनदयाल गिरि प्रभृति की रचनाएँ पर्याप्त प्रशंसित हैं। कविवर देवीदास सम्भवतः इनकी रचनाओं से प्रभावित थे, अतः उन्होंने भी अपनी रचनाओं में उक्त शैली का प्रयोग किया है। उनके चित्रबन्धों के नाम इस प्रकार हैं -- कमलबन्ध दोहा, चूलीबन्ध दोहा, कपाटबन्ध दोहा, कटारबन्ध, मडरबन्ध दोहरा, तुकगुफ्त दोहरा, अतुकगुपतागत दोहरा, पर्वतबन्ध कवित्त, धनिकबन्ध दोहा, सर्वतामुख चौबीसा, कवित्ततुक आदि। रहस्यवाद -- जैन साहित्य में शद्धात्ममत्व की उपलब्धि के लिए रहस्यवाद को पर्याप्त स्थान मिला है। देवीदास की कृतियों में भी उच्च कोटि के रहस्यवाद के दर्शन होते हैं। कविवर देवीदास के लिए देह एक देवालय है, जिसमें शक्ति सम्पन्न एक देव अधिष्ठित हैं। उसकी आराधना करना, उसे सावधानीपूर्वक पहचानना एवं उसमें एकरस होना ही एक अत्यन्त रहस्यपूर्ण क्रिया है, जिसके लिए गुरु के उपदेश और अथक अभ्यास की आवश्यकता है। कवि के रहस्यवाद को समझने के लिए निम्नांकित उदाहरण पर्याप्त है। यथा -- "देह देवरे मैं लषो निरम निज देवा। आप स्वरुपी आप मैं अपनी रस लेवा।। "सुगुरु मेरे मन के निकट कब आवै। जीव अजीव दशा निरवारन पंथ कृपथ बतावै।। "निज निरमल रसु चाषा जब हम निज निरमल रसु वाषा1/10 इस प्रकार, कविवर देवीदास बुन्देली-हिन्दी के ऐसे महाकवि हैं, जिन्होंने अध्यात्म एवं भक्तिपरक रचनाओं के माध्यम से हिन्दी-भारती की अमूल्य सेवा की है। उनकी कृतियाँ, निस्सन्देह, समकालीन इतिहास, संस्कृति, विविध साहित्यिक शैलियों एवं भाषा के अनेक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2 3 4 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 222222 21. रहस्यपूर्ण तथ्यों को उद्भावित करने में सक्षम हैं। सन्दर्भ ओड़छौ वृंदावन सौ गाँव । गोबरधन सुख-शील पहरिया जहाँ रचत तृन गाय । । जिनकी पद रज उड़त सीस पर मुक्त-मुक्त हो जायँ । सप्तधार मिल बहत वेत्रवे जमना जल उनमान ।। नारी नर सब होत पवित्र कर-कर के अस्नान । सो थल तुंगरण्य बखानों ब्रह्मा वेदन गायौ । । सौल दियो नृपति मधुकर को श्रीस्वामी हरदास बतायौ । - बुन्देलवैभव, पृ. 157 बिहारीरत्नाकर, पद्य 6 दे. पदपंगति एव "रागरागिनी" नामक रचनाएँ । वही, वही, वही, वही, वही, वही, वही, हिन्दी जैनसाहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास "मण्डलविधान", वही, पृ. 162-163 वही, पृ. 162 वही, वही, वही, वही, वही, वही, दे. "जोगपच्चीसी", बुन्देली "बंजी" शब्द, जो "वाणिज्य " शब्द का अपभ्रंश है, बुन्देलखण्ड में, गरीबी की स्थिति में कन्धे पर सामान ढोकर बेचने के अर्थ में यह शब्द रूढ़ हो गया है। ले. उपरिवत् । "अनेकान्त" ( 11/7-8/275) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. 23. 24. 25. "देवीदासविलास", पृ. 48/24 उपरिवत्, पृ. 10 वही, पृ.84 वही, पृ.82 वही, पृ.17 वही, पृ.96 वहीं, 32. "देवीदासविलास", पृ. 27 उपरिवत्, पृ. 81 वही, पृ.90, 92 वही, पृ.24 वही, पृ.88-89 वही, पृ.21-22 वही, पृ.11-39 वही, पृ.25 वही, पृ.27/3 वही, पृ.23/13 . .. पू.95,96 वही, पृ.95 वही, पृ.90 वही, पृ. 48 "देवीदासविलास", पृ. 101 उपरिवत्, पृ. 33 "देवीदासविलास", पृ. 31 उपरिवत्, पृ. 33 उपरिवत, पृ. 47 एवं 55 वही, पृ. वही, पृ. 96 वही, पृ. 95 वही, वही, पृ. 99 छान्दोग्योपनिषद्, 1/4/2 "देवीदासविलास", पृ. 91 56. उपरिवत्, पृ. 90 57. __ "देवीदासविलास",पृ.114-120 58. उपरिवत्, पृ. 81 वही, पृ. 83 60. वही, पृ. 113 36. 55. 38. 40. 41. 59. अध्यक्ष -- हिन्दी विभाग म. म. महिला महाविद्यालय (वीर कुँवरसिंह विश्व विद्यालय), आरा (बिहार) For Private & Penal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूक सेविका - विजयाबहन - शरद कुमार साधक श्रमण के भूतपूर्व सम्पादक जमनालाल जी जैन की पत्नी श्रीमती विजयाबहन अब हमारे बीच नहीं हैं। वे सर्वोदय-समाज की मूक सेविका तथा आचार्यकुल की निष्ठावान सदस्या थीं। उनकी पहचान सर्वसेवा संघ प्रकाशन के वरिष्ठ कार्यकर्ता, सम्पादक तथा जैन जगत के प्रसिद्ध लेखक श्री जमनालाल जैन की जीवन संगिनी के रूप में रहीं। ८ अक्टूबर १६६३ को उनका स्वर्गवास हो गया है लगभग दस वर्ष तक वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में रहीं थीं। विजयाबहन का जन्म सारनाथ में हुआ था और सारनाथ में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली। ६0 वर्ष की जीवन-यात्रा के दौरान उन्होंने आत्मीयता की व्यापक भूमिका पर अपने स्नेह सम्बन्ध बनाये। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, बिहार, बंगाल ही क्यों, देश भर के कत्ताओं से जहाँ भी जुड़ी कि आत्मीय हो गयीं। किससे क्या बात करनी है, क्या सुननी है, इसका सूक्ष्म विवेक उन्हें भरपूर था। उनके वर्धा या वाराणसी आवास पर जो भी पहुँचा, वह बिना जलपान किये नहीं लौट सकता था। महात्मा भगवानदीन महीनों उनके अतिथि रहे। जैनेन्द्र जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकार के साथ तो उनका घरेलू सम्बन्ध ही था। दादा धर्माधिकारी, धीरेन्द्र मजूमदार, जयप्रकाश नारायण, शंकरराव देव, सिद्धराज ढड्ढा, पूर्णचन्द्र जैन, सुरेश राम भाई आदि सर्वोदय नेताओं का स्नेह-सौजन्य भी वे पायीं। जब जमनालाल जी राजगृह में वीरायतन का कार्य देख रहे थे तब सर्वसेवा संघ के अध्यक्ष आचार्य राममूर्ति ने कार्यकारिणी की बैठक वीरायतन में रखी तो विजयाबहन हम सभी सर्वोदय साथियों की समुचित व्यवस्था के लिए सारनाथ से वाराणसी पहुँच गयीं। वहाँ उनकी व्यवस्था शक्ति और आतिथ्य की किसने प्रशंसा नहीं की ? उन्होंने अपनी पुत्रियों और पुत्रवधू को भी यही सिखाया कि घर आये मेहमान का हार्दिकता पूर्वक सत्कार करना चाहिए। प्रश्न यह नहीं है कि तुम्हारे पास क्या है, क्या नहीं है। मुख्य बात है आत्मीयता, सेवा। विजयाबहन की शिक्षा परम्परावादी जैन बालाश्रम आरा में हुई थी, फिर वे स्वतन्त्र विचारों वाली सामाजिक कार्यकर्वी थीं। गाँधी-विनोबा तथा क्रांतिकारी विचारकों के सम्पर्क में रहने के कारण कभी 'लकीर का फकीर बनना रास नहीं आया।' भूत-प्रेत, जादू-टोना, वार-तिथि आदि के चक्कर से बचकर रहीं। नियमों से भी अपने को जकड़ा नहीं। लेकिन रात में न खाने वालों या व्रत वालों का वे पूरा ध्यान रखती थीं। जिनेन्द्रवर्णी जी के आहार का उन्होंने जितना ध्यान रखा, उतना ही ख्याल भदन्त आनन्द कौसल्यायन या फातिमी साहब के भोजन का भी रखा और इस विषय में उन्होंने जमनालाल जी का पूरा साथ निभाया। रिश्तेदारों का विरोध होने पर भी पुत्र-पुत्रियों के अन्तर्जातीय व अन्तर्धर्मी विवाह किये। फिजूल खर्ची नहीं, मितव्ययिता पूर्वक बिना कंजूसी के घर-खर्च चलाया। व्यवहार कुशल तो इतनी थीं For Private & 40sonal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि जब कभी जैन जी अपने कटाक्षों के कारण किसी से सम्बन्ध तोड़ लेते, उन्हें भी वे जोड़े रखती थीं। हिन्दी श्रमणसुत्तं के अनुवाद के संपादन का प्रश्न खड़ा हुआ तो श्री राधा-कृष्ण बजाज ने जैन जी को राजी कराने में विजयाबहन की मदद ली। यह मामूली बात नहीं है कि स्नेह-सूत्र के साथ-साथ साहित्य-सूत्र जोड़ने में भी पत्नी की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो । असल में उन्हें स्वाध्याय के साथ स्वाभिमान प्रिय था । वे अपने स्वाभिमान की भाँति दूसरों के भी स्वाभिमान की रक्षा करना जानतीं थीं । ऋषभदासजी रॉका जैसे उद्योगपति की पुत्री सरला जी उन्हें सहेली मानती थीं। वे सहेलीपन निभाते हुए दमयंती दाई का पारिश्रमिक रोकने और उसका अहसान न मानने वालों को झिड़कती भी थीं। ऐसी संवेदनशील, सेवाभावी, सलाहकार धर्मपत्नी के वियोग से जमनालाल जी को मानसिक कष्ट होना स्वाभाविक है। पैतालीस वर्षों का दाम्पत्य जीवन सहसा भुलाया भी कैसे जा सकता है । वियोग-व्यथा अकेले उनके लिए ही कष्टकर नहीं है। संवेदना में अभय, सुषमा, रेखा, बिन्दु के साथ हम सहभागी हैं, सारनाथ की जनता सहभागी है। जैसे विजया बहन से हम कार्यकर्ताओं ने सेवा पायी, वैसे ही मजदूर - कारीगर भी सेवा - समादर पाते रहे हैं। यही कारण है कि मरणोपरान्त उनके आवास पर आस-पास की सैकड़ों महिलाएँ जमा हुईं, जिनकी आँखों में आँसू थे । गृह-निर्माण करने वाला एक कारीगर तो उनका भाई ही बन गया था, जो तेरही पर शोक निवारणार्थ जैन जी के परिवार के लिए वेष लाया । पारिवारिक से अधिक मानवीय धरातल पर अधिष्ठित कर जैन जी के सम्बन्धों को ऐसी व्यापकता प्रदान कर गयी, उसे कौन बिसरा सकता है ? सबको अपना बनाकर रखने वाली अद्भुत कला और गाँधी विचार को आत्मसात करना चाहने वालों के लिए एक उदाहरण है, जो अनुपम है, अद्वितीय है, अनुकरणीय है । *५०, संत रघुवर नगर, सिगरा, महमूरगंज, वाराणसी - २ -२२१०१० 41 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-प्रबन्ध का सार-संक्षेप बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का सांस्कृतिक अध्ययन ___ - डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह बृहत्कल्पसूत्र आगमसाहित्य के अन्तर्गत एक अंग बाह्य ग्रन्थ है। यह एक छेदसूत्र है। छेदसूत्रों के वरिष्ठता क्रम में इसका दूसरा स्थान है। यह आचार्य भद्रबाहु प्रथम की रचना है। इस ग्रन्थ पर छठी शताब्दी में संघदासगणि ने भाष्य लिखा है। इसमें छ: हजार चार सौ नब्बें गाथाएँ हैं, जो प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। इस पर आठवीं शताब्दी ईसवी के आस-पास मलयगिरि ने संस्कृत में वृत्ति लिखी, परन्तु यह पूर्ण नहीं हो सकी। इस अपूर्ण वृत्ति को क्षेमकीर्ति ने तेरहवीं सदी ईस्वी में पूरा किया। बृहत्कल्पसूत्र जिस रूप में सम्प्रति उपलब्ध है, उसमें जैन श्रमणों के आचार-विचार, व्रत-नियम, तप-त्याग, गमनागमन, रोग-चिकित्सा, अतिचार, दोष, प्रायश्चित्त आदि विषयों का वर्णन है। इसके साथ ही साथ इसमें प्रसंगवश तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी उल्लेख किया गया है। ग्रन्थ की सांस्कृतिक सामग्री पर अब तक कई विद्वानों ने शोध कार्य किया है, जिनमें जगदीश चन्द्र जैन द्वारा लिखित "जैनागम साहित्य में भारतीय समाज" सबसे प्रमुख है। लेकिन इस ग्रन्थ का क्षेत्र व्यापक होने से इसमें बृहत्कल्पसूत्र के सम्पूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का विवेचन नहीं किया जा सका है। इसी प्रकार अरुण प्रताप सिंह कृत "जैन और बौद्ध संघ में भिक्षुणी संघ का उदभव एवं विकास" में केवल जैन भिक्षुणियों से सम्बन्धित सामग्री का विवरण प्रस्तुत किया गया है। मधुसेन कृत "ए कल्चरल स्टडी आफ निशीथचूर्णि" में बृहत्कल्पसूत्र पर लिखी वृत्ति का ही अधिकांश सन्दर्भ दिया गया है। इसी तरह मोतीचन्द्र कृत "सार्थवाह", तथा "भारतीय वेशभषा" और वासुदेवशरण अग्रवाल कृत "प्राचीन भारतीय लोक धर्म" में तत्सम्बन्धित विषयों की ही चर्चा है। अतः मैंने बृहत्कल्पसूत्र में उपलब्ध सम्पूर्ण सांस्कृतिक सामग्री को एक जगह एकत्रित कर उसका सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ___ अध्ययन की सुविधा के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध को आठ अध्यायों में विभक्त किया गया प्रस्तावना स्वरूप प्रथम अध्याय में बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का संक्षिप्त परिचय देते हुये जैन आगमसाहित्य में इसका स्थान, ग्रन्थकार संघदासगणि का काल एवं उनका क्षेत्र और तत्कालीन सांस्कृतिक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अध्याय में भौगोलिक दशा का वर्णन किया गया है जिसमें जनपदों, पर्वतों, वनों, नदियों, नगरों और ग्रामों का वर्णन किया गया है। प्रमुख जनपदों में अवंति, कुणाल, कोंकण, For Private & Pers42 Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का सांस्कृतिक अध्ययन लाढ, सुराष्ट्र, दशार्ण, शूरसेन, कलिंग, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि का उल्लेख मिलता है। प्रमुख नगरों में उज्जैनी, द्वारिका, भरुकच्छ, शूर्पारक, प्रतिष्ठान, मथुरा, भिल्लमाल, प्रभास आदि का वर्णन प्राप्त होता है। नदियों में गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही आदि का तथा पर्वतों में अष्टापद, अर्बुद, रैवतक, उज्जयन्त, मेरु आदि का उल्लेख हुआ है। तृतीय अध्याय आर्थिक जीवन से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत कृषि, उससे सम्बन्धित विभिन्न कृषि उपकरण यथा -- हल, कुदाल, कोल्हू, हँसिया आदि सिंचाई के अन्तर्गत सेतु और केतु, कृषि उत्पादन यथा -- ब्रीहि, शालि, यव, मसूर, माँस, प्रियंगु, अन्नभण्डारण आदि का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही साथ पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग धन्धे यथा -- सूती वस्त्र उद्योग, काष्ठ उद्योग, प्रसाधन उद्योग, वास्तु उद्योग, मद्य उद्योग, कुटीर उद्योग जैसे -- हाथी दाँत से बनी वस्तुएँ आदि का वर्णन किया गया है। शिल्पकारों की भाँति उस समय व्यापारियों की भी श्रेणियाँ होती थीं। ये व्यापारी जल और स्थल मार्ग से अपने माल-आसबाब के साथ एक देश से दूसरे देश में आते जाते थे। बृहत्कल्पभाष्य में सार्थवाहों के बारे में विपुल सामग्री प्राप्त होती है। उसमें पाँच प्रकार के सार्थों का उल्लेख है -- 1. भंडीसार्थ -- माल ढोने वाले सार्थ, 2. वहिलग -- उंट, खच्चर और बैलों द्वारा माल ढोने वाले, 3. भारवह -- अपना माल स्वयं ढोने वाले, 4. ओदरिया -- यह उन मजदूरों का सार्थ होता था, जो जीविका के लिए एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते थे, 5. कार्पटिक -- इसमें ज्यादातर संख्या श्रमण-श्रमणियों की होती थी। उन दिनों व्यापारिक मार्ग सुरक्षित नहीं थे। रास्ते में चोर-डाकुओं और जंगली जानवरों का भय रहता था, इसलिए व्यापारी लोग एक साथ मिलकर किसी सार्थवाह को अपना नेता बनाकर, परदेश यात्रा के लिए निकलते थे। अध्याय के अन्त में विभिन्न प्रकार के स्वर्ण, ताम्र, रजत या रुवग, केडविक, सिक्कों का वर्णन किया गया है। चतुर्थ अध्याय सामाजिक जीवन से सम्बन्धित है। इसमें वर्ण के अन्तर्गत ब्राह्मण (बांभण), क्षत्रिय (खत्तिय), वैश्य ( वइस्स) और शूद्र (सुद्द) का, अळूत जातियों में चाण्डाल, भील और डोंब का और छः अनार्य जातियों में अम्बष्ठ, कुलिन्द, विदेह, वेदग, हरित और चुंचण का उल्लेख हुआ है। विवाह के अन्तर्गत स्वयंवर और गन्र्धव विवाह का वर्णन है। इसी अध्याय में परिवार, स्त्रियों की स्थिति, दास-प्रथा आदि का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही साथ खान-पान, वस्त्र एवं अलंकार, क्रीड़ा-विनोद और रीति-रिवाज का वर्णन किया गया है। विभिन्न प्रकार के रोग यथा-- वल्गुली, विषकुंभ, दृष्टिहीन, कुष्ठरोग आदि एवं नके उपचार के सम्बन्ध में आठ प्रकार के वैद्यों के नाम बतलाये गये हैं -- 1. संविग्न, 2. असंविग्न, 3. लिंगी, 4. श्रावक, 5. संज्ञी, 6. अनभिगृहीत असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि), 7. अभिगृहीत असंज्ञी, 8. परतीर्थिक। पंचम अध्याय धार्मिक जीवन से सम्बन्धित है जिसके अन्तर्गत मूलरूप से जैनश्रमण-- श्रमणियों के आचार, अतिचार, प्रायश्चित्त और अपवादों का वर्णन किया गया है। चार महीने For Private & PA3 al Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह वर्षावास के बाद हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु के आठ महीनों में श्रमणों को एक स्थान पर न रहने का विधान किया गया है। श्रमणों को नगर के अन्दर और बाहर एक-एक मास तक तथा श्रमणियों को दो-दो माह तक रहने का विधान किया गया है। श्रमणों को सोलह प्रकार के स्थानों में वर्षा ऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में एक मास से अधिक स्कने का निषेध किया गया है। बृहत्कल्पभाष्य में विवरण सहित इन स्थानों के नाम गिनाये गये हैं -- 1. ग्राम -- जहाँ राज्य की ओर से अट्ठारह प्रकार के कर लिये जाते हों। 2. नगर -- जहाँ अट्ठारह प्रकार के करों में से एक भी प्रकार का कर न लिया जाता हो। 3. खेट -- जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवाल हो। 4. कर्वट -- जहाँ कम लोग रहते हों। 5. मडम्ब -- जहाँ ढाई कोस तक कोई गाँव न हो। 6. पत्तन -- जहाँ सब वस्तएँ उपलब्ध हों। 7. आकार -- जहाँ धातु की खाने हों। 8. द्रोणमुख -- जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो। 9. निगम -- जहाँ व्यापारियों की वस्ती हो। 10. राजधानी -- जहाँ राजा के रहने के महल आदि हों। 11. आश्रम -- जहाँ तपस्वी आदि रहते हों। 12. निवेश -- जहाँ सार्थवाह अपने माल उतारते हों। 13. सम्बाध -- जहाँ कृषक रहते हों। 14. घोष -- जहाँ गाय आदि चराने वाले रहते हों। 15. अंशिका -- गाँव का अर्ध, तृतीय अथवा चतुर्थ भाग। 16. पुभेदन -- जहाँ दूर-दूर से पर गाँव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों। इसी के साथ ही साथ श्रमण-श्रमणियों से सम्बन्धित आहार, उपाश्रय दिनचर्या, बिहार, मृतक संस्कार, पर्व एवं उत्सव यथा -- रथयात्रा, संखडि आदि का वर्णन किया गया है। अन्त में विभिन्न देवताओं और लोक-प्रचलित महों का वर्णन किया गया है। बृहत्कल्पभाष्य में इन्द्रमह, यक्षमह, पर्वतमह, नदीमह और तडागमह का उल्लेख है। षष्ठ अध्याय में राजनीतिक जीवन का वर्णन किया गया है। यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ राजनीति शास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थ नहीं है, और न ही इसका यह उद्देश्य है फिर भी आलोच्य ग्रन्थ में राज्य एवं शासन से सम्बन्धित अनेक विषयों की चर्चा हुई है। प्राप्त सूचनाओं के आधार पर तत्कालीन शासन व्यवस्था के ऊपर कुछ प्रकाश पड़ता है। बृहत्कल्पभाष्य में राजा के कर्तव्य, राज्याभिषेक, उत्तराधिकार, राज्य के चार प्रकार यथा -- अणराय (अराजक), जुक्सय (यौवराज्य), वेरज्ज (वैराज्य) और देरज्ज (द्वैराज्य) बतलाये गये हैं। उस समय कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने पर मृत्युदण्ड तक दिया जाता था। अनियमितता होने पर राजा अपने मंत्री तक को मृत्युदण्ड दे देता था। किसी युवराज की For Private & Pedal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य का सांस्कृतिक अध्ययन चिकित्सा में असफल होने पर एक बार वैद्य को भी मृत्युदण्ड दे दिया गया था। उस समय चोरों का बहुत आतंक था। वे साध्वियों का अपहरण कर लेते थे। सार्थवाहों के यान नष्ट कर डालते थे। साधुओं के उपाश्रय में जबर्दस्ती घुस जाते थे और उन्हें जान से मारने की धमकी देते थे। आलोच्य ग्रन्थ में उल्लेख है कि एक बार जैन साधु किसी चोर को पकड़कर राजा के पास दण्ड दिलाने के लिए ले गये थे। इसके अलावा इस अध्याय में सैन्य-व्यवस्था, राजप्रासाद एवं दुर्ग का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में चार प्रकार की भेरियों का भी वर्णन मिलता है जिन्हें विभिन्न अवसरों पर बजाया जाता था -- कौमुदिकी, संग्रामिकी, सन्नाहिका और अशिवोपशमिनी । भेरी बजाने वाले को भेरीपाल कहा गया है। सप्तम अध्याय कला एवं स्थापत्य से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला और संगीत कला का विवेचन किया गया है। चित्रकला के अन्तर्गत सदोष एवं निर्दोष चित्रकर्म का और मूर्तिकला के अन्तर्गत मुकुन्द व शिव की काष्ठ प्रतिमाओं को बनाने एवं पूजने का उल्लेख मिलता है। स्थापत्य कला के अन्तर्गत प्रासाद निर्माण, चैत्य-स्तप, द्वार, पताका, ध्वज, तोरण, पीठिका, आसन, छत्र का वर्णन किया गया है। बृहत्कल्पसूत्र में चार प्रकार के प्राकारों का वर्णन है -- पाषाणमय (द्रारिका ), इष्टिकामय (नन्दपुर), मृत्तिकामय (सुमनोमुखनगर) और खोडयानी काष्ठमय । संगीत कला विषयक सामग्री में स्वरों एवं बारह वाद्ययंत्रों के नाम ये हैं -- शंख, श्रृंग, शंखिका, खरमुही, पेया, पटह, भंभा (ढक्का), झल्लरी, भेरी, मृदंग, वीणा, मर्दल। अष्टम अध्याय उपसंहार स्वरूप है। प्रसतुत अध्ययन से निम्न विषयों पर विशेष प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में व्यापार-वाणिज्य के सन्दर्भ में पाँच प्रकार के सार्थवाहों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। सार्थवाहों के साथ यात्रा करना सुरक्षित था। इसीलिए जैन श्रमण-श्रमणियों को उनके साथ यात्रा करने का निर्देश दिया गया है। उस समय समाज में आठ प्रकार के वैद्य होते थे, जो समाज के अभिन्न अंग समझे जाते थे। आचार विषयक ग्रन्थ होने के कारण इसमें श्रमण-श्रमणियों को श्रमण धर्म के पालन करने में आवश्यक छूट दी गई है, जो अतिचार एवं प्रायश्चित्त के साथ अपवादों के रूप में उल्लिखित TOP For Private & egonal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-प्रबन्ध का सार-संक्षेप त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र : एक कलापरक अध्ययन - डॉ. शुभा पाठक ब्राह्मण और जैन दोनों धर्मों में प्रचुर संख्या में पुराणों की रचना की गयी। पांचवीं से दसवीं शती ई. के मध्य जैनधर्म की दोनों ही परम्पराओं में विभिन्न पुराणों एवं चरित ग्रन्थों की रचना हुई। इनमें पउमचरिय (विमलसूरिकृत, 473ई.), वसुदेवहिण्डी (संघदासकृत, लगभग 7वीं शती ई.), कहावली (भद्रेश्वरकृत, लगभग 8वीं शती ई. ), पद्मपुराण (रविष्णकृत, 678ई.), हरिवंशपुराण (जिनसेनकृत, 783ई.), संस्कृत महापुराण (जिनसेन और गुणभद्रकृत, 9वीं-10वीं शती ई. ), अपभ्रंश महापुराण (पुष्पदन्तकृत, 690ई. ), विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में प्राचीन भारतीय परम्परा के जन-चरित्रों (भरत, राम, कृष्ण, बलराम आदि) के साथ ही जैन देवकुल के अन्य शलाकापुरुषों के चरित्र वर्णित हैं। जिनकी कुल संख्या 63 रही है। श्वेताम्बर परम्परा के चरित ग्रन्थों में हेमचन्द्र द्वारा रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (12वीं शती ई. का उत्तरार्द्ध) सर्वाधिक प्रामाणिक और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पूर्वगामी विद्वानों ने जैन पुराणों के आधार पर सांस्कृतिक अध्ययन से सम्बद्ध कई.कार्य किये हैं जिनमें जे.सी.सिकदर (भगवतीसूत्र), गोकुलचन्द जैन ( यशस्तिलक 1967 ), मंजु शर्मा (त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, अप्रकाशित), प्रेमचन्द्र जैन (हरिवंशपुराण), नेमिचन्द्र शास्त्री (आदिपुराण), झिनकू यादव (समराइच्चकहा), रमेशचन्द्र शर्मा (रायपसेणिय ) मुख्य हैं। किन्तु अभी तक कलापरक अध्ययन की दृष्टि से चरित अथवा पुराण साहित्य अछूता रहा है। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है और कला जीवन और समाज की स्वाभाविक अभिव्यक्ति। यही कारण है कि साहित्यिक ग्रन्थों में समाज के अन्य सांस्कृतिक पक्षों के साथ ही कलापरक सामग्री का भी समावेश होता है। पुराण या चरित ग्रन्थों में वर्णित सामग्री अन्य पक्षों के साथ ही मूर्तिकला, लक्षण और स्थापत्य की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन ग्रन्थों में देवमूर्ति निर्माण एवं उनके स्वरूपों की स्पष्ट आधारभूत सामग्री मिलती है जिनके आधार पर ही 24 तीर्थंकरों एवं जैन देवकुल के अन्य देवों के विस्तृत लक्षण नियत हुए और उन्हें मूर्त अभिव्यक्ति मिली। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के कर्ता हेमचन्द्र गुजरात के एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् और श्वेताम्बर परम्परा के जैनाचार्य थे। इस ग्रन्थ की रचना उन्होंने अपने आश्रयदाता कुमार पाल चौलुक्य के अनुरोध पर जन-कल्याण के उद्देश्य से 12वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में की थी। प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन परम्परा के 63 शलाकापुरुषों ( श्रेष्ठ जनों) का जीवन चरित विस्तारपूर्वक वर्णित है। 63 शलाकापुरुषों में 24 तीर्थंकरों या जिनों के अतिरिक्त 12 चक्रवर्तियों, 9 बलदेवों, 9 वासुदेवों तथा 9 प्रतिवासुदेवों का उल्लेख हुआ है। For Private & Perso46 Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र : एक कलापरक अध्ययन हेमचन्द का सोलंकी (चौलुक्य) शासकों जयसिंह, सिद्धराज (1094-1142ई. ) और कुमारपाल (1143-72ई. ) का समकालीन होना तथा गुजरात और राजस्थान के श्वेताम्बर कला केन्द्रों पर शिल्पांकन में आधारभूत ग्रन्थ के रूप में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र का प्रयोग, ऐतिहासिक और कलापरक अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। ज्ञातव्य है कि गुजरात में जैनधर्म और कला के विकास में चौलुक्य राजवंश (लगभग 11वीं-13वीं शती ई.) का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अजय पाल के अतिरिक्त सभी चौलुक्य शासकों ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया जिसमें जयसिंह, सिद्धराज और कुमारपाल विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। चौलुक्य शासकों के काल में कई जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ और उन पर प्रभूत संख्या में तीर्थंकरों एवं अन्य जैन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनीं। इनमें कुम्भारिया ( बनासकांठा, गुजरात) का महावीर, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं सम्भवनाथ मन्दिर (लगभग 1061-13वीं शती ई.), दिलवाड़ा (सिरोही, राजस्थान) का विमलवसही और लूणवसही (1031-1230 ई. ), गिरनार (गुजरात) का नेमिनाथ मन्दिर (1228ई. ), तारंगा (गुजरात) का अजितनाथ मन्दिर (1164ई. ) शत्रुजय पहाड़ी का आदिनाथ मन्दिर (12वीं शती का उत्तरार्द्ध) एवं जालौर (राजस्थान) का महावीर मन्दिर (मूलतः पार्श्वनाथ को समर्पित, 1164ई. ) सर्वप्रमुख हैं। तारंगा और जालौर के जैन मन्दिरों का निर्माण कुमारपाल के काल में हुआ था। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र कलापरक अध्ययन की दृष्टि से निःसन्देह ही अन्य किसी भी कथापरक श्वेताम्बर या दिगम्बर ग्रन्थ की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ के वर्णन की पृष्ठभूमि में ही गुजरात और राजस्थान में कुम्भारिया, तारंगा, दिलवाड़ा, जालौर जैसे श्वेताम्बर स्थलों पर विभिन्न तीर्थंकरों की स्वतन्त्र मूर्तियों, उनके पूर्वभवों एवं जीवनचरित, (कुम्भारिया एवं दिलवाड़ा), महाविद्याओं और तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षियों का शिल्पांकन हुआ। इसी प्रकार बाहुबली के साथ उनकी बहिनों ब्राह्मी एवं सुन्दरी का अंकन तथा विभिन्न स्थलों पर जीवन्तस्वामी महावीर की मूर्तियों के निर्माण की पृष्ठभूमि भी प्रस्तुत ग्रन्थ में द्रष्टव्य है। जीवन्तस्वामी महावीर मूर्ति के लक्षणपरक उल्लेख सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ में मिलते हैं। यद्यपि हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में किसी पूर्ववर्ती आचार्य अथवा उनकी कृतियों का कोई उल्लेख नहीं किया है, किन्तु विषय सामग्री से यह सर्वथा स्पष्ट है कि पूर्व से चली आ रही परम्परा का ही हेमचन्द्र ने न्यूनाधिक अनुकरण किया है और उसी में विवरण एवं लक्षण की दृष्टि से और अधिक विकास किया। आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त पउमचरिय (473ई. ), वसुदेवहिण्डी (लगभग 609ई.), हरिवंशपुराण (783ई. ), कहाक्ली (लगभग 8वीं शती ई.), तिलोयपण्णत्ति (लगभग 8वीं शती ई. ), जिनसेन एवं गुणभद्रकृत महापुराण (9वीं - 10वीं शती ई. ) एवं तिस्सठिमहापुरिसगुणलंकारु (977ई. ) की परम्परा तथा यक्ष-यक्षी के निरूपण में निर्वाणकलिका (पादलिप्तसूरिकृत लगभग 10वीं शती ई. ) का प्रभाव पूरी तरह स्पष्ट है। इस ग्रन्थ पर ब्राह्मण परम्परा (मुख्यतः महाकाव्यों एवं पुराणों) का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। हेमचन्द्र ने विभिन्न कथाओं को ब्राह्मण परम्परा से ग्रहण कर जैनधर्म के अनुरूप प्रस्तुत करने ____For Private & Person47se Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. शुभा पाठक की चेष्टा की है। इस सन्दर्भ में महाभारत एवं रामायण में वर्णित क्रमशः नल और दमयन्ती तथा पुरुहुत एवं गौतम की पत्नी अहिल्या की कथाएँ विशेषरूप से उल्लेखनीय है। नल-दमयन्ती की कथा में दमयन्ती का उल्लेख देवदन्ती नाम से किया गया है। इसी प्रकार उषा और अनिरुद्ध की कथा का उल्लेख हमें हरिवंशपुराण (महाभारत का प्रक्षिप्त अंश) में मिलता है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में वर्णित सुवर्णबाहु और पद्मा की कथा कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् पर आधारित है। ऐसे ही जमदग्नि की कथा का आधार भी महाभारत है। तुलनात्मक मूल्यांकन की दृष्टि से ये सभी कथाएँ रोचक और महत्त्वपूर्ण हैं। राम और कृष्ण को कुषाण गुप्तकाल में ही जैनधर्म और कला में सम्मिलित किया जा चुका था। हेमचन्द्र ने उनका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया और परम्परानुरुप उन्हें 63 शलाकापुरुषों के अन्तर्गत रखा है। इस प्रकार हेमचन्द्र की इस कृति में जैन परम्परा के तीर्थकरों के साथ ही अधिकांश भारतीय परम्परा या किन्हीं अर्थों में वैदिक और ब्राह्मण परम्परा के देवताओं का भी विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है जिनमें कभी-कभी उनके लक्षणपरक उल्लेख भी मिलता है। विषयवस्तु और मुख्य लक्षणों की दृष्टि से हेमचन्द्र की इस कृति का श्वेताम्बर स्थलों की मूर्तियों पर स्पष्ट प्रभाव दिखायी देता है। विषय वैविध्य तथा तत्कालीन कलापरक एवं सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन से सम्बन्धित सामग्री की दृष्टि से यह कृति अनुपम एवं ऐतिहासिक महत्त्व की है। इस ग्रन्थ में दस पर्यों में तीर्थंकरों की जीवनचरित एवं धर्मदेशना का वर्णन हुआ है। यह ग्रन्थ जैनधर्म में तपश्चर्या एवं त्याग के महत्त्व तथा उसके आधारभूत सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है। कुमारपाल चौलुक्य द्वारा वीतभयपत्तन (गुजरात) का उत्खनन करवाकर विद्युन्माली द्वारा निर्मित जीवन्तस्वामी महावीर की प्रतिमा प्राप्त किये जाने जैसे सन्दर्भ ऐतिहासिक महत्त्व के हैं जो एक ओर महावीर के जीवन काल (लगभग छठी शती ई.पूर्व) में जीवन्तस्वामी रूप में वस्त्राभूषणों से सज्जित उनकी प्रतिमा निर्माण एवं पूजन की पूर्व परम्परा का समर्थन करते हैं वहीं भारत में देवमूर्ति निर्माण एवं पूजन की प्राचीनता से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण साक्ष्य भी प्रस्तुत करते हैं। पुरातत्त्व एवं उत्खनन के साहित्यिक सन्दर्भ की दृष्टि से भी हेमचन्द्र की यह सूचना महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त यह ग्रन्थ प्राचीन भारतीय समाज के विविध पक्षों एवं परम्पराओं को भी उजागर करता है यथा -- आदिनाथ के विवाह के सन्दर्भ में वर्णित विभिन्न प्रथाएँ तथा रीति-रिवाज, गन्धर्व विवाह का प्रचलन, पिता-पुत्री के मध्य विवाह की प्रथा आदि। तीर्थंकरों द्वारा दिये गये उपदेशों के माध्यम से जैनदर्शन पर भी प्रकाश डाला गया है। उपर्युक्त अध्ययन को प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आठ अध्यायों में विभक्त किया गया है, जो क्रमशः प्रस्तावना, जैनदेवकुल, तीर्थंकर (जिन), जिनेतर शलाकापुरुष, यक्ष-यक्षी (शासन देवता), विद्यादेवियाँ तथा अन्य देवी-देवता शीर्षकों से अभिहित हैं। आठवा और अन्तिम अध्याय उपसंहार है। अन्त में पाँच परिशिष्ट भी दिये गये हैं जिसमें जैन पोथी चित्र, समवसरण, चैत्य तथा जैन मूर्तिलक्षण तालिका सम्मिलित हैं। आगे विस्तृत सन्दर्भ-सूची तथा चित्र-सूची भी दी गयी है। विषय को भली-भाँति स्पष्ट करने के आशय से 54 चित्र भी दिये गये हैं। For Private & Pe48 al Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-प्रबन्ध का सार-संक्षेप काशी के घाट : कलात्मक एवं सांस्कृतिक अध्ययन - डॉ. हरिशंकर विश्व की प्राचीन नगरियों में काशी एक मात्र ऐसी नगरी है जहाँ की धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना और गतिविधियाँ प्राचीन काल से आज तक जीवन्त और गतिमान रूप में विद्यमान हैं। काशी की धार्मिक सांस्कृतिक निरन्तरता के मूल में यहाँ की धार्मिक-सांस्कृतिक समन्वय की प्रवत्ति रही है। काशी का यह समन्वयात्मक विराट स्वरूप गंगातट के घाटों पर मूर्तिमान रूप में आज भी विद्यमान है। काशी में विभिन्न संस्कृतियों के प्रभाव और परस्परता का मूल गंगा के तट पर इसकी स्थिति रही है। साथ ही पूर्व में कलकत्ता, पटना तथा उत्तर में इलाहाबाद, कानपुर, अयोध्या और कन्नौज जैसे नगरों के साथ इसका व्यापारिक सम्बन्ध भी महत्त्वपूर्ण रहा है। प्राक् मौर्यकाल से ई.पू. के मध्य घाटों पर यक्ष, नाग और प्रकृति पूजन की धार्मिक परम्परा रही है। सांस्कृतिक क्रिया-कलापों में जलोत्सव, मन्दिरोत्सव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इस काल तक घाटों की धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ राजघाट और समीपवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित थी किन्तु ई. सन् के बाद घाटों का क्रमशः विकास हुआ और उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में वृद्धि हुई। असि से आदि केशव तक फैले 79 घाटों पर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों एवं सामाजिक-धार्मिक परिवेशों से सम्बद्ध सांस्कृतिक जीवन के दर्शन होते हैं। घाटों एव घाटों के समीपवर्ती क्षेत्रों में सम्पूर्ण भारत के लोगों का निवास है, जहाँ उनकी समग्र सांस्कृतिक गतिविधियाँ सम्पन्न होती. हैं। काशी के घाटों पर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से विभिन्नता में एकता की परम्परा का व्यावहारिक रूप देखने को मिलता है। घाटों पर विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृतियाँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कायम रखते हुए काशी की परम्परागत रहन-सहन, भाषा-बोली, आचार-विचार, पर्व-महोत्सव में पूरी तरह घुली-मिली हैं। काशी में गंगा के उत्तरवाहिनी होने के कारण भी इसकी विशेष धार्मिक मान्यता रही है। काशी में गंगा के दर्शन, पूजन, स्पर्श, नाम उच्चारण, गंगा वायु एवं जल के सवन और गंगास्नान सभी को पुण्यदायी माना गया है। फलतः सम्पूर्ण भारत के राजाओं-महाराजाओं, साधु-सन्तों, सामान्य एवं याचकजनों ने काशी में गंगा तट के घाटों पर ही अपना निवास बनाया जिसके फलस्वरूप गंगा तट के घाटों पर सम्पूर्ण भारत के लोग और उनसे जुड़ी धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ विकसित हुई। घाटों एवं घाटों के समीपवर्ती क्षेत्रों में आन्ध्र, कर्नाटक, तमिल, महाराष्ट्री, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, भोजपुरी, बंगाली, पंजाबी, सिन्धी एवं नेपाली लोगों की बहुलता अलग-अलग घाटों पर द्रष्टव्य है। घाटों पर स्नानार्थियों के साथ ही तीर्थ यात्रियों, देश-विदेश के पर्यटकों, पण्डे-पुरोहितों, व्यापारियों, नाविकों, धोबियों, नाइयों, डोमों (हरिश्चन्द्र For Private & Personase Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशी के घाट : कलात्मक एवं सांस्कृतिक अध्ययन एवं मणिकर्णिका घाटों पर) याचकों, कर्मकाण्डियों, तपस्वियों, तांत्रिकों, कलाकारों एवं कला साधकों, स्त्री-पुरुषों, बालक-बृद्धों आदि सभी की उपस्थिति देखी जा सकती है। घाटों पर भांग-बूटी छानने, दण्ड-बैठक लगाने, गदा-जोड़ी फेरने एवं नौका विहार जैसी दैनिक क्रियाओं के अतिरिक्त विभिन्न पर्यों एवं अवसरों पर आयोजित नौका दौड़, तैराकी, वाटर पोलो, मुक्केबाजी (मुक्की) गंगा में नौकाओं पर आयोजित नृत्य-संगीत, गायन-वादन, दीपावली एवं कार्तिक पूर्णिमा को होने वाला दीप प्रज्ज्वलन, नाग-नथैया (कालिय नागमर्दन) मेला, रामलीला, नृसिंह मेला, दुर्गापूजा, कालीपूजा, सरस्वतीपूजा, गणेशपूजा एवं विश्वकर्मापूजा के पश्चात् मूर्तियों के गंगा में विसर्जन जैसे अवसरों पर काशी और काशी के बाहर के लोगों की सामुहिक उपस्थिति होती है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मत्स्यपुराण, लिंगपुराण, अग्निपुराण, वायुपुराण, स्कन्दपुराण के काशीखण्ड, ब्रह्मवैवर्तपुराण के काशी रहस्य तथा कृत्यकल्पतरु एवं त्रिस्थलीसेतु जैसे ग्रन्थों का अध्ययन किया गया है। उपर्युक्त पुराणों एवं ग्रन्थों के अतिरिक्त 14वीं से 17वीं शती ई. के मध्य के कई अन्य ग्रन्थों में घाटों का उल्लेख मिलता है, जिनका समुचित उपयोग किया गया है। साथ ही गहड़वाल एवं अन्य उपलब्ध लेखों, प्रकाशित विद्वानों के लेखों, पुस्तकों का भी पूरा उपयोग किया गया है। स्वयं मैंने घाटों का विस्तृत सर्वेक्षण किया है और उसके आधार पर घाटों के अतीत और वर्तमान के सांस्कृतिक और कलात्मक स्वरूप को प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध छः अध्यायों में विभक्त है। प्रस्तावना से सम्बन्धित प्रथम अध्याय में काशी के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्त्व की संक्षिप्त विवेचना के साथ ही घाटों का महत्त्व भी बताया गया है। पूर्व कार्यों की विवेचना भी की गयी है। दूसरे अध्याय में प्रारम्भ से लेकर 18वीं शती ई. तक के घाटों के ऐतिहासिक विकास को उनके धार्मिक-सांस्कृतिक महत्त्व की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया गया है। तीसरे अध्याय में वर्तमान (19वीं-20वीं शती ई. ) में काशी के घाटों की स्थिति एवं उनके धार्मिक-सांस्कृतिक महत्त्व का विस्तार पूर्वक अध्ययन हुआ है। चौथे अध्याय में असि से आदिकेशव तक के घाटों पर स्थित विभिन्न स्थापत्य शैलियों वाले मन्दिरों का विवेचन किया गया है। पांचवा अध्याय घाटों पर स्थित मन्दिरों की मूर्तियों से सम्बन्धित है। इस अध्याय में मन्दिरों में प्रतिष्ठित शिव (लिंग रूप) विष्णु, सूर्य (मुख्यतः आदित्य रूप), शक्ति, गणेश, ब्रह्मा, हनुमान तथा गंगा एवं नवग्रह की मूर्तियों के साथ ही जैन मन्दिरों की मूर्तियों का भी अध्ययन किया गया है। विभिन्न घाटों पर बिखरी (7वीं से 18वीं शती ई. की) उमा महेश्वर, दक्षिणा मूर्ति, कल्याण सुन्दर, गजान्तक, भैरव, विष्णु, शेषशायी विष्णु, बलराम-रेवती, कार्तिकेय, पार्वती, महिषमर्दिनी, गजलक्ष्मी आदि प्राचीन देव मूर्तियों का भी इस अध्याय में निरुपण हुआ है। अन्तिम अध्याय उपसंहार के रूप में है जिसमें सम्पूर्ण अध्ययन के निष्कर्षों को क्रमबद्ध रूप में संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। साथ ही आधुनिक बदलाव की परिस्थितियों एवं मनोवृत्ति की पृष्ठभूमि में घाटों के पारम्परिक स्वरूप की रक्षा के लिए कुछ सुझावों का भी संकेत किया गया है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'डॉ. हरिशंकर शोध-प्रबन्ध के अन्त में दो परशिष्ट दिये गये हैं जिनमें घाटों पर यत्र-तत्र बिखरी व __ मन्दिरों में सुरक्षित प्राचीन मूर्तियों (प्रारम्भ से 16वीं शती ई. तक) और घाटों पर स्थित मंदिरों की विस्तृत सूची दी गयी है। परिशिष्ट के पश्चात् विस्तृत सन्दर्भ-सूची एवं चित्र-सूची और 162 रंगीन तथा श्वेत-श्याम चित्र दिये गये हैं। प्रो. नरेन्द्र भाणावत का असामयिक निधन . जैन विद्या एवं हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान, कर्मठ एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के प्रो. नरेन्द्र भाणावत को 4 नवम्बर, 1993 को काल के क्रूर हाथों ने असमय में ही हमसे छीन लिया। डॉ. नरेन्द्र भाणावत का जन्म सितम्बर सन् 1934 को कानोड़ ( उदयपुर ) में हुआ था। पिछले छः महीने से आप कैसर रोग से ग्रस्त थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. भाणावत अदम्य उत्साह से भरे रहते थे। ज्ञान साधना एवं सामाजिक गतिविधियों के क्षेत्र में आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है। आपने हिन्दी, राजस्थानी तथा जैन साहित्य की विविध विधाओं में 50 से अधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया, दो दर्जन से अधिक ग्रन्थों का सम्पादन किया। गत तीन दशक से "जिनवाणी" मासिक का सम्पादन कर आपने अनेक महत्त्वपूर्ण पठनीय एवं मननीय विशेषांक प्रकाशित किये हैं। कैंसर व्याधि की असीम वेदना के क्षणों में भी आपने 40 कविताओं का संग्रह "ऐ मेरे मन" लिखा। साहित्य एवं समाज के प्रति आपकी सेवाओं को समाज ने स्वीकारा और आपका सम्मान करते हुए श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर ने 'अक्षर प्रज्ञ' उपाधि प्रदान करते हुए 51 हजार रुपये की राशि भेंट की। अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ, जोधपुर एवं सम्याज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर ने आपको "साहित्य मनीषी" उपाधि से सम्मानित कर एक लाख रुपये की थैली भेट की थी। अखिल भारतीय स्तर पर जैन समाज की धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक संस्थाओं के माध्यम से बहुमूल्य योगदान करने वाले इस सरल, आडम्बरविहीन एवं निरभमानी साधक से अभी जैन समाज को बड़ी आशायें थीं। उनकी क्षति अपूरणीय है। उन्होंने कैंसर की असीम वेदना को समभाव पूर्वक सहन कर एक अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया। पार्श्वनाथ विद्याश्रम परिवार उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है। 51 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-समीक्षा "शब्दों की गागर में आगम का सागर", लेखक - आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि, प्रकाशक - श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर, प्रकाशन वर्ष - 1682, पृ. 218, मूल्य 50/- मात्र। प्रस्तुत कृति में आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने तीन महत्त्वपूर्ण आगमों आचारांग, स्थानांग एवं समवायांग की विषयवस्तु का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक के तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में आचारांगसूत्र का अन्तरंग दर्शन, आचारांग का व्याख्या साहित्य, इस आगम से चुने हुए सुभाषित वचन आदि संकलित हैं। इस खण्ड के 'समग्र-दर्शन' नामक अध्याय में आचारांग की विषय-वस्तु, इसके कर्ता आदि के विषय में भी प्रकाश डाला गया है। द्वितीय खण्ड में स्थानांगसूत्र का स्वरूप और परिचय, इसका दार्शनिक विश्लेषण, स्थानांग पर लिखित व्याख्या साहित्य एवं स्थानांग से चुने सुभाषित वचन हैं। इस खण्ड में स्थानांगसूत्र का जो बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन किया गया है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पुस्तक के ततीय और अन्तिम खण्ड में समवायांगसूत्र के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। साथ ही इसकी विषयवस्तु का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक तीनों आगमों के स्वरूप को उन पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने में उपयोगी है, जो इन मूल आगमों का विस्तृत और गहन अध्ययन न कर पाने के कारण इनका लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। पुस्तक अनेक दृष्टियों से उपयोगी है। "बरसात की एक रात", लेखक - गणेश ललवानी, अनुवाद - राजकुमारी बेगानी, प्रकाशन - प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण 1993, आकार - क्राउन सोलहपेजी, पृ.102, मूल्य 45/- मात्र। _ गणेश ललवानी द्वारा लिखित पुस्तक 'बरसात की एक रात जैन कथाओं का एक अनूठा संग्रह है। इस प्रस्तक में ललवानी जी की नौ कहानियाँ संकलित हैं। इन कथाओं में 'नाग की आत्मकथा', पाटलीपुत्र का इतिवृत्त, शकुनिका विहार, ‘उडन तस्तरी' आदि प्रमुख हैं। 52 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलीपुत्र का इतिवृत्त नामक कथा में पाटलीपुत्र के नामकरण की विवेचना मिलती है। शकुनिका विहार कथा में लेखक ने भड़ौच की जामा मस्जिद के बारे में लिखा है -- 'शकुनिका विहार जैन मन्दिर को ईस्वी सन् 1329 में गयासुद्दीन तुगलक ने मस्जिद में रूपान्तरित कर दिया।' ऐसा जामा मस्जिद के पुरातत्त्व विभाग के प्लेट में लिखा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। इसमें वर्णित अन्य कथाओं में भी न केवल मनोरंजन है अपितु जीवन और दर्शन के अनेक सत्य उघाटित होते हैं। इस पुस्तक का आमुख विद्वान सम्पादक डॉ. नेमीचन्दजी जैन द्वारा लिखा गया है। इसके साथ इस पुस्तक के अन्त में कुछ महत्त्वपूर्ण सम्मतियाँ भी हैं। पुस्तक की साज-सज्जा सुन्दर है। भाषा सरल, मुद्रण सुन्दर एवं निर्दोष हैं। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। "वर्द्धमान महावीर", लेखक - गणेश ललवानी, अनुवाद - राजकुमारी बेगानी, प्रकाशिका - पुष्पावैद, 16 महेन्द्रराय लेन, गोबरा, कलकत्ता, आकार - डिमाई, अठपेजी, पृ.सं. 159, प्रथम संस्करण 1993, मूल्य 60/- मात्र। प्रस्तुत पुस्तक गणेश ललवानी द्वारा मूल बंगला में लिखित 'वर्द्धमान महावीर' का हिन्दी रूपान्तर है। श्रीमती राजकुमारी बेगानी ने लेखक के मूल भावों को सघन एवं सक्षम रूप से हिन्दी में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में भगवान महावीर के जीवन की अनेक घटनाओं का सजीव चित्रण किया गया है। साथ ही वर्द्धमान के जीवन पर आधारित पुष्पा वैद द्वारा बनाये गये महत्त्वपूर्ण एवं सुन्दर बहुरंगी चित्र भी इस पुस्तक में दिये गये हैं जिससे पुस्तक का महत्त्व और भी बढ़ गया है। पुस्तक महावीर स्वामी के जीवन के विविध पहलुओं को अत्यन्त मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करती है। इसकी साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण निर्दोष है। पुस्तक पठनीय एवं उपयोगी है। "जैनदर्शन और कबीर एक तुलनात्मक अध्ययन", लेखिका - साध्वी डॉ. मंजुश्री, प्रकाशक -- आदित्य प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1992, आकार - डिमाई अठपेजी, पृ. 456, मूल्य 450/- मात्र। प्रस्तुत कृति साध्वी मंजुश्री जी की शोध कृति है जिस पर उन्हें पूना विश्वविद्यालय से For Private personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त हुई है। वर्तमान में जो शोध प्रबन्ध आ रहे हैं उनकी तुलना में यह प्रबन्ध विशिष्ट है। यह केवल कबीर और जैनदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन नहीं अपितु जैनधर्म और दर्शन का आद्योपांत प्रमाण पुरातत्व प्रतिपादन है। इसमें जैनधर्म-दर्शन और इतिहास सभी कुछ अपने प्रामाणिक स्रोतों के आधार पर प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें जैन-दर्शन का प्रस्तुतीकरण सम्प्रदाय निरपेक्ष और तटस्थ दृष्टि से किया गया है। विशेषता यह है कि प्रत्येक विचार या परम्परा के विकास का कालक्रम से प्रस्तुतीकरण किया गया है। कर्मकाण्ड, जातिवाद आदि की समीक्षा की दृष्टि से प्रस्तुत कृति में जो विवेचन उपलब्ध होता है, वह निःसन्देह अद्वितीय है। जैन दर्शन के प्रत्येक पक्ष पर तुलनात्मक रूप से कबीर के मन्तव्यों का प्रस्तुतीकरण इस तथ्य का प्रमाण है कि साध्वी श्री ने न केवल जैनदर्शन का गम्भीर अध्ययन किया है, अपितु उन्होंने कबीर के साहित्य में भी गहरी डुबकी लगाई है। प्रस्तुत कृति 6 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में जैन परम्परा का आदि काल से लेकर कबीर के युग तक का सांगोपांग इतिवृत्त वर्णित है। दूसरे अध्याय में जैन तत्त्वमीमांसा और कबीर की तत्त्वमीमांसा का तुलनात्मक अध्ययन है। तृतीय अध्याय जैनधर्म और कबीर की साधना पद्धति के विविध आयामों को उजागर करता है। चतुर्थ और पंचम अध्यायों में क्रमशः श्रावकाचार और श्रमणाचार का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। षष्ठम अध्याय उपसंहार स्प है, जिसमें जैनधर्म दर्शन और कबीर के मन्तव्यों का तुलनात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत कृति की भाषा सहज और प्रवाहमय है। सामान्य पाठक भी इसे समझने में कहीं क्लिष्टता का अनुभव नहीं करते। तुलना के क्षेत्र में भी साध्वी जी पूर्ण तटस्थता बनाये रखीं। आग्रह-दुराग्रह और परम्परा-पोषण का कोई भी प्रयत्न नहीं किया जो कि एक अच्छे शोध-प्रबन्ध की विशेषता है। कृति न केवल विद्वानों अपितु उन सामान्यजनों के लिए भी उपयोगी है, जो जैनधर्म और दर्शन के मूल उत्स को समझना चाहते हैं। साज-सज्जा आर्कषक और मुद्रण निर्दोष है। प्रत्येक पुस्तकालय के लिए यह कृति संग्रहणीय है। "आत्मा ही है शरण", लेखक - डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल, प्रकाशक - पण्डित टोडरमल स्मारक, ट्रस्ट, जयपुर, प्रथम-संस्करण, 1993, पृ. 230, मूल्य 11/- मात्र / प्रस्तुत कृति के लेखक डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल विदेशों में बसे भारतीय जैनों में उनकी आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने तथा जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के कार्य में लगे हैं। विदेशों में डॉ. भारिल्ल ने अनेक व्याख्यान दिए, जिन्हें वे वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीय में लिखते रहे. हैं। इस कृति में उनके कई पुस्तकाकार व्याख्यानों को संशोधित करके 'आत्मा ही है शरण नाम से प्रकाशित किया गया है। For Private 254rsonal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुस्तक में विदेशों में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता, विदेशों में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की सम्भावनाएँ, आत्मा ही परमात्मा है तथा आत्मा ही है शरण के अन्तर्गत कुल आठ व्याख्यान हैं तथा अन्त में तीन परिशिष्ट भी हैं। आत्मा ही है शरण नामक लेख में णमोकार मंत्र पर गहराई से प्रकाश डाला गया है। अन्य लेख भी रोचक एवं उपयोगी हैं। पुस्तक आर्कषक व मुद्रण शुद्ध है। यह पुस्तक सामान्य पाठकों के लिए विशेष उपयोगी है। कृति संग्रहणीय है। "समयसार अनुशीलन", लेखक - डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल, प्रकाशक - पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर, द्वितीय संस्करण, 1993, पृ. 246, मूल्य 10/- मात्र / प्रस्तुत कृति समयसार अनुशीलन के लेखक डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल जैन जगत के बहुश्रुत विद्वान हैं। आपने आत्मधर्म और वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीय के रूप में अनेक विषयों पर काफी कुछ लिखा है। समयसार अध्यात्मप्रेमियों के लिए तो बहुचर्चित विषय है ही साथ ही साथ यह आज जन-जन के पठन-पाठन की वस्तु हो गयी है। इस कृति में डॉ. भारिल्ल ने 1 से 25 तक गाथाओं एवं कलशों का पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। आपने प्रत्येक गाथा के मर्म को बखूबी उजागर किया है। इस कृति का तीन माह के अन्दर दूसरा संस्करण प्रकाशित होना इसकी मूल्यवत्ता को बताता है। इस पुस्तक से अध्यात्म प्रेमी जैन समाज एवं साधारणजन को समयसार के सम्यक् अध्ययन का लाभ मिल सकेगा ऐसी आशा है। पुस्तक अनेक दृष्टि से उपयोगी है। "उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ", सम्पादक - प्रद्युम्नविजय जी जयंतकोठारी, कांतिभाई बी.शाह, प्रकाशक - महावीर जैन विद्यालय, अगस्तक्रांति मार्ग, बम्बई-36, प्रकाशन वर्ष - मार्च, 1993, आकार - डिमाई सोलहपेजी, पृ. 344+18 प्रस्तुत कृति उपाध्याय यशोविजय जी की त्रिशताब्दी के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में यशोविजय जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पठित विविध निबन्धों का एक संकलन है। सभी निबन्ध प्रतिष्ठित विद्वानों के द्वारा लिखित एवं खोजपूर्ण हैं। इसमें उपाध्याय जी की विभिन्न कृतियों का समीक्षात्मक विवरण उपलब्ध हो जाता है। आयोजकों की यह विशिष्टता रही कि उन्होंने उपाध्याय जी की अलग-अलग कृतियों पर अलग-अलग व्यक्तियों से समीक्षण करवाया। इस प्रकार यह ग्रन्थ उपाध्याय जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का समग्र विवरण प्रस्तुत For Private Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर देता है। उपाध्याय जी की भाषा रहस्य आदि ऐसी अनेक कृतियाँ जो सामान्यजनों को ज्ञात नहीं उनका भी प्रामाणिक विवरण इसमें दिया गया है। केवल एक निबन्ध को छोड़कर शेष सभी निबन्ध गुजराती भाषा में हैं। प्रस्तुति सुन्दर है। ग्रन्थ संग्रहणीय और पठनीय है। इसके लिए सम्पादक और प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं। भविष्य में यदि इन लेखों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जाय तो हिन्दी भाषी पाठकों को लाभ होगा। ग्रन्थ की साज-सज्जा आकर्षक है एवं मुद्रण निर्दोष है। "गाथा", वाचना-प्रमुख -- आचार्य तुलसी, प्रणयन - युवाचार्य महाप्रज्ञ, संपादन - साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा, प्रकाशक - जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं, (राजस्थान), प्रथम संस्करण, 1993, पृ.सं. 500, मूल्य 250/- मात्र / प्रस्तुत कृति वस्तुतः एक संग्रह ग्रन्थ है। इसमें जैनधर्म-दर्शन एवं आचार से सम्बन्धित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर आगम वचन संकलित किये गये हैं। सर्वप्रथम इसमें समता की जैन अवधारणा का प्रतिपादन है उसके बाद सम्यगदर्शन, सम्यगज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित प्रमुख अंश आगमों से संकलित हैं। सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत ही मुनिधर्म एवं गृहस्यधर्म के सन्दर्भो का संकलन भी है। पंचम अध्याय में ज्ञान एवं क्रिया के समन्वय सम्बन्धी विचारों का संकलन किया गया है। षष्ठम एवं सप्तम अध्याय में सृष्टिपाद एवं कालचक्र से सम्बन्धित विषयों का प्रस्तुतिकरण है। अष्टम अध्याय में सामाजिक व्यवस्था व नवम अध्याय में धर्मसंघ की व्यवस्था सम्बन्धी आगमिक सन्दर्भो को प्रस्तुत किया गया है। दशम तीर्थंकर परम्परा और महावीर तथा उनकी शिष्य संपदा से सम्बन्धित है। एकादश अध्याय में जैनशिक्षा विधि के विविध पक्षों को संकलित किया गया है। द्वादश अध्याय में धर्म, त्रयोदश में वीतराग साधना तथा चतुर्दश अध्याय में विश्वशान्ति व निःशस्त्रीकरण से सम्बन्धित आगमिक सन्दर्भ संकलित हैं। पंचदश व षोडश अध्याय क्रमशः आत्मवाद व कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित हैं। सप्तदश व अष्टादश में क्रमशः नयवाद व अनेकान्तवाद से सम्बन्धित आगमिक सन्दर्भ संकलित हैं। ग्रन्थ का द्वितीय खण्ड महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है इसमें उनका पारिवारिक विवरण, साधना और तीर्थ प्रवर्तन से सम्बन्धित आगमिक सन्दर्भ प्रस्तुत हैं। इसप्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ जैनधर्म व दर्शन सम्बन्धी आगमिक उद्धरण का एक सुव्यवस्थित व संक्षिप्त संकलन है। इसे हम जैनधर्म सूक्त कोष भी कह सकते हैं। आचार्य तुलसी का दिशा निर्देश व युवाचार्य महाप्रज्ञ की प्रज्ञा से निष्पन्न यह ग्रन्थ न केवल सामान्य अध्येताओं के लिए अपितु विद्वानों शोधकर्ताओं के लिए भी उपयोगी है क्योंकि यह जैनधर्म, दर्शन व आचार सम्बन्धी सभी पक्षों के आगमिक सन्दर्भो को एक ही स्थान पर सुलभ कर देता है। ग्रन्थ की एक कमी सबसे अधिक खलती है, वह यह कि इसमें संकलित वचनों के मूलस्रोतों के सन्दर्भ नहीं दिये गये है। यदि ये सन्दर्भ दिये For Private & 56 nal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाते तो ग्रन्थ की उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती और यह शोधकर्ताओं के लिये भी उपयोगी बन जाता / सम्भवतः अगले संस्करण में इस कमी का परिमार्जन कर दिया जायेगा। इस प्रकार कहीं-कहीं मूल और अर्थ में समरूपता का अभाव है यथा अध्याय 1, सूक्त 31, पृ.19 1 ग्रन्थ के अन्त में दी गयी सूक्त व सुभाषित तथा पारिभाषिक शब्दकोष एवं नामानुक्रम ग्रन्थ की महत्ता बढ़ा देते हैं। मुद्रण निर्दोष है, ग्रन्थ संग्रहणीय एवं पठनीय है। आचार्य श्री तुलसी को इन्दिरागांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार उन व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है जो आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा के आधार पर साम्प्रदायिक सौहार्द तथा उपेक्षितों की मदद करते हुए राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करते हैं। इस वर्ष का राष्ट्रीय एकता पुरस्कार अणुव्रत आन्दोलन के प्रणेता और मानवतावादी आचार्य श्री तुलसी को प्रदान किया गया। आचार्य तुलसी सर्वप्रथम अपने को एक मानव मानते हैं और मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु समर्पित हैं। वे मनुष्यों में आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के विकास हेतु अणुव्रत आन्दोलन के प्रस्तोता हैं। राष्ट्र में अहिंसा और शान्ति की स्थापना के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे हैं। वस्तुतः वे पुरस्कार और सम्मान से निरपेक्ष है वे कहते हैं मैं केवल आत्मनिष्ठा और अहिंसा की साधना की दृष्टि से ही कार्य करता हूँ मेरी न कोई आकांक्षा है और न कोई स्पर्धा। वस्तुतः उनका यह सम्मान मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित व्यक्तियों का सम्मान है, कर्तव्यनिष्ठा का सम्मान है। आचार्यश्री को दिये गये इस सम्मान से सम्पूर्ण जैन समाज अपने को गौरवान्वित अनुभव करता है और यह मंगल कामना करता है कि आचार्यश्री आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की स्थापना और राष्ट्रीय एकता के लिए युगों-युगों तक हमारा मार्ग प्रशस्त करते रहें। For Private ersonal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त 1. श्री जितेन्द्र बी. शाह, निदेशक, शारदाबहन चिमनभाई एजुकेशनल रिसर्च सेन्टर, अहमदाबाद को द्वादशारनयचक्र का दार्शनिक अध्ययन विषय पर दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा पी-एच.डी. की उपाधि प्रदान की गयी है। आपने पार्श्वनाथ शोधपीठ के निदेशक प्रो. सागरमल जैन के निर्देशन में अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। 2. श्री सुरेश सिसोदिया, शोधाधिकारी आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर को "जैनधर्म के प्रमुख सम्प्रदायों की दर्शन तथा आचार सम्बन्धी समानताओं एवं असमानताओं का तुलनात्मक अध्ययन" विषय पर मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर द्वारा पी.एच.डी. की उपाधि प्रदान की गई है। आपने अपना शोधप्रबन्ध डॉ. एस. आर. व्यास (विभागाध्यक्ष दर्शन विभाग) के निर्देशन में प्रस्तुत किया था। उन्होंने पार्श्वनाथ शोधपीठ में रहकर संस्थान के निदेशक प्रो. सागरमल जैन के सहयोग एवं मार्गदर्शन में यह शोधकार्य पूर्ण किया था। शारदाबहन चिमन माई एजुकेशनल रिसर्च सेन्टर अहमदाबाद -- शारदाबहन चिमनभाई एजुकेशनल रिसर्च सेन्टर ने डॉ. जितेन्द्र बी. शाह के / निदेशकत्व में अल्प समय में ही संतोषजनक प्रगति की है। इस संस्थान ने सर्वप्रथम भारत में जैन आगमों की गाथाओं को कम्प्यूटर में फीड करवाया। प्रदत्त सूचना के अनुसार लगभग 1 लाख गाथाएँ फीड की गई हैं, जिन्हें चार सौ विषयों में विभाजित किया गया है। इस प्रयास की उपलब्धि यह है कि अब जैन आगमों की गाथाओं को भारत की किसी भी लिपि में लिप्यान्तरित करके पढ़ा जा सकता है। साथ ही वांछित विषयों की गाथाओं को बिना किसी विशेष श्रम के एक स्थान पर संग्रहीत किया जा सकता है दूसरे शब्दों में आगमिक गाथाओं का विषयानुक्रम के आधार पर संकलन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त श्वे. आगमों की गाथाओं का परस्पर तथा दिगम्बर परम्परा के आगमों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। यह सम्पूर्ण कार्य जैन विद्या के क्षेत्र में शोध कार्य करने वालों के लिए बहुत ही उपयोगी है। जैन विद्या के अध्ययन के क्षेत्र में आधुनिक तकनीकों के उपयोग के लिए यह संस्था निश्चय ही धन्यवाद की पात्र है, इस संस्था द्वारा जैनदर्शन और भारतीय संस्कृति के प्रमाणभूत इतिहास तैयार करने की बृहद योजना पर भी कार्य हो रहा है। इसमें भारत के प्रख्यात इतिहासविदों का सहयोग लिया जा रहा है। 58 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् लावा, गरदारगढ़, 7 नवम्बर, 1993 को राजसमन्द के समीप स्थित लावा सरदारगढ़ में राजस्थान साहित्य अकादमी और अम्बागुरु शोध संस्थान के संयुक्त तत्त्वावधान में द्विदिवसीय आंचलिक के रचनाकार सम्मेलन सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर राजस्थान के विधि न्यायमंत्री शांतिलाल चपलोत भी उपस्थित थे। इस सम्मेलन में राजग्थान शासन से यह अनुरोध किया गया कि वह स्थान-स्थान पर पुगतल्व संग्रहालयों को स्थापित कर राजस्थान में विखरी हुई असंख्य पाण्डुलिपियों को संग्रहीत और संरक्षित करने हेतु कोई कारगर कदम उठाये, ताकि भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य निधि भावी-पीढ़ियों को भी उपलब्ध रह सके। मावली -- अम्बागुरु शोध संस्थान के तत्त्वावधान में एवं श्री सौभाग्यमनिजी कमद के सान्निध्य में 21 नवम्बर 1993 को आगम संगोप्ठी सम्पन्न हुई। इस संगोष्ठी में सर्वश्री डॉ. प्रेमसुमन जैन ने "भगवतीसत्र में पर्यावरण", डॉ. उदयचन्द्र जैन ने "भगवतीसत्र में भापावैज्ञानिकअध्ययन", डॉ. सुपमासिंघवी ने "भगवतीसूत्र में अनेकान्तवाद", डॉ. हुकुम चन्द्र जैन ने "भगवतीसूत्र में प्रतिपादित स्वप्नदर्शन", डॉ. सुरेश सिसोदिया ने "भगवतीसूत्र में तीर्थंकरों की आचार परम्परा में मान्यता भेद", कुमारी रचना जैन ने "भगवतीपत्र में वनस्पति विज्ञान : एक विश्लपण", डॉ. देवकोठारी ने "भगवतीमत्र का ऐतिहासिक अध्ययन" और श्री सौभाग्यमुनिजी ने भगवतीमत्र में परामनोवैज्ञानिक तत्व पर अपने शोध पत्रों का वाचन किया। इग संगोष्ठी की अध्यक्षता, डॉ. प्रेम गुगन जैन ने की। इस अवगर पर गावली श्री गंघ दाग विद्वानों को शाल आढाकर सम्मानित किया गया। मैसूर -- मैसूर विश्वविद्यालय में प्राकृत और जैन विद्या विभाग के अन्तर्गत दिनांक 16,17 नवम्बर, 1993 को डॉ. ए.एन. उपाध्ये स्मृति व्याख्यानमाला सम्पन्न हुई। इस वर्ष व्याख्यानमाला के व्याख्यानदाता थे-- प्रो. एम.डी. वसन्तराज। उन्होंने "प्राकृत साहित्य को कर्नाटक का अवदान" तथा "भद्रबाहु की कथायें और उनकी ऐतिहासिकता" विषय पर अपने व्याख्यान दिये। अहमदाबाद -- गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद के अन्तर्राष्ट्रीय जैन अध्ययन केन्द्र के अन्तर्गत डॉ. मधरोन के निर्देशन में जैन विद्या और आधुनिक परिप्रेक्ष्य विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें जैन विद्या में शोध की सम्भावनाओं और आधुनिक वैज्ञानिक संयन्त्रों जैसे कम्प्यूटर आदि के उपयोग पर गम्भीरता पूर्वक विचार-विमर्श किया गया। संगोष्ठी के मुख्यवक्ता प्रो. दलसुखभाई मालवणिया थे और संयोजन डॉ. मधुसेन ने किया। 59 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगलोर -- श्री हिन्दी शिक्षण संघ एवं श्री जैन शिक्षा समिति के तत्वावधान में श्री जोधराज जी सुराणा का अभिनन्दन समारोह दिनांक 21.11.93 को बंगलोर में सम्पन्न हुआ। विद्वानों द्वारा इस कार्यक्रम में आ. सुराणा जी का जीवन परिचय एवं समाज को उनके योगदान की रूपरेखा प्रस्तुत की गयी। सुराणाजी जैसे विद्वान का सम्मान हमारे लिए गौरव की बात है। इस अवसर पर हम सुराणा जी के दीर्घायु होने की कामना करते हैं ताकि वे समाज व धर्म की अधिकाधिक सेवा कर सकें। भीलवाड़ा -- आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी महाराज का जन्म दिवस समारोह धनतेरस के पर्व पर दिनांक 11.11.93 को भीलवाड़ा में आयोजित किया गया। इस अवसर पर अनेक श्रमणों ने आचार्यश्री के सम्बन्ध में अपने उदगार व्यक्त किया साथ ही भीलवाड़ा के जैन समुदाय की ओर से सवा घण्टे तक सामूहिक नवकार महामंत्र का जाप भी किया गया। इस समारोह में आचार्यश्री ने तन, मन की वैचारिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की दरिद्रता को समाप्त करने का उपदेश दिया। श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, भीलवाड़ा की ओर से विद्वान एवं प्रबुद्ध चिन्तक, साहित्य मनीषी डॉ. नरेन्द्र भाणावतजी की स्मृति में एक श्रद्धांजली सभा आयोजित की गयी। डॉ. भाणावतजी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए संघ के अध्यक्ष श्री सेमेरमल मेड़तियाजी ने कहा कि भाणावतजी के चिन्तन से समाज में नई चेतना की लहर व्याप्त हो गयी थी। इस अवसर पर अन्य वक्ताओं ने भी दिवंगत आत्मा के प्रति अपनी श्रद्धांजली अर्पित की। जोधपुर -- जोधपुर में दिनांक 31.10.93 से 7.11.93 तक आठ दिवसीय जन्मोत्सव कार्यक्रम आयोजित हुए जिसमें आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. का 63वा, महास्थविरा श्री गौराजी महाराज का 88वाँ एवं साध्वी शिरोमणि स्व. श्रीपन्नादेवी जी महाराज का 103वाँ जन्मदिवस कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर ध्यान शिविर, भक्तामरस्तोत्र का 24 घण्टे का अखण्ड जाप एवं नवकार महामंत्र के जाप का अनुष्ठान भी किया गया। भीलवाड़ा -- उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. की जन्म जयन्ती का कार्यक्रम 21 अक्टूबर को भीलवाड़ा में सम्पन्न हुआ। इस पावन अवसर पर अनेक विद्वानों द्वरा उपाध्यायश्री के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित किये गये। इस अवसर पर आचार्यश्री के बरा लिखित कर्मविज्ञान ग्रन्थ भाग 5 तथा आचार्य श्री की अन्य पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। सेठ रसिक लाल जी धारीवाल बरा "पुष्कर गुरु महिमा" नामक आडियो कैसेट का लोकार्पण भी इस समारोह में किया गया। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 भक्टूबर-दिसम्बर 1993 रजि० नं० एल०३९ फोन : 311462 transform plastic ideas into beautiful shape NUCHEM MOULDS & DIES Our high-precision moulds and dies are designed to give you moulded product clean flawless lines. 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