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________________ हिन्दी जैनसाहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास सामना करना पड़ता है। ऐसी ही परिस्थिति में प्रतीकों की योजना की जाती है। ये प्रतीक केवल चित्र ही उपस्थित नहीं करते, अपितु किसी भी हृदयगत भाव के जीते-जागते क्रियाशील प्रतिनिधि होते हैं। कवि के भी जब विविध आध्यात्मिक भाव कठोर चट्टानों से टकराने वाले स्रोतों की भाँति फूट निकलने के लिए मचलने लगते हैं, तब वह प्रकृति-प्रदत्त प्रतीकों का आश्रय लेकर अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति सहज रूप में कर डालता है। कवि देवीदास ने साधना के लिए "केहरि"४२ सिंह को प्रतीक बनाया है, इसी प्रकार सुख और दुःख की प्रवृत्तियों को प्रकाशित करने के लिए" अमृत और विष"४३ को प्रतीक-स्वरूप ग्रहण किया है। परमात्मा के लिए कवि ने "गरीबनवाज.४" एवं आत्मा का "हंस४५" के माध्यम से वर्णन किया है। संसार की अज्ञानता को उन्होंने "कृप४६" के माध्यम से व्यक्त किया है। इसी प्रकार, पाँच रंगों का वर्णन, पीला-ज्ञान, सरस्वती४७, हरा समृद्धि८, लाल-प्रेम और शक्ति४६ श्वेत-यश और काला-अज्ञान, अन्धकार के रूप में किया है। स्व-पर-विवेक के लिए कवि ने "भोर"५२ प्रतीक का आश्रय लिया है। इन प्रतीकों द्वारा कवि ने वर्ण्य प्रसंगों को सरलता, सरसता, रमणीयता, कोमलता एवं गम्भीरता प्रदान की है। छन्दः प्राचीन काल से ही साहित्य में छन्दों का प्रयोग होता रहा है। साहित्य की दृष्टि से छन्दोबद्ध साहित्य जहाँ अधिक रुचिर और चमत्कारपूर्ण होता है, वहीं अतिदीर्घजीवी भी हो जाता है। यही कारण है कि लेखन-सामग्री के आविष्कार के पूर्व सहस्राब्दियों तक वेदादि, प्राचीन साहित्य कण्ठ-परम्परा में सुरक्षित रह सके हैं। "छान्दोग्योपनिषद्" में छन्दों की क्रियात्मक उपयोगिता के भाव को सुन्दर रूपक के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : "देवताओं ने मृत्यु से डरकर अपने-आपको (अपनी कृतियों को) छन्दों में ढाँप लिया। मृत्यु-भय से आच्छादन या रक्षार्थ आवरण के कारण ही "छन्द" संज्ञा सार्थक हुई है।३३ "सायणभाष्य" में छन्द की एक व्युत्पत्ति और भी दी गई है -- "छन्द कलाकारों और उनकी कलाकृतियों को अपमत्यु से बचा लेते हैं। इसी उपयोगिता के कारण साहित्य में छन्दों की परम्परा निरन्तर चलती रही हैं। कवि देवीदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में मात्रिक एवं वर्णिक दोनों प्रकार के ही छन्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने गीतिका, कुण्डलिया, छप्पय, सवैया कवित्त, रोडक, गंगोदक और ताटेक का प्रयोग वर्णनों के अनुकूल बड़ी बारीकी से किया है। सवैयों के माध्यम से एक सच्चे कलाकार के समान उनहोंने रत्नों को जड़ने का कार्य किया है, साथ ही विभिन्न शास्त्रीय राग-रागनियों में भी पदों की रचना की है। उनके पदों में इतनी संगीतमयता है कि आध्यात्मिक रस सहज ही छलकता है तथा उनकी सुन्दर ध्वनियोजना एवं कोमल पदरचना अमृत की वर्षा करने में पूर्ण सक्षम है। उदाहरणार्थ, उनका पद यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यथा -- आतमरस अति मीठो साधो आतमरस अति मीठौ। स्यादवाद रसना बिनु जाकौ मिलत न स्वाद गरीठौ।। पीवत होत सरस सुष सो पुनि बहुरि न उलटि पुलीठौ। Jain Education International For Private & Peso al Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525016
Book TitleSramana 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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