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________________ डॉ. अशोक कुमार सिंह कर्मद्रव्य आकर्षित होता है और आत्मा को बन्धन में डाल देता है। जैन परम्परा में किसी क्रिया-विशेष के द्वारा जिस पौद्गलिक द्रव्य का आत्मा की ओर संसरण होता है उसे द्रव्य कर्म कहा जाता है। आचारांग में द्रव्यकर्म और भावकर्म जैसे सुस्पष्ट शब्द का प्रयोग हमें नहीं मिलता किन्तु कर्म के चैतसिक पक्ष के साथ-साथ हमें कर्मशरीर और कर्मरज' जैसी अवधारणायें स्पष्ट रूप से मिलती हैं। वस्तुतः यही कर्मशरीर और कर्मरज द्रव्यकर्म की अवधारणा के आधार बने हैं। आचारांग स्पष्ट रूप से कर्मरज और उसके आसव की बात करता है । इसका तात्पर्य यह है कि वह कर्म के भौतिक पक्ष या द्रव्यपक्ष को स्वीकार करता है । अतः हम कह सकते हैं कि द्रव्यकर्म और भावकर्म की स्पष्ट अवधारणा भले ही नहीं रही हो उनके बीज के रूप में कर्मरज और कर्मशरीर की अवधारणायें उपलब्ध थीं । आचारांग में अन्यत्र 'जो गुण है वही आवर्त हैं और 'जो आवर्त है वही कहकर सांसारिकता के कारण के रूप में गुणों की चर्चा की गई है और यहाँ आचारांगकार का गुणों से तात्पर्य प्रकृति के तीन गुणों से ही रहा हुआ है। ये गुण प्राचीन सांख्य दर्शन में भौतिक तत्त्व के रूप में स्वीकृत हैं और उनकी प्रकृति से एकात्मकता प्रतिपादित की गई है। अतः इससे भी यही फलित होता है कि आचारांगकार के समक्ष कर्म का पौद्गलिक पक्ष स्पष्ट रूप से उपस्थित था चाहे उस काल तक द्रव्य कर्म और भाव कर्म जैसी पारिभाषिक शब्दावली का विकास न हुआ हो । है |5 यह गुण कर्म को संसार - परिभ्रमण या बन्धन का कारण मानना यह सिद्धान्त भी आचारांग के काल तक स्पष्ट रूप से अस्तित्व में आ चुका था । आचारांगकार' स्पष्ट रूप से यह कहता है कि जो आत्मा की पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है और कर्मवादी है। इस प्रकार आचारांग की दृष्टि में पुनर्जन्म की अवधारणा के स्पष्ट तीन फलित हैं-- आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवादं । पुनः कर्मवाद भी आत्मा और संसार की सत्ता को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है अतः कर्मवाद के लिए आत्मा और संसार का अस्तित्व अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में आचारांग के काल में कर्मवाद, पुनर्जन्म की अवधारणा के साथ संयोजित कर लिया गया था । Jain Education International आचारांग की एक विशेषता यह भी परिलक्षित होती है कि वह कर्म को हिंसा या आरम्भ के साथ संयोजित करता है। उसकी दृष्टि में कर्म या क्रियायें हिंसा के साथ जुड़ी हुई हैं और वे संसार के परिभ्रमण का कारण हैं। इसीलिए उसमें यह कहा गया है कि जो क्रिया (आरम्भ ) के स्वरूप को नहीं जानता है वह संसार की विविध जीवयोनियों में परिभ्रमण करता है किन्तु जो कर्म या हिंसा के स्वरूप को जान लेता है वह परिज्ञात कर्मा मुनि सांसारिक जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठता है । इस कथन का स्पष्ट तात्पर्य है कि कर्म या क्रिया बन्धन का कारण है। कर्म या क्रिया से आसव होता है और वह आस्रव बन्धन का कारण बनता है। इसीलिए आचारांगकार स्पष्ट रूप से यह कहता है कि जो भी सांसारिक विविधतायें हैं वे कर्म से उत्पन्न होती हैं। आचारांग में अष्टकर्म प्रकृतियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कर्म की शुभाशुभता के आधार को लेकर भी आचारांग में स्पष्ट रूप से कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं होता For Private 82ersonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525016
Book TitleSramana 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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