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________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम इसमें मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों का वर्णन करने के पश्चात् प्रदेशों का परिमाण, उनका क्षेत्र, काल और भाव का निरूपण है । इसमें कर्म की मूलप्रकृतियों के अधिकतम और न्यूनतम स्थिति की चर्चा है। इन कर्मप्रकृतियों की कालावधि के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त 51 की बतायी गयी है वहाँ अन्यत्र 12 अन्तर्मुहुर्त बतायी गयी है। इसमें आत्मा के द्वारा कर्मपुद्गलों के ग्रहण करने और उनकी संख्या का विवरण भगवती में विस्तार से मिलती है यहाँ केवल एक ही गाथा में 52 इसका वर्णन है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उत्तराध्ययन में 33वें अध्ययन में यद्यपि . कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित विवरण है फिर भी परवर्ती साहित्य में और भी विस्तृत विवेचना की गई है। उदाहरण के लिए इसमें नामकर्म की दो शुभ और अशुभ कर्म की दो ही उत्तरप्रकृतियों का उल्लेख है. जबकि आगे चलकर इसके 42, 67, 93 एवं 103 भेदों की चर्चा मिलती है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उत्तराध्ययन के पश्चात् भी जैन कर्मसिद्धान्त का विकास होता गया । Jain Education International For Private 26 ersonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525016
Book TitleSramana 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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