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जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान
- डॉ. अरुण प्रताप सिंह जैन परम्परा के विषय में यहाँ विस्तार से लिखना पुनरुक्ति मात्र होगी। संक्षेप में जैन परम्परा की विशेष प्रसिद्धि त्याग, तपस्या, संयम एवं निवृत्तिमूलक गुणों के कारण है। वह व्यक्ति में उन मानवीय मूल्यों के विकास का प्रयास करती है जिससे व्यक्ति सच्चे अर्थों में मनुष्य बन सके। जैन परम्परा सामाजिक एवं धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास करती है। वीतरागता का भाव जिस किसी में भी हो, उसके लिए वन्दनीय है। इस प्रकार यह परम्परा सर्वधर्मसमभाव से अनुप्राणित है। इसका विश्वास है कि यदि व्यक्ति अपने अन्तर्निहित गुणों का विकास कर ले तो वह स्वयं तीर्थंकर बन सकता है। तीर्थंकर आध्यात्मिक गुणों के विकास की सर्वोच्च अवस्था है।
इतनी उत्कृष्ट अवधारणाओं से संपृक्त जैन परम्परा के विकास में स्त्री-पुरुष दोनों का प्रशसनीय योगदान है। फिर भी स्त्रियों का योगदान तो अति महत्त्वपूर्ण है। जैन ग्रन्थों का अवलोकन करने से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। अंग साहित्य में इस बात के सुस्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। इन ग्रन्थों में "भिक्खु वा-भिक्खुणी वा" तथा "निग्गंन्थ वा निग्गन्थी वा" का उद्घोष न केवल नारी की महत्ता को मंडित करता है, अपितु उनके योगदान को भी रेखांकित करता है। ___ जैन परम्परा के आदर्शों एवं मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने में स्त्रियों की सार्थक भूमिका थी। सूत्रकृतांगकार को यद्यपि यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि स्त्रियाँ हलाहल विष तथा पंक के समान हैं। यह पुरुष प्रधान समाज का ही दुष्परिणाम है जहाँ हर व्यक्तिगत या सामाजिक बुराई को स्त्री के मत्थे मढ़ दिया जाता है, वास्तव में यह एक भयभीत व्यक्ति का कथन है जो आध्यात्मिक विकास के मार्ग में स्त्री को बाधक समझता है। इन्हीं ग्रन्थों में जो अत्यल्प उदाहरण प्राप्त है, उनसे स्पष्ट है कि पंक स्त्रियाँ नहीं, पुरुष भी है। वही उसे पथ-भ्रष्ट करना चाहता है और इसका प्रयास भी करता है। उत्तराध्ययन में वर्णित राजीमती एवं रथनेमि का उदाहरण इसका प्रमाण है। राजीमती भोजकुल के नरेश उग्रसेन की एक संस्कारित पुत्री थी, जिसका विवाह श्रीकृष्ण के भ्राता अरिष्टनेमि से होना निश्चित हुआ था। अरिष्टनेमि के संन्यास ग्रहण करने के उपरान्त राजीमती ने अपने मनसास्वीकृत पति के मार्ग का अनुसरण किया। राजीमती का विधिवत विवाह नहीं हुआ था, वह चाहती तो पुनर्विवाह कर सकती थी -- इसके लिए कोई भी नैतिक या धार्मिक अवरोध नहीं थाः परन्तु सारे वैभव एवं सांसारिक सुखों को तिलांजलि देकर मनसास्वीकृत पति के मार्ग का अनुसरण कर उसने जिस त्याग का परिचय दिया, यह पूरे भारतीय साहित्य में अनुपम है, अद्वितीय है। संन्यास के मार्ग में भी उसका आचरण स्पृहणीय है, वंदनीय है। एकदा अरिष्टनेमि के दर्शन के लिए जा
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