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जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान
रही राजीमती के वस्त्र वर्षा के कारण भीग जाते हैं। वहीं एक गुफा में वस्त्र सुखा रही राजीमती को नग्न अवस्था में देखकर रथनेमि का चित्त विचलित हो जाता है। वे विवाह का प्रस्ताव करते हैं। राजीमती जिस दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देती है, वह जैन परम्परा की अमूल्य धरोहर है। राजीमती धिक्कारते हुए रथनेमि से कहती है कि हे रथनेमि तू यदि साक्षात इन्द्र भी हो तब भी मैं तेरा वरण नहीं कर सकती हूँ। वह उन्हें क्रोध, मान, माया, लोभ का निग्रह करने तथा इन्द्रियों को वश में करने का उपदेश देती है। उसके दृढ़ चरित्र का ही परिणाम था कि रथनेमि को अपनी भूल का एहसास होता है और वे सुस्थिर चित्त होकर पुनः तप मार्ग का अवलम्बन ग्रहण करते हैं।
ऐसी घटनाओं का अत्यधिक महत्त्व होता है। व्यक्ति के आचरण से ही किसी धर्म या पंथ का प्रचार-प्रसार होता है तथा वह लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनता है। आचरण से ही सांस्कृतिक परम्परा विकसित होती है, अन्यथा तो वह कोरा किताबी ज्ञान बनकर रह जाती। राजीमती का आचरण एक ऐसा आदर्श है जो कई शताब्दियों के बाद आज भी हमें प्रेरित कर रहा है। - जैन परम्परा एवं आदर्शों को अक्षुण्ण रखने में स्त्रियों का अनुपम योग था। संघ में प्रवेश लेने के समय पत्नी एवं माता की अनुमति आवश्यक थी। यदि वे अपने पुत्रों-पतियों को सहर्ष अनुमति न देतीं तो जैन संघ में भिक्षु-भिक्षुणियों की इतनी अधिक संख्या न होती। अपने एकमात्र पुत्र तक को वे भिक्षु बनाने में कोई अवरोध नहीं बनती थीं -- यदि माता एवं पत्नी के स्नेह को तौलने का कोई तराजू होता तो उस पर तौल कर उनके त्याग के अवदान का अनुमान लगाया जा सकता है। युवती कन्याओं का पूरा भविष्य सामने मुँह बाये खड़ा रहता था, वृद्ध माताओं का जर्जर शरीर अवरोधक का काम कर सकता था, परन्तु इन युवती कन्याओं एवं वृद्ध माताओं के समक्ष जैन परम्परा के आदर्श एवं मान्यताएँ थीं जिसके शनैः-शनैः विकास का उत्तरदायित्व भी उन्हीं के कन्धों पर था। नारियों ने अपने गुरुतर दायित्व का मूल्यांकन किया। उन्होंने अपने सांसारिक सुखों के आगे उन आदर्शों एवं मान्यताओं को प्रश्रय प्रदान किया जो अक्षुण्ण थीं तथा निरन्तर प्रवाहमान थीं।
जैन धर्म के नियमों से अवगत श्रावक-पत्नियों ने परिवार की परम्परा को अक्षुण्ण रखा। वे स्वयं धर्म में श्रद्धा रखती थीं तथा अपने पुत्रों एवं पतियों को प्रोत्साहन भी देती थीं। पति के प्रतिकूल होने पर भी उससे अविरक्त न रहने वाली पत्नी ही प्रशंसनीय मानी गई थी। श्रावक आनन्द की पत्नी शिवानन्दा का ऐसा ही आदर्श चरित्र उपासकदशांग में वर्णित है। इसी ग्रन्थ में चुलनीपिता का उल्लेख है। देवोपसर्ग से विचलित होने पर इसकी माता ने ही उपदेश देकर धर्म में दृढ़ रहने को प्रोत्साहित किया। इसी प्रकार सुरादेव की पत्नी धन्या' एवं चुल्लशतक की पत्नी बहुला का वर्णन है जिन्होंने अपने पतियों की देवोपसर्ग से रक्षा की तथा सुस्थिर मन से धर्म में दृढ़ रहने का उपदेश दिया। इन स्त्रियों की अपनी प्रशंसनीय भूमिका के कारण ही सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा को धर्म सहायिका, धर्मवैद्या, धर्मानुरागरक्ता, समसुखदुःख सहायिका कहा गया है। चुलनीपिता की माता को देव एवं गुरु के सदृश पूजनीय कहा गया For Private &ersonal Use Only
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