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________________ डॉ. अरुण प्रताप सिंह है।10 मर्यादा की रक्षा हेतु माताएं अपने एकमात्र पुत्र तक को संघ में भेजने को तत्पर रहती थीं। ज्ञाताधर्मकथा में थावच्चापुत्र का वर्णन है जो अपनी माता का एकमात्र पुत्र था। पुत्र का संकल्प जानने पर उसकी माता थावच्चा स्वयं श्रीकृष्ण के पास जाती हैं और उनसे छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करने का निवेदन करती हैं जिससे वे अपने पुत्र का अभिनिष्क्रमण संस्कार सम्यकरूपेण कर सकें।1 इस तरह के अनेक उदाहरण जैन ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। इन प्रमाणों से स्त्रियों के योगदान का मूल्यांकन किया जा सकता है। जैनधर्म के चतुर्विध संघ में भिक्षुणी-संघ एवं श्राविका संघ का अपना विशिष्ट महत्त्व है। संसार त्याग कर तप-तपस्या का पथानुसरण करने वाली भिक्षुणियों एवं संसार में रहकर घर-गृहस्थी का भार संचालन करने वाली श्राविकाओं ने जैन परम्परा के विकास में महत् योगदान दिया है। जैन आचार्यों ने संघ को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों की व्यवस्था की। सभी प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से स्पष्ट है कि नियमों के पालन के सम्बन्ध में भिक्षु-भिक्षुणियों में कोई भेद नहीं किया गया। जैन भिक्षुणियाँ उन नियमों के पालन में कसौटी पर खरी उतरीं। उनके द्वारा नियमों का उल्लंघन किया गया हो -- इसकी कोई स्पष्ट सूचना ग्रन्थों से नहीं प्राप्त होती। सुकुमालिका,काली आदि भिक्षुणियों के कुछ उदाहरण अवश्य हैं, परन्तु वे अपवादस्वरूप हैं। ज्ञाताधर्मकथा में सुकुमालिका का जो वृत्तान्त दिया गया है, वह महाभारत के प्रसिद्ध नारी पात्र द्रौपदी के पूर्वभव से सम्बन्धित है। द्रौपदी का पाँच पतियों के साथ विवाह का पूर्व कारण क्या था -- कथा के माध्यम से इस पर प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः यह घटना अपवादस्वरूप ही है -- अन्यथा ग्रन्थों में वर्णित प्रायः सभी भिक्षुणियाँ त्याग-तपस्या की जीवन्त प्रतिमाएँ दिखायी पड़ती हैं। ये भिक्षुणियां ध्यान एवं स्वाध्याय में लीन रहकर चिन्तन-मनन किया करती थीं। अन्तकृद्दशा में यक्षिणी आर्या के सान्निध्य में पद्मावती'4 तथा चन्दना आर्या के सान्निध्य में काली15 आदि भिक्षुणियों को ग्यारह अंगों का अध्ययन करने वाली बताया गया है। इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा16 में सुव्रता, द्रौपदी को ग्यारह अंगों में निष्णात बताया गया है। जैन भिक्षणियों की विद्वत्ता के प्रमाण हमें बौद्ध ग्रन्थों से भी होते हैं। थेरी गाथा की परमत्थदीपनीटीका में भद्राकुण्डलकेशा तथा नंदुत्तरा का उल्लेख प्राप्त होता है जिन्होंने क्रमशः महान बौद्ध भिक्षु सारिपुत्र एवं महामौद्गल्यायन के साथ शास्त्रार्थ किया था। ये भिक्षुणियाँ तर्कशास्त्र में निष्णात थीं। ध्यान एवं स्वाध्याय के क्षेत्र में ही नहीं, तपस्या के क्षेत्र में भी जैन भिक्षुणियाँ प्रशंसा की पात्र थीं। अन्तकृदशा में भिक्षुणी पद्मावती' द्वारा उपवास, बेला, तेला, चोला, पंचोला से लेकर पन्द्रह-पन्द्रह दिन की एवं महीने-महीने तक की विविध प्रकार की तपस्याएँ करने के उल्लेख हैं। इसी ग्रन्थ में भिक्षुणी काली के तपस्या करने का भी वर्णन है। रत्नावली तप करने के पश्चात् आर्याकाली का शरीर मॉस और रक्त से रहित हो गया था, उनके शरीर की धमनियाँ प्रत्यक्ष दिखायी देती थीं, शरीर इतना कृश हो गया था कि उठते-बैठते उनके शरीर से हड्डियों की आवाज उत्पन्न होती थी।20 Jain Education International For Private & Personal Use ou www.jainelibrary.org
SR No.525016
Book TitleSramana 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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