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जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान
तप स्वाध्याय एवं ध्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाली इन साध्वियों ने जैन धर्म की महान परम्परा को पल्लवित एवं पुष्पित किया। इन साध्वियों ने जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में अमूल्य योगदान दिया। इसका क्रमबद्ध इतिहास तो नहीं लिखा जा सकता परन्तु यह विचार अवश्य किया जा सकता है कि जैन धर्म के प्रसार में उनका योगदान कहीं से भी न्यून नहीं था । जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु भिक्षुओं एवं आचार्यों के साथ वे भी उन प्रदेशों में गईं जो अपरिचित थे एवं जहाँ जाना कष्ट साध्य था ।
जैनधर्म के प्रसार एवं उसकी परम्परा को अक्षुण्ण रखने में भिक्षुणियों के समानं श्राविकाओं का भी अप्रतिम योगदान है। श्रावक श्राविकाओं के योगदान के कारण ही इन्हें संघ का विशिष्ट अंग बनाया गया । धर्मरूपी रथ के दो चक्रों की कल्पना की गई जिसमें एक चक्र को भिक्षु - भिक्षुणियों से तथा दूसरे चक्र को श्रावक-श्राविकाओं से सम्बन्धित किया गया । श्राविकाओं ने ही साधु-साध्वियों को दैनिक आवश्यकताओं की चिन्ता से मुक्त किया। जैनधर्म के विकास में यह उनका महती योगदान था । श्राविकाओं के इस योगदान के अभाव में धर्म रथ का चक्र निस्सन्देह सुचारु रूप से गति करने में समर्थ नहीं था । साधु-साध्वियों का आध्यात्मिक जीवन श्रावक-श्राविकाओं के इस योगदान का अत्यन्त ऋणी रहेगा।
श्रावक-श्राविकाओं के इस योगदान की महत्ता को आचार्यों ने भी स्वीकार किया । उत्तराध्ययन में गृहस्थों को भिक्षु भिक्षुणियों का माता-पिता बताया गया है। जैन ग्रन्थों में भिक्षुओं एवं श्रावक-श्राविकाओं के मध्य सम्बन्धों को विस्तार से निरूपित किया गया है। भिक्षुओं को यह निर्देश दिया गया था कि वे किसी श्रावक के ऊपर भार न बनें। जैसे भ्रमर प्रत्येक फूलों का रस ग्रहण करता है और उन्हें कोई कष्ट नहीं पहुँचाता उसी प्रकार भिक्षुओं को यह सुझाव दिया गया था कि वे प्रत्येक श्रावक परिवार पर पूर्णतया अवलम्बित न रहें । 21 भिक्षुओं का प्रत्येक श्रावक-श्राविकाओं से सम्पर्क जैनधर्म के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ । अपने उद्गम स्थल से बौद्ध धर्म के समाप्तप्राय एवं जैन धर्म के निरन्तर विकसित होने में उपर्युक्त कारक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । श्रावक-श्राविकाओं से जैन आचार्यों का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और आज भी है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म अपने उपासक - उपासिकाओं से शनैः-शनैः कटता हुआ मठों एवं चैत्यों तक सीमित रह गया । मठों एवं चैत्यों के विध्वंस होने पर समाज में उनको पहचानने वाला भी कोई न रहा। जबकि समाज की ऊर्जा शक्ति अर्थात् श्रावक-श्राविकाओं का प्रोत्साहन जैनधर्म को निरन्तर उत्साहित किये रहा 122
जैनधर्म के विकास, प्रसार एवं परम्परा को स्थायित्व प्रदान करने में ऊपर हमने जिन श्रावक-श्राविकाओं के योगदान की चर्चा की है-- उनमें श्राविकाओं का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि जैनधर्म के सभी तीर्थंकरों में हम केवल महावीर की ही ऐतिहासिकता को स्वीकार करें तो भी हम यह पाते हैं कि उनके श्रावकों की संख्या 1,59,000 तथा श्राविकाओं की संख्या 3,18,000 थी। इसी प्रकार भिक्षु भिक्षुणी संघ में भी भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं की में अधिक है। अन्य तीर्थंकरों के चतुर्विध संघों में भी भिक्षुणियों एवं श्राविकाओं की
तुलना
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