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________________ हिन्दा जनसाहित्य का विस्मृत बुन्देली कवि : देवीदास और कहाँ उसी सबेरे उन्हें वनवास मिल गया। रावण ने सोचा था कि यदि मैं युद्ध में जीत जाऊंगा, तब राम को सीता वापस कर दूंगा। किन्तु, उसे युद्धकाल में ही मृत्यु का वरण करना पड़ा। मैंने स्वयं सोचा था कि मैं अपने भाई का शान के साथ विवाह करूँगा, किन्तु उसके पूर्व ही वह अकस्मात् चल बसा ! माँ, यह काल की गति बड़ी विचित्र है। इस स्थिति में विवेक खो देने से प्राणी की सद्गति नहीं बन पाती। अतः इस शोक को सहन करो, इसी में सार है।"२२ काव्य-वैभव जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि देवीदास की काव्य रचनाएँ यद्यपि अध्यात्म एवं भक्तिपरक है, तथापि उनमें काव्यकला के विविध रुप उपलब्ध है। प्रासंगानुकूल रस-योजना, प्राकृतिक वर्णनों की छटा, अलंकार-वैचित्र्य, छन्द एवं मानव के मनोवैज्ञानिक चित्रणों से उनकी रचनाएँ अलंकृत हैं। उनकी भाषा भी भावानुगामिनी बन पड़ी है। रस-योजना किसी भी काव्य की आत्मा रस होती है और आध्यात्मिक एवं भक्ति-साहित्य में शान्त रस को रसराज माना गया है। कविवर देवीदास ने भी रस को आनन्द के रूप में ग्रहण कर उसे निजात्मरस के रूप में अभिव्यक्त किया है। यथा : तिजग से भारी सो अपूरव अधिरज कारा परम आनन्द रूप अपै अविचल हैं।२३ आतमरस अतिमीठी साधौ आतमरस अतिमीठौ।४ कवि ने नवरस की विस्तृत योजना तो नहीं की, उसे इतना अवसर भी नहीं था, किन्तु भक्ति के आवेग में प्रसंगवश प्रायः सभी रसों का समावेश हो गया है। उन्होंने अपनीसूक्ष्म दृष्टि के साथ तूलिका-रूपी छेनी द्वारा शान्त रस को बड़ी मनोरमता से मूर्तित किया है एवं उसे रसराज माना है। इसका स्थायी भाव शम या वैराग्य है तथा विभाव आलम्बन है -- असार-संसार, शास्त्रचिन्तन, तप, ध्यान आदि। उद्दीपन हैं -- सन्तवचन एकान्त स्थान, मतक-दर्शन आदि! रोमांच, संसारभीस्ता, तल्लीनता और उदासीनता आदि अनभाव हैं एवं धृति, मति, स्मृति, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। जहाँ समरस की स्थिति होती है, वहीं शान्त रस रहता है। संसार की भौतिकवादी चमक-दमक मानव को शान्ति प्रदान करने में असमर्थ है, अतएव उसे आत्ममुखी होना आवश्यक है और आत्ममुखी होना ही शान्त रस की नियोजना है। इसलिए, शान्त रस का रसराज के रूप में प्रयुक्त होना एकदम सार्थक है। शान्त रस में सभी रसों का समावेश हो जाता है। यहाँ इसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं : अंतरदिष्टि जगैगी जब तेरी अन्तरदिष्टि जगैगी। होइ सरस दिडता दिन हूँ दिन सब भय भीत भगैगौ।। दसरन ज्ञान चरण सिवमारग जिहि रस रीति पगैगी। देवियदास कहत तब लगि है जिय तूं सुद्ध ठगैगी।। Jain Education International For Private & Pers32| Use Only www.jainelibrary.org ,
SR No.525016
Book TitleSramana 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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