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________________ हिन्दू एवं जैनपरम्परा में समाधिमरण : एक समीक्षा का परित्याग कर एवं बच्चों को उनके भाग्य पर छोड़कर देहत्याग नहीं किया जा सकता है। त्रिस्थलीसेतु में देहत्याग के पूर्व कुछ व्यवस्थाएँ दी गई हैं जिनका अनुपालन आवश्यक है। धार्मिक विधि से देहत्याग करने वाले को सर्वप्रथम प्रायश्चित्त करना चाहिए। उस दिन उसे उपवास करना चाहिए एवं लिखित रूप में यह संकल्प करना चाहिए कि वह इस विधि से मरना चाहता है। उसे विष्णु का ध्यान करते हुए जल में प्रवेश करना चाहिए। अग्निपुराण (111/13 ) के अनुसार प्रयाग में जो व्यक्ति वट के मूल में या संगम पर प्राण त्याग करता है वह विष्णु के नगर में पहुँचता है एवं कूर्मपुराण के अनुसार ऐसा व्यक्ति सभी स्वर्ग लोकों का अतिक्रमण कर रुद्रलोक में जाता है। जैनधर्म में समाधिमरण समाधिमरण की अवधारणा वट वृक्ष या धार्मिक नदियों के तटों पर बलपूर्वक देहत्याग करने के ठीक विपरीत है। समाधिमरण की प्रक्रिया शान्तमन से क्रमशः सम्पन्न की जाती है। उपासकदशांग में समाधिमरण की जो प्रक्रिया दी गई है वह इसके अर्थ को समझने में सहायक सिद्ध होगी। उपासक आनन्द सर्वप्रथम पाँच अणुव्रत, 3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रत -- कुल 12 प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करता है। आनन्द इन श्रावक धर्मों का पूरे चौदह वर्ष तक श्रद्धा के साथ पालन करता है। 15वें वर्ष में छः माह बीतने पर अपने सम्पूर्ण व्यापारिक कार्यों से निवत्त होकर एवं गृह का उत्तरदायित्व बड़े पुत्र को सौंप कर ग्यारह उपासक प्रतिमाओं को धारण करता है। इन उपासक प्रतिमाओं को पूर्ण करने के उपरान्त ही वह समाधिमरण का व्रत ग्रहण करता है। समाधिमरण की अवधारणा को पूर्ण हृदयंगम करने के लिए उपासक प्रतिमाओं के स्वरूप को समझना अनिवार्य है। यहाँ प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिकृति न होकर प्रतिज्ञा या नियम लेना है जिसके अनुसार साधक अपनी साधना का उत्तरोत्तर विकास करता हुआ साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता है। इन प्रतिमाओं में प्रत्येक प्रतिमा का अपना एक निश्चित समय होता है और जब वह उसे पूर्ण कर लेता है तब आगे की प्रतिमा को स्वीकार करता है। साधक स्वीकृत प्रतिमा के नियमों का पालन करने के साथ-साथ पिछली प्रतिमाओं के नियमों का भी दृढ़ता के साथ पालन करता है। पहली दर्शन प्रतिमा है जिसका अर्थ दृष्टि या श्रद्धा है। साधक इसमें दृढ़ विश्वास के साथ अपनी आत्मा के विकास के लिए प्रयत्नशील होता है। इस प्रतिमा में शंका या अनास्था का कोई स्थान नहीं होता। दूसरी व्रत प्रतिमा है जिसमें वह पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पूर्वक पूर्ण रूप से पालन करता है। तीसरी सामायिक प्रतिमा है जिसमें साधक प्रतिदिन नियमतः तीन बार सामायिक करता है। समभाव की साधना करता है। चौथे प्रोषध प्रतिमा है जिसमें वह अष्टमी; चतुर्दशी एवं पर्वतिथियों पर उपवास पूर्वक व्रताराधना करता है। पाँचवीं कायोत्सर्ग प्रतिमा है जिसमें वह अपने शरीर, वस्त्र का ध्यान छोड़कर आत्मचिन्तन करता है। छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा है जिसमें वह ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सातवीं सचित्ताहार वर्जन प्रतिमा है जिसमें वह Jain Education International For Private & Persoal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525016
Book TitleSramana 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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