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डॉ. अरुण प्रताप सिंह
यही नहीं, चाहे दान देने का प्रसंग हो या उसके द्वारा नियुक्त धर्ममहामात्रों के कर्तव्यों का सन्दर्भ हो, अशोक किसी विशेष मत के प्रति पक्षपात का भाव नहीं रखता। अशोक के तृतीय एवं चतुर्थ शिलालेख में दान देने का प्रसंग है। इसमें वह ब्राह्मणों एवं श्रमणों में कोई भेद नहीं करता। दोनों को साथ-साथ दान देने का उल्लेख करता है। सभी धर्मों की उन्नति के लिए ही अशोक ने धर्ममहामात्रों का नया पद सृजन किया था। ये धर्ममहामात्र केवल बौद्धधर्म की उन्नति की देख-रेख के लिए नहीं थे, अपितु सभी धर्मों की सम्यक् उन्नति के लिए नियुक्त किये गये . थे। अपने पंचम शिलालेख में अशोक इस तथ्य का स्पष्टता के साथ उल्लेख करता है।
अनेकान्तवाद के महान विचार से प्रभावित अशोक धार्मिक सहिष्णुता एवं वैचारिक सदभाव के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा। अपने बारहवें शिलालेख में वह विस्तार से इसका उपाय भी बताता है। अशोक के अनुसार सभी मतों (सम्प्रदायों) के धर्म के सार (तत्त्व) की वृद्धि के. साथ (सारवठी) इसका प्रारम्भ किया जा सकता है। विभिन्न धर्मों के सार की वृद्धि कैसे होगी। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है और इसका समाधान भी आवश्यक है। अशोक विभिन्न धर्मों के मध्य सार की वृद्धि के लिए जो सबसे आवश्यक चीज मानता है, वह वचन पर नियन्त्रण (वचगुती) है। उसके अनुसार यह मूल कारण है (तस तु इदं मूलं)।° अशोक इस बात को अच्छी तरह जानता था कि वाणी पर लगाम दिये बिना धार्मिक सद्भाव की बात निरर्थक है। वाणी पर नियन्त्रण तभी सम्भव है जब हम अपने विचार या भावना को बहुआयामी बनावें अर्थात् अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को विकसित करें। इस प्रकार का दृष्टिकोण विकसित होने पर ही व्यक्ति विरोधी विचारधारा को भी यथोचित सम्मान प्रदान कर सकता है, क्योंकि वह उसमें भी सत्य का अंश देखता है। एकान्तिक दृष्टिकोण के कारण व्यक्ति अपनी विचारधारा को सर्वोत्कृष्ट मानता है तथा दूसरे के विचारों को हेय दृष्टि से देखता है। अशोक इस पर बल देता है कि लोग केवल अपने सम्प्रदाय (धर्म) की प्रशंसा एवं दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा न करें। जो व्यक्ति केवल अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा एवं दूसरे सम्प्रदाय ( मत) की आलोचना करता है, अशोक के अनुसार वह अपने ही सम्प्रदाय की हानि करता है।
अशोक का यह कथन यथार्थतः सत्य है। अपने ही मत तक सीमित रह जाने के कारण व्यक्ति की बुद्धि कुंठित हो जाती है तथा वह दूसरे मत के सत्य को स्वीकार करने से इन्कार कर देता है। वह मिथ्याज्ञान से युक्त हो जाता है। एकान्त या आग्रह बुद्धि के कारण वह न तो अपने मत के ही विविध पक्षों के सत्य को अपना पाता है और न ही दूसरे के मत के सत्य को। "वस्तुतः पक्षाग्रह की धारणा से विवाद का जन्म होता है। व्यक्ति जब स्व-मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करता है, तो परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में संघर्ष का प्रादुर्भाव हो जाता है। वैचारिक आग्रह न केवल वैयक्तिक नैतिक विकास को कुण्ठित करता है, वरन् सामाजिक जीवन में विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीज बो देता है।"10 वह अन्धों के समान हाथी के ... विविध अंगों को ही सम्पूर्ण हाथी समझने लगता है। इस वैचारिक अनाग्रह से समाज में जिस विष या विग्रह का जन्म होता है -- स्पष्टतः अशोक सम्राट के रूप में भली-भाँति परिचित था।
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