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________________ अशोक के अभिलेखों में अनेकान्तवादी चिन्तन : एक समीक्षा सिद्धान्त विश्व को जैनधर्म की विशिष्ट देन है । यह सिद्धान्त व्यक्ति को यह शिक्षा देता है कि वह सभी धर्मों के प्रति आदर एवं सम्मान का भाव रखे तथा दूसरे धर्मों के प्रति अनादर या उपेक्षा का भाव न रखें। इस अवधारणा के अनुसार सत्य सर्वत्र है । केवल अपने ही विचारों को सत्य मान लेना आग्रह उत्पन्न करता है जो सारे विवादों का मूल कारण होता है । अनेकान्तवाद की मान्यता के अनुसार वस्तु के अनन्त धर्म या गुण होते हैं। चूँकि मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं सापेक्ष होता है अतः वह एक समय में वस्तु के एक ही गुण का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह आंशिक सत्य होता है, सम्पूर्ण सत्य नहीं । जब व्यक्ति इसी आंशिक सत्य को सम्पूर्ण सत्य मान बैठता है तभी आग्रहवाद पैदा होता है। सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक जीवन में जो मतभेद पाया जाता है, उसका भी कारण यही है कि प्रत्येक मत अपने ही दृष्टिकोण को ठीक मानता है। और दूसरे दृष्टिकोण को मिथ्या बतलाकर उसकी घोर उपेक्षा करता है । अनेकान्तवादी दृष्टिकोण विकसित होने पर व्यक्ति न केवल अपने मत के सत्य का अपितु दूसरे मत के सत्य का भी साक्षात्कार कर सकता है, फलस्वरूप मतभेद की सम्भावना नहीं रहती । अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अनेकान्तवाद के इस सिद्धान्त से सम्राट अशोक कहाँ तक प्रभावित था ? इसका स्पष्ट उत्तर हाँ या नहीं में तो नहीं दिया जा सकता, पर उसके अभिलेखों का अनुशीलन कर इसकी सम्भावनाओं पर विचार अवश्य किया जा सकता है। यह स्पष्ट है कि अशोक केवल उपदेशक मात्र ही नहीं था, अपितु स्वयं उसका पालन करने वाला महान शासक था। उसके कथन और कार्य में कोई विभाजक रेखा खींचना सम्भव नहीं । अशोक बौद्धमतावलम्बी अवश्य था, पर वह कभी भी इससे अन्धानुरक्त नहीं था । उसके राज्यकाल में बौद्धेतर मतावलम्बियों की कोई अवहेलना हुई हो या उनके प्रति कोई असम्मान प्रदर्शित किया गया हो इसका कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता । अशोक अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का परिचय देते हुए सभी धर्मों (मतों ) की उन्नति के लिए प्रयत्नशील दीख पड़ता है । अशोक के काल में भी विभिन्न धर्मों में पारस्परिक मतवैभिन्न्य था । उस समय बौद्धधर्म के अतिरिक्त जैनधर्म (निग्गन्थ), ब्राह्मणधर्म ( माहण) एवं आजीविक मत का प्राधान्य था जैसा कि उसके अभिलेखों से स्पष्ट है। इन विभिन्न मतों में वैचारिक मतभेद होना सहज एवं स्वाभाविक था, परन्तु इन सभी मतों में कुछ बातें ऐसी अवश्य थीं जो सबको सहज स्वीकार्य थीं । अशोक इस तथ्य से परिचित है। इसके इन विचारों की अभिव्यक्ति उसके सप्तम शिला - अभिलेख में हुई है । इस अभिलेख में अशोक यह इच्छा प्रकट करता है कि उसके साम्राज्य में सभी धर्म वाले रहें। क्योंकि सभी धर्म वाले संयम और भावशुद्धि चाहते हैं । अशोक इन मतों के भिन्न-भिन्न (उच्च-नीच ) विचारों से भी परिचित है। वह उच्च-नीच भावों को गौण मानता है। अशोक वैचारिक सहिष्णुता का परिचय देते हुए सभी के लिए स्वीकार्य मत को ही अपने धम्म का अंग बनाता है। अशोक के छठें स्तम्भ लेख में भी इसी तथ्य का द्योतन है जिसमें सभी सम्प्रदायों को समान रूप से महत्त्व देने का उल्लेख है । अशोक यह स्पष्ट घोषणा करता है कि सभी सम्प्रदाय (धर्म) विविध प्रकार की पूजाओं से मेरे द्वारा पूजित हैं । 4 अब यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि अशोक के हृदय में कभी भी किसी मत के प्रति असम्मान का भाव नहीं रहा । Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525016
Book TitleSramana 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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