Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 43
________________ कि जब कभी जैन जी अपने कटाक्षों के कारण किसी से सम्बन्ध तोड़ लेते, उन्हें भी वे जोड़े रखती थीं। हिन्दी श्रमणसुत्तं के अनुवाद के संपादन का प्रश्न खड़ा हुआ तो श्री राधा-कृष्ण बजाज ने जैन जी को राजी कराने में विजयाबहन की मदद ली। यह मामूली बात नहीं है कि स्नेह-सूत्र के साथ-साथ साहित्य-सूत्र जोड़ने में भी पत्नी की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो । असल में उन्हें स्वाध्याय के साथ स्वाभिमान प्रिय था । वे अपने स्वाभिमान की भाँति दूसरों के भी स्वाभिमान की रक्षा करना जानतीं थीं । ऋषभदासजी रॉका जैसे उद्योगपति की पुत्री सरला जी उन्हें सहेली मानती थीं। वे सहेलीपन निभाते हुए दमयंती दाई का पारिश्रमिक रोकने और उसका अहसान न मानने वालों को झिड़कती भी थीं। ऐसी संवेदनशील, सेवाभावी, सलाहकार धर्मपत्नी के वियोग से जमनालाल जी को मानसिक कष्ट होना स्वाभाविक है। पैतालीस वर्षों का दाम्पत्य जीवन सहसा भुलाया भी कैसे जा सकता है । वियोग-व्यथा अकेले उनके लिए ही कष्टकर नहीं है। संवेदना में अभय, सुषमा, रेखा, बिन्दु के साथ हम सहभागी हैं, सारनाथ की जनता सहभागी है। जैसे विजया बहन से हम कार्यकर्ताओं ने सेवा पायी, वैसे ही मजदूर - कारीगर भी सेवा - समादर पाते रहे हैं। यही कारण है कि मरणोपरान्त उनके आवास पर आस-पास की सैकड़ों महिलाएँ जमा हुईं, जिनकी आँखों में आँसू थे । गृह-निर्माण करने वाला एक कारीगर तो उनका भाई ही बन गया था, जो तेरही पर शोक निवारणार्थ जैन जी के परिवार के लिए वेष लाया । पारिवारिक से अधिक मानवीय धरातल पर अधिष्ठित कर जैन जी के सम्बन्धों को ऐसी व्यापकता प्रदान कर गयी, उसे कौन बिसरा सकता है ? सबको अपना बनाकर रखने वाली अद्भुत कला और गाँधी विचार को आत्मसात करना चाहने वालों के लिए एक उदाहरण है, जो अनुपम है, अद्वितीय है, अनुकरणीय है । *५०, संत रघुवर नगर, सिगरा, महमूरगंज, वाराणसी - २ Jain Education International -२२१०१० 41 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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