________________ डॉ. शुभा पाठक की चेष्टा की है। इस सन्दर्भ में महाभारत एवं रामायण में वर्णित क्रमशः नल और दमयन्ती तथा पुरुहुत एवं गौतम की पत्नी अहिल्या की कथाएँ विशेषरूप से उल्लेखनीय है। नल-दमयन्ती की कथा में दमयन्ती का उल्लेख देवदन्ती नाम से किया गया है। इसी प्रकार उषा और अनिरुद्ध की कथा का उल्लेख हमें हरिवंशपुराण (महाभारत का प्रक्षिप्त अंश) में मिलता है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में वर्णित सुवर्णबाहु और पद्मा की कथा कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् पर आधारित है। ऐसे ही जमदग्नि की कथा का आधार भी महाभारत है। तुलनात्मक मूल्यांकन की दृष्टि से ये सभी कथाएँ रोचक और महत्त्वपूर्ण हैं। राम और कृष्ण को कुषाण गुप्तकाल में ही जैनधर्म और कला में सम्मिलित किया जा चुका था। हेमचन्द्र ने उनका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया और परम्परानुरुप उन्हें 63 शलाकापुरुषों के अन्तर्गत रखा है। इस प्रकार हेमचन्द्र की इस कृति में जैन परम्परा के तीर्थकरों के साथ ही अधिकांश भारतीय परम्परा या किन्हीं अर्थों में वैदिक और ब्राह्मण परम्परा के देवताओं का भी विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है जिनमें कभी-कभी उनके लक्षणपरक उल्लेख भी मिलता है। विषयवस्तु और मुख्य लक्षणों की दृष्टि से हेमचन्द्र की इस कृति का श्वेताम्बर स्थलों की मूर्तियों पर स्पष्ट प्रभाव दिखायी देता है। विषय वैविध्य तथा तत्कालीन कलापरक एवं सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन से सम्बन्धित सामग्री की दृष्टि से यह कृति अनुपम एवं ऐतिहासिक महत्त्व की है। इस ग्रन्थ में दस पर्यों में तीर्थंकरों की जीवनचरित एवं धर्मदेशना का वर्णन हुआ है। यह ग्रन्थ जैनधर्म में तपश्चर्या एवं त्याग के महत्त्व तथा उसके आधारभूत सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है। कुमारपाल चौलुक्य द्वारा वीतभयपत्तन (गुजरात) का उत्खनन करवाकर विद्युन्माली द्वारा निर्मित जीवन्तस्वामी महावीर की प्रतिमा प्राप्त किये जाने जैसे सन्दर्भ ऐतिहासिक महत्त्व के हैं जो एक ओर महावीर के जीवन काल (लगभग छठी शती ई.पूर्व) में जीवन्तस्वामी रूप में वस्त्राभूषणों से सज्जित उनकी प्रतिमा निर्माण एवं पूजन की पूर्व परम्परा का समर्थन करते हैं वहीं भारत में देवमूर्ति निर्माण एवं पूजन की प्राचीनता से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण साक्ष्य भी प्रस्तुत करते हैं। पुरातत्त्व एवं उत्खनन के साहित्यिक सन्दर्भ की दृष्टि से भी हेमचन्द्र की यह सूचना महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त यह ग्रन्थ प्राचीन भारतीय समाज के विविध पक्षों एवं परम्पराओं को भी उजागर करता है यथा -- आदिनाथ के विवाह के सन्दर्भ में वर्णित विभिन्न प्रथाएँ तथा रीति-रिवाज, गन्धर्व विवाह का प्रचलन, पिता-पुत्री के मध्य विवाह की प्रथा आदि। तीर्थंकरों द्वारा दिये गये उपदेशों के माध्यम से जैनदर्शन पर भी प्रकाश डाला गया है। उपर्युक्त अध्ययन को प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आठ अध्यायों में विभक्त किया गया है, जो क्रमशः प्रस्तावना, जैनदेवकुल, तीर्थंकर (जिन), जिनेतर शलाकापुरुष, यक्ष-यक्षी (शासन देवता), विद्यादेवियाँ तथा अन्य देवी-देवता शीर्षकों से अभिहित हैं। आठवा और अन्तिम अध्याय उपसंहार है। अन्त में पाँच परिशिष्ट भी दिये गये हैं जिसमें जैन पोथी चित्र, समवसरण, चैत्य तथा जैन मूर्तिलक्षण तालिका सम्मिलित हैं। आगे विस्तृत सन्दर्भ-सूची तथा चित्र-सूची भी दी गयी है। विषय को भली-भाँति स्पष्ट करने के आशय से 54 चित्र भी दिये गये हैं। Jain Education International For Private & Pe48 al Use Only www.jainelibrary.org