Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 53
________________ 'डॉ. हरिशंकर शोध-प्रबन्ध के अन्त में दो परशिष्ट दिये गये हैं जिनमें घाटों पर यत्र-तत्र बिखरी व __ मन्दिरों में सुरक्षित प्राचीन मूर्तियों (प्रारम्भ से 16वीं शती ई. तक) और घाटों पर स्थित मंदिरों की विस्तृत सूची दी गयी है। परिशिष्ट के पश्चात् विस्तृत सन्दर्भ-सूची एवं चित्र-सूची और 162 रंगीन तथा श्वेत-श्याम चित्र दिये गये हैं। प्रो. नरेन्द्र भाणावत का असामयिक निधन . जैन विद्या एवं हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान, कर्मठ एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के प्रो. नरेन्द्र भाणावत को 4 नवम्बर, 1993 को काल के क्रूर हाथों ने असमय में ही हमसे छीन लिया। डॉ. नरेन्द्र भाणावत का जन्म सितम्बर सन् 1934 को कानोड़ ( उदयपुर ) में हुआ था। पिछले छः महीने से आप कैसर रोग से ग्रस्त थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. भाणावत अदम्य उत्साह से भरे रहते थे। ज्ञान साधना एवं सामाजिक गतिविधियों के क्षेत्र में आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है। आपने हिन्दी, राजस्थानी तथा जैन साहित्य की विविध विधाओं में 50 से अधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया, दो दर्जन से अधिक ग्रन्थों का सम्पादन किया। गत तीन दशक से "जिनवाणी" मासिक का सम्पादन कर आपने अनेक महत्त्वपूर्ण पठनीय एवं मननीय विशेषांक प्रकाशित किये हैं। कैंसर व्याधि की असीम वेदना के क्षणों में भी आपने 40 कविताओं का संग्रह "ऐ मेरे मन" लिखा। साहित्य एवं समाज के प्रति आपकी सेवाओं को समाज ने स्वीकारा और आपका सम्मान करते हुए श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर ने 'अक्षर प्रज्ञ' उपाधि प्रदान करते हुए 51 हजार रुपये की राशि भेंट की। अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ, जोधपुर एवं सम्याज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर ने आपको "साहित्य मनीषी" उपाधि से सम्मानित कर एक लाख रुपये की थैली भेट की थी। अखिल भारतीय स्तर पर जैन समाज की धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक संस्थाओं के माध्यम से बहुमूल्य योगदान करने वाले इस सरल, आडम्बरविहीन एवं निरभमानी साधक से अभी जैन समाज को बड़ी आशायें थीं। उनकी क्षति अपूरणीय है। उन्होंने कैंसर की असीम वेदना को समभाव पूर्वक सहन कर एक अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया। पार्श्वनाथ विद्याश्रम परिवार उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है। Jain Education International 51 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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