Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 49
________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र : एक कलापरक अध्ययन हेमचन्द का सोलंकी (चौलुक्य) शासकों जयसिंह, सिद्धराज (1094-1142ई. ) और कुमारपाल (1143-72ई. ) का समकालीन होना तथा गुजरात और राजस्थान के श्वेताम्बर कला केन्द्रों पर शिल्पांकन में आधारभूत ग्रन्थ के रूप में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र का प्रयोग, ऐतिहासिक और कलापरक अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। ज्ञातव्य है कि गुजरात में जैनधर्म और कला के विकास में चौलुक्य राजवंश (लगभग 11वीं-13वीं शती ई.) का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अजय पाल के अतिरिक्त सभी चौलुक्य शासकों ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया जिसमें जयसिंह, सिद्धराज और कुमारपाल विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। चौलुक्य शासकों के काल में कई जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ और उन पर प्रभूत संख्या में तीर्थंकरों एवं अन्य जैन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनीं। इनमें कुम्भारिया ( बनासकांठा, गुजरात) का महावीर, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं सम्भवनाथ मन्दिर (लगभग 1061-13वीं शती ई.), दिलवाड़ा (सिरोही, राजस्थान) का विमलवसही और लूणवसही (1031-1230 ई. ), गिरनार (गुजरात) का नेमिनाथ मन्दिर (1228ई. ), तारंगा (गुजरात) का अजितनाथ मन्दिर (1164ई. ) शत्रुजय पहाड़ी का आदिनाथ मन्दिर (12वीं शती का उत्तरार्द्ध) एवं जालौर (राजस्थान) का महावीर मन्दिर (मूलतः पार्श्वनाथ को समर्पित, 1164ई. ) सर्वप्रमुख हैं। तारंगा और जालौर के जैन मन्दिरों का निर्माण कुमारपाल के काल में हुआ था। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र कलापरक अध्ययन की दृष्टि से निःसन्देह ही अन्य किसी भी कथापरक श्वेताम्बर या दिगम्बर ग्रन्थ की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ के वर्णन की पृष्ठभूमि में ही गुजरात और राजस्थान में कुम्भारिया, तारंगा, दिलवाड़ा, जालौर जैसे श्वेताम्बर स्थलों पर विभिन्न तीर्थंकरों की स्वतन्त्र मूर्तियों, उनके पूर्वभवों एवं जीवनचरित, (कुम्भारिया एवं दिलवाड़ा), महाविद्याओं और तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षियों का शिल्पांकन हुआ। इसी प्रकार बाहुबली के साथ उनकी बहिनों ब्राह्मी एवं सुन्दरी का अंकन तथा विभिन्न स्थलों पर जीवन्तस्वामी महावीर की मूर्तियों के निर्माण की पृष्ठभूमि भी प्रस्तुत ग्रन्थ में द्रष्टव्य है। जीवन्तस्वामी महावीर मूर्ति के लक्षणपरक उल्लेख सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ में मिलते हैं। यद्यपि हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में किसी पूर्ववर्ती आचार्य अथवा उनकी कृतियों का कोई उल्लेख नहीं किया है, किन्तु विषय सामग्री से यह सर्वथा स्पष्ट है कि पूर्व से चली आ रही परम्परा का ही हेमचन्द्र ने न्यूनाधिक अनुकरण किया है और उसी में विवरण एवं लक्षण की दृष्टि से और अधिक विकास किया। आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त पउमचरिय (473ई. ), वसुदेवहिण्डी (लगभग 609ई.), हरिवंशपुराण (783ई. ), कहाक्ली (लगभग 8वीं शती ई.), तिलोयपण्णत्ति (लगभग 8वीं शती ई. ), जिनसेन एवं गुणभद्रकृत महापुराण (9वीं - 10वीं शती ई. ) एवं तिस्सठिमहापुरिसगुणलंकारु (977ई. ) की परम्परा तथा यक्ष-यक्षी के निरूपण में निर्वाणकलिका (पादलिप्तसूरिकृत लगभग 10वीं शती ई. ) का प्रभाव पूरी तरह स्पष्ट है। इस ग्रन्थ पर ब्राह्मण परम्परा (मुख्यतः महाकाव्यों एवं पुराणों) का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। हेमचन्द्र ने विभिन्न कथाओं को ब्राह्मण परम्परा से ग्रहण कर जैनधर्म के अनुरूप प्रस्तुत करने Jain Education International ____For Private & Person47se Only www.jainelibrary.org

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