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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
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जहाँ तक कर्मप्रकृतियों की चर्चा का प्रश्न है सूत्रकृतांग में मात्र दर्शनावरण27 का उल्लेख अवश्य मिलता है। इससे ऐसा लगता है कि सूत्रकृतांग में कर्मप्रकृतियों की चर्चा के मूलबीज धीरे-धीरे प्रकट हो रहे थे। कर्म के ईर्यापथिक28 और साम्परायिक29 इन दो रूपों की चर्चा का प्रश्न अकर्म और कर्म से जुड़ा हुआ है किन्तु इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हमें सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में मिलता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तेरह क्रियास्थानों की चर्चा के सन्दर्भ में ई-पथिक का उल्लेख आया है।
कर्म की दस अवस्थाओं में से हमें उदय30, उदीरणा31 और कर्मक्षय32 की चर्चा मिलती है। कर्मनिर्जरा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि तप के द्वारा कर्मक्षय सम्भव है और सम्पूर्ण कर्म का क्षय हो जाने पर परम सिद्धि प्राप्त होती है।33 इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा कर्मसिद्धान्त का क्रमिक विकास हुआ है। ऋषिभाषित की कर्मसम्बन्धी अवधारणायें :
कर्मसिद्धान्त के इस क्रमिक विकास की चर्चा में हम यह देखते हैं कि आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित में कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था में मिलता है। कर्म, अकर्म34 की चर्चा के साथ-साथ शुभाशुभ कर्म की चर्चा 5 तथा शुभाशुभ कर्मों से अतिक्रमण36 की चर्चा ऋषिभाषित में ही. सर्वप्रथम मिलती है। ऋषिभाषित ही ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्वर्ण और लोह-बेड़ी की उपमा देकर37 पुण्य-पाप कर्म से अतिक्रमण की चर्चा है। सर्वप्रथम अष्टकर्म ग्रन्थि38 की चर्चा करने वाला भी यही ग्रन्थ है। ऋषिभाषित में कर्म के 5 आदान या कारण स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं।
इसमें यद्यपि कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा नहीं है फिर भी सोपादान, निरादान, विपाकयुक्त उपक्रमित और अनुदित कर्मों का विवरण उपलब्ध होता है। साथ ही उपक्रमित, उत्करित, बद्ध, स्पष्ट और निधत्त कर्मों के संक्षेप एवं क्षय होने एवं निकाचित कर्मों के अवश्य ही भोगने का उल्लेख है।
ऋषिभाषित इस बात पर स्पष्ट रूप से बल देता है कि कोई व्यक्ति अपने स्वकृत शुभाशुभ कर्मों का ही फल भोगता है।42
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित के काल तक जैन कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था को प्राप्त हो जाता है। भले ही इसमें अष्टकर्म प्रकृतियों के अलग-अलग नामों का उल्लेख न हो किन्तु अष्टकर्म ग्रन्थि का उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि कर्मों की अष्टमूल प्रकृतियों की चर्चा उस युग तक आ चुकी थी। यदि हम कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता हे कि ऋषिभाषित आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा पर्याप्त रूप से विकसित ग्रन्थ है। किन्तु कुछ विद्वानों ने इसे आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का समकालीन माना है इस सन्दर्भ में एक विकल्प यह माना जा सकता है कि ऋषिभाषित मुख्य रूप से पापित्य परम्परा का ग्रन्थ रहा हो और पार्वापत्य परम्परा में
कर्मसिद्धान्त की विकसित चर्चा भी उपलब्ध हुई है। क्योंकि इस ग्रन्थ में कर्मसिद्धान्त का जो Jain Education International For Private & 24 onal Use Only
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