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डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन
समकत बिना न तरयौ जिया समकित बिना न तरयौ ।।२५ .... इनके अतिरिक्त कवि ने प्रसंगवश श्रृंगार२६, भक्ति२७, करुण२८, रौद्र२६, भयानक, अद्भुत, बीभत्स३२ आदि रसों की भी सुन्दर योजना की है, जिसके कारण उनके काव्य में निखार आ गया है।
अलंकार कल्पना, सौन्दर्यबोध तथा भावप्रवणता के लिए कवि ने शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों की ही सुन्दर योजना की है। जहाँ उन्होंने अनुप्रास एवं यमक जैसे शब्दालंकारों के माध्यम से वर्ण्य प्रसंगों को प्रस्तुत किया है, वहाँ उसकी मधुमयी रसधारा पाठकों को मनोमुग्ध कर देती हैं। यथा :
अनुप्रास --
लाल लसिउ दैवी को सुवाल लाल पाग बाँधे लालहग अधर अनूप लाली पान की। लालमनी कान लाल माल गरै मूंगन की।। अंगझगा लाल कोर गिरवान की।
यमक --
जरा जोग हरे, हरे वन में निवास करें।
करें पसु बधे बंध काजै देखि कारे भए ।।३ इन वर्णन-प्रसंगों के सुन्दर नियोजन के साथ कवि ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, उपमेयोपमा आदि अर्थालंकारों के द्वारा वर्ण्य विषय को अधिकाधिक रम्यता और गहनता प्रदान की है। पाठकों के रसास्वादन-हेतु यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
उपमा -- उपमेय भाव को उत्कर्ष प्रदान करने के लिए कवि ने अप्रस्तुत वर्णनों के द्वारा भावों को उबुद्ध करने की अपनी अद्भुत क्षमता का परिचय दिया है। कवि कहता है कि प्राणी मोह के वशीभूत होकर भटकता रहता है और राग-द्वेष उसे तस्कर के समान ठगते रहते हैं :
हमरे बैर परे दोइ तसकर राग दोष सुन ठेरे। भोहि जात सिवमारग के रुख कर्म महारिपु धेरै४ अन्य स्थान पर उन्होंने परमात्मा की उपमा घन से और मन की उपमा मोर से दी है -- देवियदास निरखि अति हरषित प्रभ तन घन मन मोर।।५
रूपक -- कवि रूपक अलंकार का धनी है। उसने वृक्ष का रूपक उपस्थित कर संयमी पुरुष की समस्त वृत्तियों को व्यक्त कर दिया है --
व्रतमूल संजिम सकंध बध्यौँ जम नीयम उभे, जल सीच सील साखा वृद्धि भयौं है। समिति सुभार चढ्यौं बध्यौ गुप्ति परिवार,
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