Book Title: Sramana 1993 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम कर्मसिद्धान्त के क्रमिक विकास के अध्ययन का आधार उसका आगम साहित्य ही हो सकता है। जैन आगम साहित्य अर्धमागधी और शौरसेनी आगमों के रूप में दो भागों में विभक्त है। उसमें भी अर्धमागधी आगम के कुछ ग्रन्थ शौरसेनी की अपेक्षा प्राचीन हैं। कर्मसिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को इन ग्रन्थों के काल के आधार पर ही समझा जा सकता है। इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यद्यपि जैन परम्परागत रूप में आगमों को और विशेष रूपसे अंग-आगमों को अर्थ के रूप में महावीर की और शब्द के रूप में गणधरों की रचना मानते हैं किन्तु विद्वत्समुदाय अनेक कारणों से सभी आगमों यहाँ तक कि सभी अंग आगमों को भी एक काल की रचना नहीं मानता। अर्धमागधी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध माना गया है। विद्वान इसे लगभग ई.पू. चतुर्थ शताब्दी की रचना मानते हैं। इसके समकालीन अथवा किंचित परवर्ती ग्रन्थों में सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन का क्रम आता है। ये तीनों ग्रन्थ ई.पू. लगभग तीसरी शताब्दी की रचना के रूप में मान्य हैं। प्रस्तुत विवेचन में हम इन ग्रन्थों को ही आधार बनाकर चर्चा करेंगे। शौरसेनी आगम साहित्य में कषाय पाहुड और 'षट्पण्डागम अपेक्षाकृत प्राचीन माने जाते हैं किन्तु ये ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पर्व के नहीं हैं क्योंकि इनमें कर्मसिद्धान अपने सुव्यवस्थित रूप में उपलब्ध है। यह माना जाता है कि पापित्य परम्परा के आगमों में जिन्हें हम पूर्वो के रूप में जानते हैं 'कर्मप्राभूत नामक एक ग्रन्थ था जिससे कर्म, प्रकृति आदि कर्म साहित्य के स्वतन्त्र ग्रन्थों का विकास हुआ। किन्तु कर्मसिद्धान्त के ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की दृष्टि में ई.सन की 5वीं शताब्दी के बाद के ही माने गये हैं। चूँकि हमारा उददेश्य कर्मसिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को देखना है अतः इन ग्रन्थों को विवेचना का आधार न बनाकर अर्धमागधी आगम के कुछ प्राचीन ग्रन्थों को ही अपनी विवेचना का आधार बनायेंगे। आधारांग की कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी विभिन्न अवधारणायें सामान्यतया कर्मशब्द का अर्थ प्राणी की शारीरिक अथवा चैतसिक क्रिया माना गया है। किन्तु कर्मसिद्धान्त की व्याख्या में इस शारीरिक क्रिया या मानसिक क्रिया के कारण की और उसके परिणाम की व्याख्या को प्रमुखता दी गयी अतः कर्म के तीन अंग बने -- 1. क्रिया का प्रेरक तत्त्व 2. क्रिया 3. क्रिया का परिणाम जहाँ बौद्ध परम्परा ने क्रिया के प्रेरक तत्त्व के रूप में चैतसिक वत्तियों को ही व्याख्यायित किया वहाँ जैन परम्परा ने क्रिया के मूल में रही हुई चैतसिक वृत्ति के साथ-साथ उसके परिणाम पर भी विचार किया। इस प्रकार कर्म की अवधारणा को एक व्यापकता प्रदान की। किसी क्रिया के मूल में रहे हुए चैतसिक भावधारा को पारिभाषिक दृष्टि से भावकर्म की संज्ञा दी गई। किन्तु कोई भी क्रिया चाहे वह चैतसिक हो या दैहिक अपने परिवेश में एक हलचल अवश्य उत्पन्न करती है। इसी आधार पर यह माना गया कि इन क्रियाओं के परिणाम स्वरूप Jain Education International For Private &ZAlsonal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64