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डॉ. अरुण प्रताप सिंह
सचित्त आहार अर्थात् जीवनयुक्त वनस्पति आदि के आहार का सर्वथा त्याग कर देता है । आठवीं स्वयं आरम्भ वर्जन प्रतिमा है इसमें वह किसी भी प्रकार की हिंसा या पापाचरण नहीं करता है तथा नवीं भृतक प्रेष्यारम्भ वर्जन प्रतिमा है जिसमें साधक न स्वयं आरम्भ अर्थात् हिंसा करता है और न दूसरों से करवाता है। दसवीं उद्दिष्ट भक्त वर्जन प्रतिमा है जिसमें वह उद्दिष्ट अर्थात् अपने लिए तैयार किये गये भोजन का परित्याग कर देता है। ग्यारहवीं एवं अन्तिम श्रमणभूत प्रतिमा है जिसमें साधक श्रमण या साधु जैसा जीवन जीता है, वह भिक्षु की तरह वेश एवं पात्र भी रखने लगता है ।
इन प्रतिमाओं का पालन अत्यन्त दृढ़ व्यक्तित्व का परिचायक है। इस तपश्चर्या से आनन्द का शरीर सूख गया तथा शरीर में इतनी क्षीणता आ गई कि उभरी हुई नाड़ियाँ दीखने लगी। 4 इस अवस्था में आनन्द के मानसिक भावों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन की जरूरत है । इतना कृश होने पर भी उसके मन या चित्त में कोई चिन्ता या उद्वेग नहीं है। इसमें धर्मोन्मुख उत्साह है ( उत्थान ), कार्य करने की शक्ति है (कम्म), शारीरिक शक्ति है (बल), आन्तरिक ओज है (वीर्य), पुरुषोचित पराक्रम है ( पुरिसक्कार परक्कम), धर्म के प्रति आस्था है (श्रद्धा), सहिष्णुता है (धृति), एवं मुमुक्षुभाव (संवेग) है। 8
प्रसन्नचित्त एवं अन्तः शक्ति की दृढ़ता के साथ यह समाधिमरण का संकल्प लेता है।
समीक्षा
समाधिमरण के सम्बन्ध में हिन्दू एवं जैनपरम्परा में स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता है । हिन्दू परम्परा में धार्मिक आत्महत्या तात्कालिक एवं स्वर्ग-सुख को प्राप्त करने के लिए की जाती है। धर्मशास्त्रों एवं पुराणों ने देहत्याग करने वाले पुरुष को सहस्रों वर्षों तक स्वर्ग-सुख भोगने का सुखद आश्वासन दिया है। नदियों के तटों पर प्राणों की आहुति देने वाला व्यक्ति पहले से कोई आध्यात्मिक तैयारी नहीं किये रहता है। उसे प्रायश्चित्त आदि करने का विधान किया गया है, परन्तु यह विधान प्राणोत्सर्ग के दिन ही रखा गया है। इसके ठीक विपरीत जैनधर्म में समाधिमरण की एक लम्बी प्रक्रिया है । वह पूर्व तैयारी के साथ इस व्रत को स्वीकार करता है जिसमें मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग-सुख का कोई आश्वासन नहीं था ।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से व्याख्या करने पर यह स्पष्ट होता है कि हिन्दूधर्म की अपेक्षा जैनधर्म में समाधिमरण का स्वरूप विकसित एवं सुविचारित यद्यपि प्राचीनतम वैदिक प्राचीन साहित्य में कहीं भी धार्मिक विधि से देहत्याग का उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु जैनधर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग में ऐसा उल्लेख है । उपासकदशांग में आनन्द का कथानक भगवान महावीर के समय का बताया गया है। यहाँ कहा गया है कि महावीर के विचरणकाल में ही आनन्द ने समाधिमरण का व्रत लिया था । " किन्तु ऐतिहासिक समीक्षा इस ग्रन्थ को परवर्ती सिद्ध करती है। फिर भी यह दूसरी-तीसरी शती का अवश्य है ।
समाधिमरण सम्बन्धी जैन अभिलेखीय साक्ष्य 5वीं शताब्दी के उपरान्त प्राप्त होते हैं। छठी शताब्दी के लेखों में ही सर्वप्रथम समाधिमरण के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसके पूर्व के किसी For Private & Personal Use Only
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